कैकेय देश के राजा सहस्रचित्य परम प्रतापी , दयालु तथा धर्मपरायण थे।वो पशु- पक्षियों में भी भगवान के दर्शन करते थे।वह सुबह का समय भगवान के भजन और शास्त्रों के अध्ययन में बिताते थे।दोपहर से शाम तक राज- काज देखते थे। और शाम होते ही वेश बदलकर प्रजा की सेवा के लिए निकल जाते थे।
वो प्रतिदिन अपने हाथों से बीमारों और वृद्धों की सेवा करते थे।उसके बाद गोशाला पहुंचकर गाय – बैलों को हरा चारा खिलाते और बीमार पशुओं की खुद सेवा करते थे।सेवा के कारण उनके पुण्यों में वद्धि होती गई।हालाँकि राजभवन में यह बात किसी को पता नहीं थी।क्योंकि वो ये कार्य बिना किसी को बताये करते थे।
एक दिन अनजाने में उनसे एक पाप हो गया।जिससे राजा सहस्रचित्य का मन विचलित हो गया उठा। उन्होंने अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपा और जंगल में चले गए।और अनजाने में हुए पाप के प्रायश्चित के लिए उन्होंने कठोर तपस्या शुरू कर दी ।
लेकिन अचानक एक दिन देवदूत ने प्रकट होकर उनसे कहा “राजन तुमने जीवन भर अपनी प्रजा , मरीजों , वृद्ध जनों और गायों की सेवा की है।और जो राजा अपनी प्रजा के कल्याण को भगवान की पूजा मानता हैं।उसके पुण्य उसे स्वर्गलोक का अधिकारी बना देते हैं।
इसीलिए तुमसे अनजाने में हुये पाप का फल उसी समय नष्ट हो गया था।जब तुमने उसका प्रायश्चित कर लिया”। इस तरह राजा सहस्रचित्य जीवन- मरण के बंधन से मुक्त हो स्वर्गलोक चले गए।
Moral Of The Story (सेवा परमो धर्म:)
प्राणी मात्र की सेवा ही हर इन्सान का प्रथम व सर्वोच्च धर्म हैं।