आध्यात्मिक विभूति श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार से मिलने कलकत्ता के एक धनाढ्य परिचित पहुँचे। उन्होंने कहा, ‘जब मैं किसी तीर्थ में जाता हूँ, तो दान अवश्य करता हूँ।’ उन्होंने एक अखबार भी दिखाया, जिसमें किसी को कपड़े दान करते हुए उनका चित्र छपा था।
पोद्दारजी ने कहा, ‘तुमने तो अपने दान को एक ही दिन में निष्फल बना डाला, जबकि दान का पुण्य तो लंबे समय तक मिलता है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि जो प्रशंसा या किसी बदले की इच्छा से दान करता है, वह उसका पुण्य फल कदापि नहीं प्राप्त कर सकता।’
उन्होंने कुछ क्षण रुककर कहा, ‘पद्मपुराण में कहा गया है कि मानव को धन-संपत्ति भगवान् की कृपा से प्राप्त होती है, इसलिए इसका उपयोग अपने परिवार के पालन-पोषण में सतर्कता से करना चाहिए।
उसका अत्यधिक भाग यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों और अभावग्रस्त लोगों की सेवा – सहायता में लगाना चाहिए। यह मानकर दान करना चाहिए कि भगवान् की चीज भगवान् को ही अर्पित की जा रही है।
यदि कोई अहंकार में अपने को बड़ा धर्मात्मा प्रकट करने के लिए दान करता है, तो वह पुण्य की जगह पाप का भागी बनता है। ‘ पोद्दारजी कहते हैं, ‘जो व्यक्ति निष्काम सेवा सहायता करता है, प्रभु उसी पर कृपा-दृष्टि रखते हैं।
जो आदमी लालसा में सेवा का प्रदर्शन करता है, उसे ढोंग मानना चाहिए। इसलिए कहा गया है कि एक हाथ से किसी को दान देते वक्त दूसरे हाथ को भी इसका पता नहीं चलना चाहिए । गुप्तदान को शास्त्र में सर्वश्रेष्ठ दान माना गया है।’