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सिंहासन बत्तीसी की 30वीं कहानी – जयलक्ष्मी पुतली की कथा!!

अलग-अलग पुतलियों की उलाहना सुन-सुनकर थक चुका राजा भोज हिम्मत करके 30वीं बार भी सिंहासन पर बैठने जाता है, लेकिन इस बार उसे 30वीं पुतली जयलक्ष्मी रोकती है और कहती है कि अगर तुम राजा विक्रमादित्य की तरह तपस्वी हो, तो ही इस सिंहासन पर बैठो। यह कहते हुए 30वीं पुतली जयलक्ष्मी उसे राजा विक्रमादित्य के तपस्वी होने से जुड़ी कहानी सुनाती है। आइए, जानते हैं कि इस कहानी में जयलक्ष्मी ने क्या बताया –

राजा विक्रमादित्य बड़े तपस्वी भी थे। उन्होंने अहसास हो गया था कि अब वह ज्यादा से ज्यादा 6 माह तक ही जी सकते हैं। इसके बाद उन्होंने वन में एक कुटिया बनाई और राज-काज से जो समय बच जाता था, उसमें साधना करने लगे। एक दिन राजमहल से कुटिया की तरफ आते वक्त उनकी नजर एक हिरण पर पड़ी। ऐसा अद्भुत हिरण उन्होंने कभी नहीं देखा था। उन्होंने शिकार के लिए जैसे ही धनुष उठाया तभी हिरण उनके पास आया और मनुष्यों की तरह बोलकर अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। हिरण को मनुष्य की तरह बोलते हुए देख राजा को बहुत आश्चर्य हुआ और उनका हाथ रुक गया।

राजा ने उस हिरण से पूछा कि वह मनुष्यों की भाषा कैसे बोल लेता है। इस पर हिरण ने कहा कि यह सब आपके दर्शन करने और आपकी तपस्या की शक्ति के चलते हुआ है। इसके बाद राजा की जिज्ञासा और बढ़ गई। उन्होंने उस हिरण से पूछा कि इसकी वजह क्या है, तो उसने बताना शुरू किया।

हिरण ने कहा, “मैं जन्म से हिरण नहीं हूं। मेरा जन्म एक राजा के घर हुआ था। अन्य राजकुमारों की तरह मुझे भी शिकार खेलने का शौक था। एक दिन मुझे जंगल में कुछ दूरी पर हिरण होने का अहसास हुआ और मैंने आवाज को लक्ष्य करते हुए बाण चला दिया, लेकिन यह आवाज एक योगी की थी जो बहुत धीमी आवाज में मंत्र उच्चारण कर रहे थे। वह तीर उन्हें तो नहीं लगा, लेकिन उनके कान को छूते हुए एक पेड़ में घुस गया। मैं अपने शिकार की खोज में जब वहां पहुंचा, तो पता चला कि मुझसे बड़ा पाप होते-होते रह गया। साधना में विघ्न पड़ने से वह योगी बहुत नाराज थे और मुझे सामने देखकर वह समझ गए कि यह बाण मैंने ही चलाया था। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उन्होंने मुझे श्राप दे दिया। उन्होंने कहा, “हिरण का शिकार करने वाले मूर्ख, आज से तू खुद हिरण बन जाएगा और शिकारियों से अपनी जान बचाने के लिए यहां से वहां भटकता रहेगा।” इसके बाद मैं उस योगी के पैरों में गिर पड़ा और श्राप से छुटकारा पाने की प्रार्थना करने लगा। मेरी आंखों में पश्चाताप के आंसू देखकर योगी को दया आ गई और उन्होंने मुझसे कहा कि श्राप तो वापस नहीं हो सकता, लेकिन इसका प्रभाव काम हो सकता है। तुम तब तक हिरण बनकर भटकते रहोगे, जब तक महान और तेजस्वी राजा विक्रमादित्य के दर्शन नहीं हो जाते। उनके दर्शन होते ही तुम मनुष्यों की तरह बोलने लगोगे।”

राजा विक्रम ने जिज्ञासा से उस हिरण से पूछा, “तुम अब मनुष्य की तरह बोल तो रहे हो, लेकिन तुम्हें हिरण रूप से मुक्ति कब मिलेगी और कब तुम मनुष्य रूप में आओगे?” हिरण ने जवाब दिया, “इस रूप से भी मुझे जल्द ही मुक्ति मिल जाएगी। योगी ने कहा था कि अगर मैं आपको अपने साथ लेकर उस योगी के पास जाऊं, तो मैं अपने वास्तविक रूप में आ जाऊंगा।”

यह कहकर हिरण आगे-आगे चलने लगा और राजा विक्रम उसके पीछे चलने लगे। थोड़ी दूर चलने के बाद उन्हें एक योगी पेड़ पर उल्टा लटकर साधना करता नजर आया। राजा समझ गए कि हिरण रूपी राजकुमार इसी योगी की बात कर रहा है। वे जब उसके पास आए, तो योगी पेड़ से उतरकर सीधा खड़ा हो गया। उसने राजा का अभिवादन किया। राजा विक्रमादित्य समझ गए कि यह योगी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा था। जिज्ञासावश राजा ने उससे पूछा, “आप मेरी प्रतिक्षा क्यों कर रहे थे?” इस पर उस योगी ने कहा, “सपने में एक दिन मुझे इंद्र देव ने दर्शन देकर कहा था कि राजा विक्रमादित्य ने अपने कर्मों से देवताओं-सा स्थान पा लिया है और उनके दर्शन करने वालों को इंद्र देव और अन्य देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है। इसलिए, मैं इतनी कठिन साधना आपके दर्शन के लिए कर रहा था।”

राजा विक्रमादित्य ने उस योगी से कहा, “अब तो आपने मेरे दर्शन कर लिए हैं, क्या मुझसे कुछ और चाहते हैं।” इस पर योगी ने उनसे उनके गले में पड़ी इंद्रदेव की ओर से मिली मूंगे वाली माला मांगी। राजा ने खुशी-खुशी वह माला उस योगी को दे दी। योगी ने जैसे ही उनका आभार प्रकट किया वैसे ही श्रापित राजकुमार फिर से मानव शरीर में आ गया। उसने पहले राजा विक्रम के और फिर योगी के पांव छूए।

इसके बाद राजा उस राजकुमार को लेकर अपने महल आ गए। अगले दिन वह उसे अपने रथ पर लेकर उसके राज्य के लिए निकले। दोनों जैसे ही राज्य में घुसे, तभी सैनिकों ने उनके रथ को चारों तरफ से घेर लिया व राज्य में प्रवेश करने की वजह पूछने लगे। राजकुमार ने अपना परिचय दिया और सैनिकों से रास्ता छोड़ने के लिए कहा, लेकिन सैनिकों ने बताया कि उसके माता-पिता को बंदी बनाकर जेल में डाल दिया गया है। अब यहां का राजा कोई और है। इस पर राजा विक्रमादित्य ने सैनिकों को अपना परिचय दिए बिना खुद को राजकुमार का दूत बताया और कहा कि नए राजा को यह संदेश देना कि उसके सामने दो विकल्प हैं या तो वह असली राजा-रानी को उनका राज्य वापस लौटा दे या फिर युद्ध की तैयारी करे।

उस सेनानायक को यह सुनकर बड़ा अजीब लगा। उसने राजा विक्रमादित्य का मजाक उड़ाते हुए कहा,  “युद्ध कौन करेगा? क्या तुम दोनों युद्ध करोगे?” यह उपहास देखकर राजा विक्रमादित्य का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया, उन्होंने तलवार निकाली और उस सेनानायक का सिर धड़ से अलग कर दिया। सेना में भगदड़ मच गई। किसी ने दौड़कर नए राजा को यह खबर दी। यह सुनते ही राजा सेना लेकर वहां पहुंचा। राजा विक्रमादित्य इस हमले के लिए पहले से तैयार थे। उन्होंने तुरंत दोनों बेतालों को बेतालों को बुलाया। दोनों बेतालों ने राजा विक्रमादित्य का आदेश मिलते ही रथ को हवा में उठा दिया।

इसके बाद उन्होंने गायब होने वाला तिलक लगाया और रथ से कूद गए। अदृश्य होकर उन्होंने दुश्मनों को गाजर-मूली की तरह काटना शुरू कर दिया। सैकड़ों सैनिकों के मारे जाने व दुश्मनों के नजर न आने से सैनिकों में भगदड़ मच गई। ज्यादातर सैनिक नए राजा को छोड़कर भाग गए। इसके बाद नए राजा का चेहरा देखने लायक था। वह हैरान, डरा हुआ और हताश था। यह देखकर राजा विक्रमादित्य अपने असली रूप में सामने आ गए। उन्होंने नए राजा को अपना परिचय देते हुए कहा, “या तो तुम इसी क्षण यह राज्य छोड़कर चले जाओ या प्राण दंड के लिए तैयार रहो।” वह राजा विक्रमादित्य की शक्ति से परिचित था, इसलिए वो उसी पल राज्य को छोड़कर भाग गया।

इसके बाद राजा विक्रमादित्य उस राज्य के असली राजा-रानी को उनका राज्य वापस दिलाकर अपने राज्य की ओर चल दिए। रास्ते में एक जंगल पड़ा। वहां एक हिरण राजा विक्रमादित्य के पास आया और एक शेर से बचाने की गुहार करने लगा, लेकिन राजा विक्रमादित्य ने उसकी मदद नहीं की, क्योंकि वह भगवान के बनाए नियम के खिलाफ नहीं जा सकते थे। दरअसल, शेर भूखा था और हिरण जैसे जानवर ही उसकी भूख शांत कर सकते थे। यह सोचते हुए उन्होंने शेर को हिरण का शिकार करने दिया।

कहानी समाप्त होते ही 30वीं पुतली जयलक्ष्मी ने राजा भोज को कहा कि अगर आप भी राजा विक्रमादित्य की तरह पराक्रमी हैं और आपके अंदर भी तपस्वी भाव है, तो ही सिंहासन पर बैठना वरना नहीं। इतना कहते ही 30वीं पुतली वहां से उड़ जाती है।

कहानी से सीख : इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें दूसरों की मदद करनी चाहिए और कभी हमसे अनजाने में गलती हो जाए, तो उसका पश्चाताप जरूर करना चाहिए।

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