एक नगर में एक बुनकर रहता था। उसका नाम सौमिलक था। वह बुनाई में निपुण था। उसकी कारीगरी उत्कृष्ट थी। उसके द्वारा बनाये वस्त्र सर्वश्रेष्ठ हुआ करते थे। इसके बावज़ूद वह उतना ही धन उपार्जित कर पाता था, जिससे भोजन-वस्त्र की पूर्ति कर सके।
जबकि उसी नगर के अन्य बुनकर साधारण वस्त्र बनाते हुए भी उससे कहीं अधिक धन अर्जित कर बहुत धनी हो चुके थे। यह देख सौमिलक दु:खी होता और सोचता कि इस गाँव में परिश्रम का कोई मोल ही नहीं।
एक दिन उसने गाँव छोड़कर अन्यत्र जाने का विचार किया और अपनी पत्नि से बोला, “भाग्यवान! इतने वर्षों से इस नगर में रहकर मैं निर्धन का निर्धन ही रहा. कदाचित् यह नगर मेरे लिए भाग्यशाली नहीं है। इसलिए मेरे परिश्रम का प्रतिफ़ल प्रदान नहीं करता। मैं अब परदेश जाकर धन अर्जित करूंगा”।
उसकी बात सुनकर पत्नि बोली, “नाथ! भाग्य में धन प्राप्ति लिखा होगा, तो यहाँ भी हो जायेगा।। इसके लिए परदेश जाने की क्या आवश्यकता है? मेरी मानो, तो यहीं कार्य करते रहो विश्वास रखो, एक दिन ईश्वर हमारा भाग्य पलट देगा”।
परन्तु, सौमिलक नहीं माना, बोला, “नहीं, अब मैंने मन बना लिया है। अब मैं परदेश जाकर ही उद्यम करूंगा और धन संचय कर ही लौटूंगा”।
कुछ दिनों पश्चात् सौमिलक वर्धमानपुर चला गया। वहाँ उसने अपना बुनाई का कार्य पुनःस्थापित किया। वहाँ उसका भाग्य चमक उठा और वह उन्नति करता गया। तीन वर्ष के भीतर उसने तीन सौ स्वर्ण मुद्राएं अर्जित कर ली।
अब वह अपने नगर लौटने की तैयारी में लग गया। वह अपने नगरवासियों को दिखाना चाहता था कि वह कितना सफ़ल है। एक सुबह वह तीन सौ सोने की मुद्राएं लेकर अपने नगर की ओर रवाना हो गया। दिन भर वह चलता रहा, रास्ता लंबा था। दिन ढल गया, किंतु वह नगर नहीं पहुँच पाया। रात उसने एक पेड़ के ऊपर बिताई।
आँख लगी, तो उसे स्वप्न में दो देव वार्तालाप करते दिखाई पड़े। एक कह रहा था, “हे पौरुष! तुमने सौमिलक को तीन सौ स्वर्ण मुद्राएं क्यों दी? तुम्हें तो ज्ञात है कि उसके पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं ठहर सकता।”
दूसरा बोला, “हे भाग्य! मुझे हर पुरुषार्थी को उसके कर्म का फ़ल प्रदान करना ही है। सौमिलक ने कर्म किया था। अतः मैंने उसे तीन सौ स्वर्ण मुद्राएं प्रदान की। अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम वो उसके पास रहने दो या छीन लो”।
इस स्वपन से सौमिलक की नींद टूट गई। उसने देखा कि उसकी स्वर्ण मुद्राएं नदारत है। इतने वर्षों तक किये गए परिश्रम से अर्जित धन एक क्षण में ही चले जाने से वह बहुत दु:खी हुआ।
अब क्या मुँह लेकर अपने नगर जाऊंगा। इतने वर्षों उपरांत भी मुझे खाली हाथ देख सब मेरा मखौल उड़ायेंगे, पत्नि भी दु:खी होगे। इसलिए मेरा वर्धमानपुर लौट जाना ही उचित है। यह सोचकर वह वर्धमानपुर लौट गया.।
वहाँ उसने पहले से भी अधिक परिश्रम किया और एक ही वर्ष में पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं मोहरें अर्जित कर ली। वे मुद्राएं लेकर वह अपने नगर की ओर रवाना हो गया। रास्ते में फिर रात घिर आई। किंतु, वह रुका नहीं, बल्कि चलता ही गया।
चलते-चलते ही उसे पुनः दो देव वार्तालाप करते हुए सुनाई पड़े।
पहला कह रहा था, “हे पौरुष! सौमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धनसंचय हो ही नहीं सकता । फिर तुमने उसे पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएं क्यों दी?”
दूसरा ने कहा, “हे भाग्य! कर्म का फ़ल मैं एक बार अवश्य देता हूँ । इसलिए मैंने दिया । अब तुम्हारे ऊपर है कि तुम वे मुद्राएं उसके पास रहने दो या ले लो” ।
यह वार्तालाप सुनकर जैसे ही सौमिलक ने अपनी मुद्राओं की गठरी देखी, तो पाया कि उससे पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएं नदारत है । वह बहुत दु:खी हुआ और सोचने लगा कि इतने परिश्रम से मैं धन अर्जित करता हूँ । किंतु, वह मेरे पास ठहरता ही नहीं । इस तरह निर्धन का जीवन जीकर मैं क्या करूंगा । यहीं किसी पेड़ से लटककर प्राण त्याग देता हूँ ।
फ़िर उसने रस्सी का फंदा बनाया और उसे एक पेड़ की टहनी से बांध दिया । वह लटकने ही वाला था कि एक आकाशवाणी हुई, “सौमिलक! ऐसा अनर्थ मत कर । तेरे भाग्य में भोजन–वस्त्र से अधिक धन नहीं है । इसलिए धन के पीछे मत भाग । अपने नगर लौट जा और परिवार के साथ सुख का जीवन व्यतीत कर । यदि तुझे कुछ चाहिए, तो मुझसे वरदान में मांग ले” ।
“मुझे वरदान में प्रचुर धन दे दो” सौमिलक बोला ।
“किंतु तेरे भाग्य में धन का सुख है ही नहीं । जो धन तू उपभोग न कर सके, वैसा धना लेकर क्या करेगा?”
“मुझे धन ही चाहिए, फ़िर चाहे मैं उसका उपभोग कर सकूं या ना कर सकूं । जिसके पास धन होता है, वह लोगों का आदर-सम्मान प्राप्त करता है । इसलिए मुझे अपार धन प्रदान कर दीजिये.” सौमिलक बोला ।
“ठीक है, यदि तुझे धन ही चाहिए । तो पुनः वर्धमानपुर लौट जा । वहाँ बनिए के दो पुत्र रहते हैं । एक का नाम गुप्तधन है और दूसरे का उपभुक्त धन
“ठीक है, यदि तुझे धन ही चाहिए । तो पुनः वर्धमानपुर लौट जा । वहाँ बनिए के दो पुत्र रहते हैं । एक का नाम गुप्तधन है और दूसरे का उपभुक्त धन । उनके पास जा और दोनों प्रकार के धनों का स्वरुप जानने के उपरांत मुझसे वरदान मांगना । यदि तुझे उपभोग के लिए धन चाहिए होगा, तो मैं तुम्हें उपभुक्त धन दूंगा. । यदि तुझे बिना उपभोग का धन चाहिए होगा, तो मैं तुम्हें गुप्तधन प्रदान करूंगा” ।
इसके बाद आकाशवाणी बंद हो गई । सौमिलक वर्धमानपुर लौट गया । वहाँ वह पहले गुप्तधन के घर पहुँचा । उस घर में किसी ने उसका स्वागत नहीं किया, बल्कि उसे भगाने का प्रयास किया । किंतु, सौमिलक जबरदस्ती वहाँ घुस गया । भोजन में गुप्तधन ने उसे सूखी रोटी दी । रोटी खाकर वह वहीं सो गया ।
स्वपन में उसे फ़िर दो देव वार्तालाप करते हुए सुनाई दिए । पहला कह रहा था, “हे पौरुष! तूने गुप्तधन को भोग से इतना अधिक धन क्यों दे दिया? आज उसने सोमिलक को रोटी दे दी । अब उसके व्यय धन की क्षतिपूर्ति कैसे होगी?”
पौरुष ने उत्तर दिया, “इसमें मेरा कोई दोष नहीं । पुरुष के हाथों धर्म–पालन करवाना मेरा कर्तव्य है, उसका फल देना तेरे अधीन है” ।
अगले दिन गुप्तधन पेंचिश से परेशान रहा । दिन भर वह कुछ खा नहीं पाया और इस तरह उसकी क्षतिपूर्ति हुई ।
सौमिलक अब उपभुक्त धन के घर गया । उस घर में उसका खूब स्वागत-सत्कार किया गया । भोजन में स्वादिष्ट पकवान परोसे गए । सोने के लिए मखमली शैय्या दी गई । सौमिलक प्रसन्न था ।
जब वह सोने गया, तो उसे पुनः दो देवों का वार्तालाप सुनाई पड़ा । पहला कह रहा था, “हे पौरुष! सौमिलक के स्वागत-सत्कार में उपभुक्त धन द्वारा अत्यधिक धन व्यय किया गया है । अब इसकी क्षतिपूति कैसे होगी?”
दूसरा बोला, “हे भाग्य! अतिथि सत्कार के लिए धन व्यय करवाना मेरा धर्म था, इसका फल देना तेरे अधीन है” ।
अगली सुबह राजदरबार का एक राजपुरुष उपभुक्त धन के घर आया और उसे राज-प्रसाद के रूप में धन और बहुमूल्य भेंट प्रदान की ।
सौमिलक सब देख रहा था । गुप्तधन और उपभुक्त धन के घर में अपने अनुभव को देखकर उसने विचार किया कि ऐसे धन का संचय करने का क्या लाभ, जिसका उपभोग ही न किया जा सके । धन वही श्रेष्ठ है, जो उपभोग में लाया जा सके । इसलिए संचय रहित उपभुक्त धन गुप्तधन से श्रेष्ठ है.
शिक्षा (Moral Of The Unlucky Weaver story)
संचित गुप्तधन व्यर्थ है, क्योंकि उसका होना न होना बराबर है. दान में प्रदाय किया गया धन या सत्कार्यों में व्यय किया गया धन संचित धन से श्रेष्ठ है.