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गुरु की महिमा – Guru ki mahima!!

मूलशंकर बेहद ही गरीब परिवार में पले – बढ़े उनका पालन – पोषण अभावग्रस्त रहा गुरुकुल में किसी प्रकार दाखिला मिला मूला शंकर पढ़ने में बड़े ही मेधावी छात्र थे। वह अन्य छात्रों से अलग विचार रखते थे और पढ़ने तथा समाज के बारे में वह विशेष अध्ययन किया करते थे।

शिक्षा गुरुकुल स्तर से जब पूर्ण हुई सभी शिष्य अपने गुरु को गुरु दक्षिणा के रूप में अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ ना कुछ अपने गुरु को अर्पण कर रहे थे। कोई गाय दान कर रहा था , कोई अनाज दान कर रहा था , कोई मुद्राएं दान कर रहा था। किंतु मुलशंकर के सामर्थ्य में इस प्रकार का दान करना नहीं था।  मुलशंकर अपने माता के पास पहुंचे और गुरु दक्षिणा का विषय अपनी माता को समझाया। माता को भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह मुलशंकर को गुरु दक्षिणा के लिए क्या भेंट दे ? काफी देर सोच विचार के उपरांत माता ने एक लॉन्ग और सुपारी कपड़े में बांधकर गुरु दक्षिणा के लिए मूलशंकर को दिया।

मुलशंकर यह भेंट लेकर अपने गुरु के समक्ष प्रस्तुत हुए और गुरु दक्षिणा के रूप में वह पोटली भेंट की। ऐसा देखकर अन्य सहपाठी छात्र मुलशंकर का उपहास करने लगे। मुलशंकर भी लज्जा और गिलानी के भाव के बोझ से दवा हुआ था। पोटली गुरु को अर्पण करते ही वह गुरु के चरणों में जोर – जोर से रोने लगा और गुरु से क्षमा याचना करने लगा यही मेरे सामर्थ्य मे था जो मैंने आपको अर्पण किया।

गुरु ने मूलशंकर के समर्पण भाव को देखकर गले से लगाया और उसे हिम्मत दी और कहा -‘  कौन कहता है तुम्हारे पास देने को कुछ नहीं है , तुम मुझे अन्य शिष्यों से प्रिय हो। तुम पढ़ने में सबसे होनहार हो , क्या यह मेरे लिए कम है। मुझे देना ही चाहते हो तो एक वचन दो कि तुम मेरे ज्ञान को समाज के लिए प्रयोग में लाओगे , समाज का कल्याण हो ऐसा प्रयास करोगे , मेरी शिक्षा तभी सफल होगी जब समाज मैं इस शिक्षा का प्रयोग हो सके।’

मूलशंकर उठे और अपने गुरु को आजीवन ब्रह्मचर्य रहकर समाज की सेवा करने का वचन दिया। इतना ही नहीं उन्होंने समाज के लिए अनेक प्रकार के कार्यक्रम चलाए। वेदों की ओर लोटो का नारा देते हुए समाज को एक नई दिशा प्रदान की। यही व्यक्ति आगे चलकर दयानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनकी ख्याति देश ही नहीं अपितु विदेश में भी है।

गुरु की महिमा – Guru ki mahima!!

स्वामी विवेकानंद एक बार एक रेलवे स्टेशन पर बैठे थे उनका अयाचक (ऐसा व्रत जिसमें किसी से मांग कर भोजन नहीं किया जाता) व्रत था। वह व्रत में किसी से कुछ मांग भी नहीं सकते थे। एक व्यक्ति उन्हें चिढ़ाने के लहजे से उनके सामने खाना खा रहा थ

स्वामी जी दो दिन से भूखे थे और वह व्यक्ति कई तरह के पकवान खा रहा था और बोलता जा रहा था कि बहुत बढ़िया मिठाई है। विवेकानंद ध्यान की स्थिति में थें और अपने गुरुदेव को याद कर रहे थे।

वह मन ही मन में बोल रहे थे कि गुरुदेव आपने जाे सीख दी है उससे अभी भी मेरे मन में कोई दुख नहीं है। ऐसा कहते विवेकानंद शांत बैठे थे। दोपहर का समय था। उसी नगर में एक सेठ को भगवान राम ने दर्शन दिए और कहा कि रेलवे स्टेशन पर मेरा भक्त एक संत आया है उसे भोजन करा कर आओ उसका अयाचक व्रत है जिसमें किसी से कुछ मांग कर खाना नहीं खाया जाता है तो आप जाओ और भोजन करा कर आओ।

सेठ ने सोचा यह महज कल्पना है। दोपहर का समय था सेठ फिर से करवट बदल कर सो गया। भगवान ने दाेबारा दर्शन दिए और सेठ से कहा कि तुम मेरा व्रत रखते और तुम मेरा इतना सा भी काम नहीं करोगे। जाओ और संत को भोजन करा कर आओ।

तब सेठ सीधा विवेकानंद के पास पहुंच गया और वह उनसे बोला कि मेें आपके लिए भोजन लाया हूं। सेठ बोला में आपको प्रणाम करना चाहता हूं कि ईश्वर ने मुझे सपने में कभी दर्शन नहीं दिए आपके कारण मुझे रामजी के दर्शन सपने में हो गए इसलिए में आपको प्रणाम कर रहा हूं।

विवेकानंद की आंख में आंसू आ गए। कि मैनें याद तो मेरे गुरुदेव को किया था। गुरुदेव और ईश्वर की कैसी महिमा है।

स्वामी विवेकानंद की आंख के आंसू रुक नहीं रहे थे। तब उन्हें लगा कि गुरु ही ईश्वर हैं। गुरु का स्थान ईश्वर से बड़ा होता है क्योंकि ईश्वर भी भगवान राम और कृष्ण अवतार में गुरु की शरण में गए हैं।

लेकिन गुरु कौन?

वही जो भगवान से मिला दे।

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रामशरण ने कहा-" सर! जब मैं गांव से यहां नौकरी करने शहर आया तो पिताजी ने कहा कि बेटा भगवान जिस हाल में रखे उसमें खुश रहना। तुम्हें तुम्हारे कर्म अनुरूप ही मिलता रहेगा। उस पर भरोसा रखना। इसलिए सर जो मिलता है मैं उसी में खुश रहता हूं