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खुद तो बाहर ही खड़े रहे

खुद तो बाहर ही खड़े रहे, भीतर भेजा पांचाली को;
यतिवर बाबा के चरणों में, जाकर अपना मस्तक रख दो ।

अर्धरात्रि की बेला में, भीषम की लगी समाधी थी;
मन प्रभु चरणों में लगा हुआ, उस जगह न कोई व्याधा थी ।

कृष्णा ने जाकर सिर रक्खा, चरणों पर भीष्म पितामह के;
चरणों पर कौन झुका, देखूँ, बाबा भीषम एकदम चौंके ।

देखा एक सधवा नारी है, चरणों पर शीश झुकाती है;
उसके तन की रंगी साड़ी, सधवापन को दर्शाती है ।

आशीर्वाद मुख से निकला, सौभाग्यवती भव हो बेटी;
तेरे हाथों की मेहंदी का न रंग कभी छूटे बेटी ।

सौभाग्य तुम्हारा अचल रहे, सिन्दूर से मांग न खाली हो;
वर देता हूँ तुझको बेटी, तू वीर कुमारों वाली हो ।

सुनकर कृष्णा ने तुरत कहा, बाबा ये क्या बतलाते हो;
कल और आज कुछ और कहा, तुम सत्यव्रती कहलाते हो ।

मेहंदी का रंग तो रहने दो, साड़ी का रंग उड़ाओ ना;
सिन्दूर जो मेरी मांग का है, बाणों से उसे छुड़ाओ ना ।

मेरे पाँचों पतियों में से, यदि एक भी मारा जायेगा;
आशीर्वाद तेरा बाबा, क्या झूठा नहीं कहायेगा ।

तब आया होश पितामह को, हाथों से माला छूट गई;
मन प्रभु चरणों में लगा हुआ, चितचोर समाधी टूट गई ।

बोले बेटी इन प्रश्नों का उत्तर पीछे दे पाउंगा;
तेरे सुहाग का निर्णय भी मैं पीछे ही कर पाउंगा ।

एक बात खटकती है मन में, हैरान है जिसने कर डाला;
बतला बेटी, वह कहाँ छिपा, इस जगह तुझे लाने वाला ।

बेटी तूने मेरे कुल को, इतना पवित्र कर डाला है;
पहरा देता होगा तेरा, जो विश्व रचाने वाला है    ।

बूढ़ा होने को आया है, पर अब भी गई नहीं चोरी;
नित नई नीतियाँ चलता है, तुमसे चोरी, मुझसे चोरी ।

बाहर आकर के जो देखा, ड्योढ़ी का दृश्य निराला था;
पीताम्बर का घूंघट डाले, वो खड़ा बांसुरी वाला था ।

चरणों से जाकर लिपट गये, छलिया छलने को आया है;
भक्तों की रक्षा करने को, दासी का वेष बनाया है ।

*

कहते हैं द्रौपदी का जूता था, पीताम्बर के कोने में;
उर में करुणा का भार लिये थे लगे पितामह रोने में ।

हे द्रुपद सुता, मेरी बेटी, अब जाओ विजय तुम्हारी है;
पतियों का बाल न बाँका हो, जब रक्षक कृष्ण मुरारी हैं ।

जब रक्षक कृष्ण मुरारी हैं, भव भय भंजन भय हारी हैं;
जब रक्षक कृष्ण मुरारी हैं, भव भय भंजन भय हारी हैं ।

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