आँखें जहाँ तक देख पाती है और दिमाग जहाँ तक सोच पाता है ये दुनिया ये सृष्टि उससे कहीं आगे तक है। नवजात बच्चे के लिए उसकी दुनिया की परिभाषा अलग होती है उसके देखने का सीमित दायरा रहता है, ऐसे ही जवानी से लेकर बुढ़ापे तक सबका अपना-अपना देखने, सोचने-समझने का सीमित दायरा रहता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता की उस सीमित दायरे में ही ये दुनिया ये सृष्टि है, इसका मतलब यह नहीं है की हमारा जीवन उसी सीमित दायरे में ही है।
कभी आपने सोचा है एक योगी अपनी इन्ही आँखों से ऐसा क्या देख लेता है और अपने मानव शरीर की चेतना से ऐसा क्या महसूस कर लेता है की वो सबकुछ छोड़ कर सिर्फ कर्म कमाने और भक्ति में लग जाता है। फिर वो सिर्फ इस जन्म के बारे में ही नहीं सोचता उसकी सोच भी ब्रह्माण्ड के साथ अनंत हो जाती है. कई बार सोचता हूँ गुरुकुल होते कर्म फल से लोगों का जो विश्वास उठ चूका है वो कम से कम भारत में इतनी जल्दी नहीं होता।
क्योकि गुरुकुल ही वो स्थान थे जहाँ पर ये विध्या सिखाई जाती थी की इस जन्म के आगे भी बहुत कुछ है इसका साक्षात अनुभव करवाया जाता था, ऐसे में लोगों का चरित्र निर्माण अपने आप स्वम् ही हो जाता था और जब किसी देश में सभी लोगो का चरित्र का निर्माण हुआ हो तो वो देश विश्व गुरु ही बनता है, ये अतीत था हमारा।
अब हमारे पास शिक्षालय है, लेकिन विध्या सिखाने वाले विद्यालय नही है………