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उपदेशप्रद कहानी: सत्य की महिमा

Satya Ki Mahima Story
Satya Ki Mahima Story

एक सत्यवादी धर्मात्मा राजा थ। उनके नगर में कोई भी साधारण मनुष्य बिक्री करने के लिए बाजार में अन्न, वस्त्र आदि कोई वस्तु लाता और वह वस्तु यदि सायंकाल तक नहीं बिकती तो उसे राजा खरीद लिया करते थे। लोकहित के लिए राजा की यह सत्य प्रतिज्ञा थी। अत: सायंकाल होते ही राजा के सेवक शहर में भ्रमण करते और किसी को कोई वस्तु लिए बैठे देखते तो वे उससे पूछकर और उसके संतोष के अनुसार कीमत देकर उस वस्तु को खरीद लेते थे।

एक दिन की बात है। स्वयं धर्मराज ब्राह्मण का वेष धारण करके घर की टूटी-फूटी व्यर्थ की चीजें, जो बाहर फेंकने योग्य कूड़ा-करकट थीं, एक पेटी में भरकर उन सत्यवादी धर्मात्मा राजा की परीक्षा करने के लिए उनके नगर में आए और बिक्री के लिए बाजार में बैठ गए, किंतु कूड़ा-करकट कौन लेता? जब सायंकाल हुआ, तब राजा के सेवक नगर में सदा की भांति घूमने लगे। नगर में बेचने के लिए लोग जो वस्तुएं लाए थी, वे सब बिक चुकी थीं। केवल ये ब्राह्मण अपनी पेटी लिए बैठे थे। राजसेवकों ने इनके पास जाकर पूछा – ‘क्या आपकी वस्तु नहीं बिकी?’ उन्होंने उत्तर दिया – ‘नहीं।’ राजसेवकों ने पुन: पूछा – ‘आप इस पेटी में बेचने के लिए क्या चीज लाए हैं? और उसका मूल्य क्या है?’ ब्राह्मण ने कहा – ‘इसमें दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) भरा हुआ है। इसका मूल्य है एक हजार रुपए।’ यह सुनकर राजसेवक हंसे और उन्होंने कहा – ‘इस कूड़ा-करकट को कौन लेगा, जिसका एक पैसा भी मूल्य नहीं है?’ ब्राह्मण ने कहा – ‘यदि इसे कोई नहीं लेगा तो मैं इसे वापस अपने घर ले जाऊंगा।’ राजसेवकों ने तुरंत राजा के पास जाकर इसकी सूचना दी। इस पर राजा ने कहा – ‘उन्हें वस्तु वापस न ले जाने दो। मूल्य जो कम-से-कम हो सके, उन्हें संतोष कराकर वस्तु खरीद लो।’

राजसेवकों ने आकर ब्राह्मण से उस पेटी के दो सौ रुपए मूल्य कहा, किंतु ब्राह्मण ने एक हजार से एक पैसा भी कम लेना स्वीकार नहीं किया। राजसेवकों ने पांच सौ रुपए तक देना स्वीकार कर लिया, परंतु ब्राह्मण ने इंकार कर दिया। तब राजसेवकों में से कुछ व्यक्ति उत्तेजित होकर राजा के पास आए और बोले – ‘महाराज! उनकी पेटी में दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) भरा हिआ है, एक पैसे की भी चीज नहीं है और पांच सौ रुपए देने पर भी वे नहीं दे रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में आपको उनकी वस्तु नहीं खरीदनी चाहिए।’ राजा ने कहा – ‘नहीं, हमारी सत्य प्रतिज्ञा है, हम सत्य का त्याग कभी नहीं करेंगे, इसलिए ब्राह्मण को, वे जो मांगे, देकर उस वस्तु को खरीद लो।’ यह सुनकर राजसेवक राजा के इस आग्रह को देखकर हंसे और लौट आए। उन्होंने निरुपाय होकर ब्राह्मण को एक हजार रुपए दे दिए और उनकी पेटी ले ली। ब्राह्मण रुपए लेकर चले गए और राजसेवक पेटी को राजा के पास ले आए। राजा ने उस दारिद्र्य से भरी पेटी को रामहल में रखवा दिया।

रात्रि में जब शयन का समय हुआ, तब राजमहल के द्वार से वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एक बहुत सुंदर युवती निकली। राजा बाहर बैठक में बैठे हुए थे। उस स्त्री को देखकर राजा ने पूछा – ‘आप कौन हैं? किस कार्य से आई हैं? और क्यों जा रही हैं?’ उस स्त्री ने कहा – ‘मैं लक्ष्मी हूं। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, इस कारण मैं सदा से आपके घर में निवास करती रही हूं, पर अब तो आपके घर में दारिद्र्य आ गया है, जहां दारिद्र्य रहता है वहां लक्ष्मी नहीं रहती। इसलिए आज मैं आपके यहां से जा रहीं हूं।’ राजा बोले – ‘जैसी आपकी इच्छा।’

थोड़ी देर बाद राजा ने एक बहुत ही सुंदर युवा पुरुष राजमहल के दरवाजे से निकलते देखा तो उससे पूछा – ‘आप कौन हैं? कैसे आए हैं और कहां जा रहे हैं?’ उस सुंदर पुरुष ने कहा – ‘मेरा नाम दान है। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, इस कारण सदा मैं आपके यहां निवास करता रहा हूं। अब जहां लक्ष्मी गई हैं, वहीं मैं जा रहा हूं; क्योंकि जब लक्ष्मी चली गई तब आप दान कहां से करेंगे?’ तब राजा बोले – ‘बहुत अच्छा।’

उसके बाद फिर एक सुंदर पुरुष निकलता दिखाई दिया। राजा ने उससे भी पूछा – ‘आप कौन हैं? कैसे आए हैं और कहां जा रहे हैं?’ उसने कहा – ‘मैं यज्ञ हूं। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, अत: आपके यहां मैं सदा निवास करता रहा। अब आपके यहां से लक्ष्मी और दान चले गए तो मैं भी वहीं जा रहा हूं; क्योंकि बिना संपत्ति के आप यज्ञ का अनुष्ठान कैसे करेंगे?’ राजा बोले – ‘बहुत अच्छा।’

तदनंतर फिर एक युवा पुरुष दिखाई दिया। राजा ने पूछा – ‘आप कौन हैं? कैसे आए हैं और कहां जा रहे हैं?’ उसने कहा – ‘मेरा नाम यश है। आप धर्मात्मा सत्यवादी हैं, अत: मैं आपके यहां सदा से रहता आया हूं; किंतु आपके यहां से लक्ष्मी, दान, यज्ञ सब चले गए तो उनके बिना आपका यश कैसे रहेगा? इसलिए मैं भी वहीं जा रहा हूं, जहां वे गए हैं।’ राजा ने कहा – ‘ठीक है।’

तत्पश्चात एक सुंदर पुरुष फिर निकला। उसे देखकर उससे भी राजा ने पूछा – ‘आप कौन हैं? कैसे आए हैं और कहां जा रहे हैं?’ उसने कहा – ‘मेरा नाम सत्य है। आप धर्मात्मा हैं, अत: मैं सदा अपके यहां रहता आया हूं; किंतु अब आपके यहां से लक्ष्मी, दान, यज्ञ, यश – सब चले गए तो मैं भी वहीं जा रहा हूं।’ राजा ने कहा – ‘मैंने तो आपके लिए ही इन सबका त्याग किया है, आपका तो मैंने कभी त्याग किया ही नहीं, इसलिए आप कैसे जा सकते हैं? मैंने लोकोपकार के लिए यह सत्य प्रतिज्ञा कर रखी थी कि कोई भी व्यक्ति मेरे नगर में बिक्री करने के लिए कोई वस्तु लेकर आएगा और सायंकाल तक उसकी वह वस्तु नहीं बिकेगी तो मैं खरीद लूंगा। आज एक ब्राह्मण दारिद्र्य लेकर बिक्री करने आए जो एक पैसे की भी चीज नहीं; किंतु सत्य की रक्षा के लिए ही मैंने विक्रेता ब्राह्मण को एक हजार रुपए देकर उस दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) को खरीद लिया। तब लक्ष्मी ने आकर कहा कि आपके घर में दारिद्र्य का वास हो गया, इसलिए मैं नहीं रहूंगी। इसी कारण मेरे यहां से लक्ष्मी आदि सब चले गए। ऐसा होने पर भी मैं आपके बल पर डटा हुआ हूं।’ यह सुनकर सत्य ने कहा – ‘जब मेरे लिए ही आपने इन सबका त्याग किया है, तब मैं नहीं जाऊंगा।’ ऐसा कहकर वह राजमहल में वापस प्रवेश कर गया।

कुछ ही देर बाद ‘यश’ लौटकर राजा के पास आया। राजा ने पूछा – ‘आप कौन हैं और क्यों आए हैं?’ उसने कहा – ‘मैं वही यश हूं, आपमें सत्य विराजमान है। चाहे कोई कितना ही यज्ञकर्ता, दानी और लक्ष्मीवान क्यों न हो, किंतु बिना सत्य के वास्तविक कीर्ति नहीं हो सकती। इसलिए जहां सत्य है, वहीं मैं रहूंगा।’ राजा बोले – ‘बहुत अच्छा।’

तदनंतर यज्ञ आया। राजा ने उससे पूछा – ‘आप कौन हैं और किसलिए आए हैं?’ उसने कहा – ‘मैं वही यज्ञ हूं, जहां सत्य रहता है, वहीं मैं रहता हूं, चाहे कोई कितना भी दानशील और लक्ष्मीवान क्यों न हो, किंतु बिना सत्य के यज्ञ शोभा नहीं देता। आपमें सत्य है, अत: मैं यहीं रहूंगा।’ राजा बोले – ‘बहुत अच्छा।’

तत्पश्चात दान आया। राजा ने उससे भी पूछा – ‘आप कौन हैं और कैसे आए हैं?’ उसने कहा – ‘मैं वही दान हूं। आपमें सत्य विराजमान है और जहां सत्य रहता है वहीं मैं रहता हीं; क्योंकि कोई कितना ही लक्ष्मीवान क्यों न हो, बिना सद्भाव के दान नहीं दे सकता। आपके यहां सत्य है, इसलिए मैं यहीं रहूंगा।’ राजा बोले – ‘बहुत अच्छा।’

इसके अनंतर लक्ष्मी आई। राजा ने पूछा – ‘आप कौन हैं और क्यों आई है?’ उसने कहा – ‘मैं वही लक्ष्मी हूं। आपके यहां सत्य विराजमान है। आपके यहां यश, यज्ञ, दान भी लौट आए है। इसलिए मैं भी लौट आई हूं।’ राजा बोले – ‘देवि! यहां तो दारिद्र्य भरा हुआ है, आप कैसे निवास करेंगी? लक्ष्मी ने कहा – राजन्! जो कुछ भी हो, मैं सत्य को छोड़कर नहीं रह सकती।’ राजा बोले – ‘जैसी आपकी इच्छा।’

तदनंतर वहां स्वयं धर्मराज उसी ब्राह्मण के रूप में आए। राजा ने पूछा- ‘आप कौन हैं और कैसे आए हैं?’ धर्मराज बोले – ‘मैं साक्षात धर्म हूं, मैं ही ब्राह्मण का रूप धारण करके एक हजार रुपए में आपको दारिद्र्य दे दया था। आपने सत्य के बल से मुझ धर्म को जीत लिया। मैं आपको वर देने के लिए आया हूं, बतलाइए, मैं आपका कौन-सा अभीष्ट कार्य करूं?’ राजा ने कहा – ‘आपकी कृपा है। मुझको कुछ भी नहीं चाहिए। आप जिस प्रकार सदा करते आए हैं, उसी प्रकार करते रहिए।’

इस दृष्टांत से यह सिद्ध हो गया कि जहां सत्य है, वहां सब कुछ है। वहां कभी संपत्ति, दान, यज्ञ, यश की कमी भी हो जाए तो मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए। यदि सत्य कायम रहेगा तो ये सभी आप ही लौट आएंगे और ये न आएं तो भी कोई हानि नहीं, उसका परम कल्याण है। अत: कल्याणकामी पुरुष को सत्य का कभी त्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि निष्काम भाव से उसका अवश्य दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए।

यथार्थ भाषण, सद्गुण और सदाचार का नाम ही सत्य है। भगवान ने गीता में कहा है –

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते।।
यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।

‘सत्-इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव (परमात्मा के अस्तित्व) में और श्रेष्ठभाव (सद्गुण) में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म (सदाचार) में भी सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति (निष्ठा) है वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ (भगवदर्थ) कर्म तो निश्चय ही ‘सत्’ ऐसे कहा जाता है।’

wish4me in English

ek satyavaadee dharmaatma raaja th. unake nagar mein koee bhee saadhaaran manushy bikree karane ke lie baajaar mein ann, vastr aadi koee vastu laata aur vah vastu yadi saayankaal tak nahin bikatee to use raaja khareed liya karate the. lokahit ke lie raaja kee yah saty pratigya thee. at: saayankaal hote hee raaja ke sevak shahar mein bhraman karate aur kisee ko koee vastu lie baithe dekhate to ve usase poochhakar aur usake santosh ke anusaar keemat dekar us vastu ko khareed lete the.

ek din kee baat hai. svayan dharmaraaj braahman ka vesh dhaaran karake ghar kee tootee-phootee vyarth kee cheejen, jo baahar phenkane yogy kooda-karakat theen, ek petee mein bharakar un satyavaadee dharmaatma raaja kee pareeksha karane ke lie unake nagar mein aae aur bikree ke lie baajaar mein baith gae, kintu kooda-karakat kaun leta? jab saayankaal hua, tab raaja ke sevak nagar mein sada kee bhaanti ghoomane lage. nagar mein bechane ke lie log jo vastuen lae thee, ve sab bik chukee theen. keval ye braahman apanee petee lie baithe the. raajasevakon ne inake paas jaakar poochha – ‘kya aapakee vastu nahin bikee?’ unhonne uttar diya – ‘nahin.’ raajasevakon ne pun: poochha – ‘aap is petee mein bechane ke lie kya cheej lae hain? aur usaka mooly kya hai?’ braahman ne kaha – ‘isamen daaridry (kooda-karakat) bhara hua hai. isaka mooly hai ek hajaar rupe.’ yah sunakar raajasevak hanse aur unhonne kaha – ‘is kooda-karakat ko kaun lega, jisaka ek paisa bhee mooly nahin hai?’ braahman ne kaha – ‘yadi ise koee nahin lega to main ise vaapas apane ghar le jaoonga.’ raajasevakon ne turant raaja ke paas jaakar isakee soochana dee. is par raaja ne kaha – ‘unhen vastu vaapas na le jaane do. mooly jo kam-se-kam ho sake, unhen santosh karaakar vastu khareed lo.’

raajasevakon ne aakar braahman se us petee ke do sau rupe mooly kaha, kintu braahman ne ek hajaar se ek paisa bhee kam lena sveekaar nahin kiya. raajasevakon ne paanch sau rupe tak dena sveekaar kar liya, parantu braahman ne inkaar kar diya. tab raajasevakon mein se kuchh vyakti uttejit hokar raaja ke paas aae aur bole – ‘mahaaraaj! unakee petee mein daaridry (kooda-karakat) bhara hia hai, ek paise kee bhee cheej nahin hai aur paanch sau rupe dene par bhee ve nahin de rahe hain. aisee paristhiti mein aapako unakee vastu nahin khareedanee chaahie.’ raaja ne kaha – ‘nahin, hamaaree saty pratigya hai, ham saty ka tyaag kabhee nahin karenge, isalie braahman ko, ve jo maange, dekar us vastu ko khareed lo.’ yah sunakar raajasevak raaja ke is aagrah ko dekhakar hanse aur laut aae. unhonne nirupaay hokar braahman ko ek hajaar rupe de die aur unakee petee le lee. braahman rupe lekar chale gae aur raajasevak petee ko raaja ke paas le aae. raaja ne us daaridry se bharee petee ko raamahal mein rakhava diya.

raatri mein jab shayan ka samay hua, tab raajamahal ke dvaar se vastraabhooshanon se susajjit ek bahut sundar yuvatee nikalee. raaja baahar baithak mein baithe hue the. us stree ko dekhakar raaja ne poochha – ‘aap kaun hain? kis kaary se aaee hain? aur kyon ja rahee hain?’ us stree ne kaha – ‘main lakshmee hoon. aap satyavaadee dharmaatma hain, is kaaran main sada se aapake ghar mein nivaas karatee rahee hoon, par ab to aapake ghar mein daaridry aa gaya hai, jahaan daaridry rahata hai vahaan lakshmee nahin rahatee. isalie aaj main aapake yahaan se ja raheen hoon.’ raaja bole – ‘jaisee aapakee ichchha.’

thodee der baad raaja ne ek bahut hee sundar yuva purush raajamahal ke daravaaje se nikalate dekha to usase poochha – ‘aap kaun hain? kaise aae hain aur kahaan ja rahe hain?’ us sundar purush ne kaha – ‘mera naam daan hai. aap satyavaadee dharmaatma hain, is kaaran sada main aapake yahaan nivaas karata raha hoon. ab jahaan lakshmee gaee hain, vaheen main ja raha hoon; kyonki jab lakshmee chalee gaee tab aap daan kahaan se karenge?’ tab raaja bole – ‘bahut achchha.’

usake baad phir ek sundar purush nikalata dikhaee diya. raaja ne usase bhee poochha – ‘aap kaun hain? kaise aae hain aur kahaan ja rahe hain?’ usane kaha – ‘main yagy hoon. aap satyavaadee dharmaatma hain, at: aapake yahaan main sada nivaas karata raha. ab aapake yahaan se lakshmee aur daan chale gae to main bhee vaheen ja raha hoon; kyonki bina sampatti ke aap yagy ka anushthaan kaise karenge?’ raaja bole – ‘bahut achchha.’

tadanantar phir ek yuva purush dikhaee diya. raaja ne poochha – ‘aap kaun hain? kaise aae hain aur kahaan ja rahe hain?’ usane kaha – ‘mera naam yash hai. aap dharmaatma satyavaadee hain, at: main aapake yahaan sada se rahata aaya hoon; kintu aapake yahaan se lakshmee, daan, yagy sab chale gae to unake bina aapaka yash kaise rahega? isalie main bhee vaheen ja raha hoon, jahaan ve gae hain.’ raaja ne kaha – ‘theek hai.’

tatpashchaat ek sundar purush phir nikala. use dekhakar usase bhee raaja ne poochha – ‘aap kaun hain? kaise aae hain aur kahaan ja rahe hain?’ usane kaha – ‘mera naam saty hai. aap dharmaatma hain, at: main sada apake yahaan rahata aaya hoon; kintu ab aapake yahaan se lakshmee, daan, yagy, yash – sab chale gae to main bhee vaheen ja raha hoon.’ raaja ne kaha – ‘mainne to aapake lie hee in sabaka tyaag kiya hai, aapaka to mainne kabhee tyaag kiya hee nahin, isalie aap kaise ja sakate hain? mainne lokopakaar ke lie yah saty pratigya kar rakhee thee ki koee bhee vyakti mere nagar mein bikree karane ke lie koee vastu lekar aaega aur saayankaal tak usakee vah vastu nahin bikegee to main khareed loonga. aaj ek braahman daaridry lekar bikree karane aae jo ek paise kee bhee cheej nahin; kintu saty kee raksha ke lie hee mainne vikreta braahman ko ek hajaar rupe dekar us daaridry (kooda-karakat) ko khareed liya. tab lakshmee ne aakar kaha ki aapake ghar mein daaridry ka vaas ho gaya, isalie main nahin rahoongee. isee kaaran mere yahaan se lakshmee aadi sab chale gae. aisa hone par bhee main aapake bal par data hua hoon.’ yah sunakar saty ne kaha – ‘jab mere lie hee aapane in sabaka tyaag kiya hai, tab main nahin jaoonga.’ aisa kahakar vah raajamahal mein vaapas pravesh kar gaya.

kuchh hee der baad ‘yash’ lautakar raaja ke paas aaya. raaja ne poochha – ‘aap kaun hain aur kyon aae hain?’ usane kaha – ‘main vahee yash hoon, aapamen saty viraajamaan hai. chaahe koee kitana hee yagyakarta, daanee aur lakshmeevaan kyon na ho, kintu bina saty ke vaastavik keerti nahin ho sakatee. isalie jahaan saty hai, vaheen main rahoonga.’ raaja bole – ‘bahut achchha.’

tadanantar yagy aaya. raaja ne usase poochha – ‘aap kaun hain aur kisalie aae hain?’ usane kaha – ‘main vahee yagy hoon, jahaan saty rahata hai, vaheen main rahata hoon, chaahe koee kitana bhee daanasheel aur lakshmeevaan kyon na ho, kintu bina saty ke yagy shobha nahin deta. aapamen saty hai, at: main yaheen rahoonga.’ raaja bole – ‘bahut achchha.’

tatpashchaat daan aaya. raaja ne usase bhee poochha – ‘aap kaun hain aur kaise aae hain?’ usane kaha – ‘main vahee daan hoon. aapamen saty viraajamaan hai aur jahaan saty rahata hai vaheen main rahata heen; kyonki koee kitana hee lakshmeevaan kyon na ho, bina sadbhaav ke daan nahin de sakata. aapake yahaan saty hai, isalie main yaheen rahoonga.’ raaja bole – ‘bahut achchha.’

isake anantar lakshmee aaee. raaja ne poochha – ‘aap kaun hain aur kyon aaee hai?’ usane kaha – ‘main vahee lakshmee hoon. aapake yahaan saty viraajamaan hai. aapake yahaan yash, yagy, daan bhee laut aae hai. isalie main bhee laut aaee hoon.’ raaja bole – ‘devi! yahaan to daaridry bhara hua hai, aap kaise nivaas karengee? lakshmee ne kaha – raajan! jo kuchh bhee ho, main saty ko chhodakar nahin rah sakatee.’ raaja bole – ‘jaisee aapakee ichchha.’

tadanantar vahaan svayan dharmaraaj usee braahman ke roop mein aae. raaja ne poochha- ‘aap kaun hain aur kaise aae hain?’ dharmaraaj bole – ‘main saakshaat dharm hoon, main hee braahman ka roop dhaaran karake ek hajaar rupe mein aapako daaridry de daya tha. aapane saty ke bal se mujh dharm ko jeet liya. main aapako var dene ke lie aaya hoon, batalaie, main aapaka kaun-sa abheesht kaary karoon?’ raaja ne kaha – ‘aapakee krpa hai. mujhako kuchh bhee nahin chaahie. aap jis prakaar sada karate aae hain, usee prakaar karate rahie.’

is drshtaant se yah siddh ho gaya ki jahaan saty hai, vahaan sab kuchh hai. vahaan kabhee sampatti, daan, yagy, yash kee kamee bhee ho jae to manushy ko ghabaraana nahin chaahie. yadi saty kaayam rahega to ye sabhee aap hee laut aaenge aur ye na aaen to bhee koee haani nahin, usaka param kalyaan hai. at: kalyaanakaamee purush ko saty ka kabhee tyaag nahin karana chaahie, balki nishkaam bhaav se usaka avashy drdhataapoorvak paalan karana chaahie.

yathaarth bhaashan, sadgun aur sadaachaar ka naam hee saty hai. bhagavaan ne geeta mein kaha hai –

sadbhaave saadhubhaave ch sadityetatprayujyate.
prashaste karmani tatha sachchhabd: paarth yujyate..
yagye tapasi daane ch sthiti: saditi chochyate.
karm chaiv tadartheeyan sadityevaabhidheeyate..

‘sat-is prakaar yah paramaatma ka naam satyabhaav (paramaatma ke astitv) mein aur shreshthabhaav (sadgun) mein prayog kiya jaata hai tatha he paarth! uttam karm (sadaachaar) mein bhee sat shabd ka prayog kiya jaata hai tatha yagy, tap aur daan mein jo sthiti (nishtha) hai vah bhee ‘sat’ is prakaar kahee jaatee hai aur us paramaatma ke lie kiya hua (bhagavadarth) karm to nishchay hee ‘sat’ aise kaha jaata hai.’

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