एक सेठ अत्यंत धर्मात्मा थे। वे अपनी आय का बहुत बड़ा हिस्सा सेवा परोपकार जैसे धार्मिक कार्यों में खर्च किया करते थे कई पीढ़ियों से उनके परिवार पर लक्ष्मी की असीम कृपा बनी रहती थी।
एक बार देवी लक्ष्मी के मन में आया कि एक जगह रहते-रहते कई सौ वर्ष हो गए, ऐसे में, क्यों न इस परिवार को त्यागकर कहीं अन्यत्र जाया जाए।
एक दिन लक्ष्मी ने सेठ से स्वप्न में कहा, ‘मैं तुम्हारे यहाँ पीढ़ियों से रहते रहते अब ऊब-सी गई हूँ। किसी के यहाँ ज्यादा दिनों तक रहना भी अच्छा नहीं माना गया है।
अतः मैं अब तुम्हारे घर से प्रस्थान करना चाहती हूँ। चूँकि तुम सबने अपने प्रेमपाश में मुझे बाँधे रखा है, इसलिए जाते-जाते मैं तुम्हें कोई एक वरदान देना चाहती हूँ। तुम अच्छी तरह सोच-समझकर अपनी इच्छानुसार मुझसे कोई एक वरदान माँग लो।’
सेठ ने अपने परिवार के सदस्यों को बुलाकर इस पर विचार-विमर्श शुरू किया। किसी ने सेठ से कहा, देवी लक्ष्मी से असीमित धन माँग लो, तो किसी ने उनसे बहुमूल्य हीरे-जवाहरात माँगने की इच्छा रखी ।
सेठ की वृद्धा माँ परम धर्मात्मा और संतोषी थी। उन्होंने सेठ से कहा, ‘बेटा, माँ लक्ष्मी से यह वरदान माँगो कि हमारे परिवार में सभी की सद्बुद्धि और सद्भावना हमेशा बनी रहे।
सेठ ने यही वरदान माँ लक्ष्मी से माँग लिया। लक्ष्मी ने यह सुना, तो बोलीं, ‘तुम बड़े चतुर आदमी हो। सच-सच बताओ, तुम्हें यह वरदान माँगने की सलाह भला किसने दी?’
सेठ द्वारा माँ का नाम लेने पर लक्ष्मी फिर बोलीं, ‘एक ही वरदान में उन्होंने सबकुछ माँग लिया। जहाँ सद्बुद्धि होगी और प्रेम होगा, वहाँ शील, सत्य और विश्वास को भी स्वतः रहना होगा।
तुम्हारी अनुभवी और सच्ची धर्मात्मा माँ ने तो एक ही वरदान में स्वर्ग माँग लिया है। अब मैं ऐसी दिव्य धर्मात्मा वृद्धा को छोड़कर भला कहाँ जाऊँगी?