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दया धर्म का मूल !!

महाराज युधिष्ठिर समय-समय पर ऋषियों के आश्रम में पहुँचकर उनसे सत्संग किया करते थे। एक बार वे महर्षि मार्कण्डेयजी के दर्शन के लिए पहुंचे। उन्होंने महामुनि से प्रश्न किया, ‘सर्वोत्तम धर्म और सर्वोत्तम ज्ञान क्या है?’

महर्षि ने बताया, ‘आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम्। आत्मज्ञानं परं ज्ञानं सत्यं व्रत परं व्रतम्।’ यानी क्रूरता का अभाव अर्थात् दया सबसे महान् धर्म है। क्षमा सबसे बड़ा बल है।

सत्य सबसे उत्तम व्रत है और परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है। जो व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं में सुख न खोजकर परमात्मा को ही सुख का स्रोत मानकर सत्कर्मों व भक्ति में लगा रहता है,

वह न कभी दुःखी होता है और न ही निराश। अतः हृदय में दया व करुणा की भावना रखने वाला ही सबसे बड़ा धर्मात्मा और ज्ञानी है। मुनि मार्कण्डेय युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं, ‘राजन् तुम सभी प्राणियों को भगवान् का स्वरूप मानकर उन पर दया करो।

जितेंद्रिय और प्रजा पालन में तत्पर रहकर धर्म का आचरण करो। यदि प्रमादवश तुमसे किसी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार हो गया, तो उसे अपने विनम्र व्यवहार से संतुष्ट कर दो।’

अहंकार को पतन का कारण बताते हुए मुनि कहते हैं, ‘मैं सबका स्वामी हूँ-ऐसा अहंकार कभी पास न आने देना। अपने को स्वामी नहीं सेवक समझने से ही राजा का कल्याण होता है। जो व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त होकर सबके कल्याण की कामना करता है, उसके कल्याण के लिए स्वयं प्रभु भी तत्पर रहते हैं।

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