एक राज्य में अतुलबल पराक्रमी राजा नन्द राज्य करता था । उसकी वीरता चारों दिशाओं में प्रसिद्ध थी । आसपास के सब राजा उसकी वन्दना करते थे । उसका राज्य समुद्र-तट तक फैला हुआ था । उसका मन्त्री वररुचि भी बड़ा विद्वान् और सब शास्त्रों में पारंगत था । उसकी पत्नी का स्वभाव बड़ा तीखा था । एक दिन वह प्रणय-कलह में ही ऐसी रुठ गई कि अनेक प्रकार से मनाने पर भी न मानी । तब, वररुचि ने उससे पूछा़ —-“प्रिये ! तेरी प्रसन्नता के लिये मैं सब कुछ़ करने को तैयार हूँ । जो तू आदेश करेगी, वही करुँगा ।” पत्नी ने कहा —-“अच्छी़ बात है । मेरा आदेश है कि तू अपना सिर मुंडाकर मेरे पैरों पर गिरकर मुझे मना, तब मैं मानूंगी ।” वररुचि ने वैसा ही किया । तब वह प्रसन्न हो गई ।
उसी दिन राजा नन्द की स्त्री भी रुठ गई । नन्द ने भी कहा—-“प्रिये ! तेरी अप्रसन्नता मेरी मृत्यु है । तेरी प्रसन्नता के लिये मैं सब कुछ़ करने के लिये तैयार हूँ । तू आदेश कर, मैं उसका पालन करुंगा ।” नन्दपत्नी बोली—-“मैं चाहती हूँ कि तेरे मुख में लगाम डालकर तुझपर सवार हो जाऊँ, और तू घोड़े की तरह हिनहिनाता हुआ दौडे़ । अपनी इस इच्छा़ के पूरी होने पर ही मैं प्रसन्न होऊँगी ।” राजा ने भी उसकी इच्छा़ पूरी करदी ।
दूसरे दिन सुबह राज-दरबार में जब वररुचि आया तो राजा ने पूछा—-“मन्त्री ! किस पुण्यकाल में तूने अपना सिर मुंडाया है ?”
वररुचि ने उत्तर दिया—-“राजन् ! मैंने उस पुण्य काल में सिर मुँडाया है, जिस काल में पुरुष मुख में लगाम डालकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं ।”
राजा यह सुनकर बड़ा लज्जित हुआ ।