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हमेशा सोच समझ कर काम करो – पंचतंत्र की कहानी !!

दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध नगर पाटलिपुत्र में मणिभद्र नाम का एक धनिक महाजन रहता था। लोक सेवा और धार्मिक कार्यों में निहित रहने के कारण मणिभद्र के पास धन संचय में कमी हो गई। इस बात को लेकर मणिभद्र काफी चिंतित रहता था। उसकी यह चिंता निरर्थक नहीं थी। धन विहीन मनुष्य के गुण भी दरिद्रता के तले दब जाते हैं। निर्धन मनुष्यों के गुणों का समाज भी आदर नहीं करता।

बुद्धि ज्ञान और प्रतिभा सब निर्धनता के कारण अदृश्य हो जाते हैं। जैसे पतझड़ के मौसम में मौलसरी के फूल झड़ जाते हैं, वैसे ही घर परिवार के पोषण की चिंता में बुद्धि भी विलीन हो जाती हैं। घर के घी तेल नमक चावल दाल की निरंतर चिंता प्रतिभाशील व्यक्ति की भी प्रतिभा को खा जाती है। निर्धन व्यक्ति का घर शमशान का रूप ले लेता है। उस समय प्रियदर्शनी पत्नी का भी स्वरूप रुखा सुखा और निर्जीव सा प्रतीत होता है। पानी में उठते बुलबुलों की तरह उसकी मान मर्यादा समाज में समाप्त हो जाती है।

निर्धनता की इस भयानक कल्पनाओं को सोच कर उसका दिल दहल उठा। इन कल्पनाओं का विचार करते हुए उसे नींद आ गई। नींद में उसे एक सपना आया।

स्वप्न में उसे पद्मानिधि ने एक भिक्षुक के रूप में दर्शन दिए और बोले “तुम्हारे पूर्वजों ने मेरी खूब सेवा की है, इसलिए मैं तुम्हारे पास आया हूं। कल सुबह मैं इसी वेशभूषा में तुम्हारे घर आऊंगा। तुम मुझे लाठी से मार देना। मैं मरते ही स्वर्णमय हो जाऊंगा। उस स्वर्ण से तुम्हारी दरिद्रता दूर हो जाएगी।”

जब सुबह मणिभद्र उठा तो उसके मन में स्वप्न के बारे में विचार आने लगे, साथ में अनेक प्रकार के प्रसन्न भी उसके मन उठने लगे। ना जाने यह सपना सत्य है या असत्य। क्या ऐसा कुछ संभव है या नहीं। इसी प्रकार के विचारों से उसका मन डावाडोल हो रहा था।

तभी अचानक उसके द्वार पर एक भिक्षुक आ गया। मणिभद्र को पुनः अपना स्वप्न याद आया और उसने पास पड़ी लाठी उठाकर भिक्षुक के सर पर दे मारी। लाठी के लगते ही भिक्षुक के प्राण पखेरू हो गए और उसका शव स्वर्ण मय हो गया। उसने जल्दी से उस शव को अपने घर में छुपा लिया। किंतु इस सब कार्य को करते हुए एक नाई ने देख लिया।

मणिभद्र ने नाई को काफी सारा धन देखकर इस बात को किसी को भी नहीं कहने के लिए कहा। नाई ने वह बात तो किसी को भी नहीं बताई किंतु वह भी मणिभद्र की तरह जल्दी से सर्व संपन्न हो जाना चाहता था। उसने सोचा कि इस सरल विधि से मैं खूब सारा धन एकत्रित कर लूंगा और सर्व संपन्न हो जाऊंगा। यह सब सोचते सोचते उसे रात्रि में एक पल भी नींद नहीं आई।

अगले दिन सुबह उठकर नाई भिक्षुको की खोज करने लगा। गांव के पास ही एक मंदिर में भिक्षुको की एक टोली रुकी हुई थी। नाई मंदिर में अंदर गया, भगवान की पूजा अर्चना करके मंदिर के प्रधान भिक्षुक के पास गया और उनके चरण स्पर्श किए और बोला “महाराज आज की भिक्षा के लिए आप समस्त भिक्षुकों के साथ मेरे द्वार पर पधारेंगे।”

प्रधान भिक्षुक ने नाई से कहा “तुम हमारे भिक्षा के नियमों को नहीं जानते। हम उस ब्राह्मणों के कुल से नहीं हैं जो निमंत्रण पाते ही गृहस्थियों के घर चला जाए। हम भिक्षुक हैं, घूमते घूमते किसी के भी घर पर भिक्षा के लिए चले जाते हैं और वहां से भी उतना ही भोजन लेते हैं जितना कि प्राण धारण करने के लिए आवश्यक हो। हम सब किसी दिन घूमते हुए तुम्हारे घर अवश्य आ जाएंगे।”

प्रधान भिक्षुक का उत्तर सुनकर नाई को निराशा हुई, उसने एक नई युक्ति सोची और बोला “मैं आपके नियमों से अच्छी तरीके से परिचित हूं, किंतु मैं आपको भिक्षा के लिए नहीं बुला रहा हूं। मेरा उद्देश्य तो आपको पुस्तकें एवं लेखन सामग्री देने का है। इस महान कार्य की सिद्धि आपके आए बिना पूरी नहीं होगी।” प्रधान भिक्षुक ने नाई की बात मान ली। नाई जल्दी से अपने घर गया और सब तैयारियां कर ली।

नाई अब भिक्षुको के पास गया और उन सब को अपने घर की तरफ ले गया। भिक्षुक वर्ग भी धन वस्त्रों के लालच मैं उस नाई के पीछे पीछे चल दिया। संसार में सब कुछ छोड़ देने के बाद भी तृष्णा संपूर्ण रूप से नष्ट नहीं होती। शरीर के सभी अंग बेकार हो जाते है, बाल श्वेत हो जाते है, चमड़ी रूखी सी हो जाती है फिर भी हमारे मन की तृष्णा जवान रहती है।

उनकी तृष्णा ने उन्हें ठग लिया। नई सभी भिक्षुको को अपने घर के अंदर बुला कर उन सब पर लाठियां बरसाना शुरू कर दी। कई तो लाठियां खाते ही धराशाई हो गए, कईयों के सर फट गए। इन सब का शोर सुनकर गांव वाले एकत्रित हो गए और एक नगरपाल भी वहा आ गया। उन्होंने वहां आकर देखा कि कई भिक्षुको के मृत शरीर पड़े हैं और कुछ लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भाग रहे हैं।

नाई से जब इस रक्तपात का कारण पूछा तो उसने मणिभद्र के घर पर आहुत भिक्षुक के स्वर्णमय होने की बात बताई वह भी मणिभद्र की तरह जल्दी से सर्व संपन्न होना चाहता था, इसलिए उसने ऐसा किया।

राज अधिकारियों ने मणिभद्र को बुलाया और पूछा “क्या तुमने भिक्षु की हत्या की है?”

मणिभद्र ने अपने स्वप्न की कहानी आरंभ से अंत तक सुनाई। राज्य के धर्माधिकारियों ने उस नाई को मृत्युदंड दिया और कहा “ऐसे कुपरीक्षितकारी बिना सोचे काम करने वालों के लिए मृत्युदंड ही उपयुक्त है। कोई भी कार्य करने से पहले उसे अच्छी तरह जाने, देखे, परखे, उसकी परीक्षा ले उसके बाद उस कार्य को करना चाहिए वरना परिणाम नाई की तरह होता है।

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