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श्रद्धा और सत्कर्म !!

सभी धर्मशास्त्रों में श्रद्धा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। कहा गया है कि श्रद्धा-निष्ठा के साथ किया गया प्रत्येक सत्कर्म फलदायक होता है। इसलिए कहा गया है, ‘श्रद्धां देवा यजमाना वायुगोपा उपासते।

श्रद्धां हृदस्य याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु।’ अर्थात् देवता, संतजन, विद्वान्, यजमान, दानशील, बलिदानी सब श्रद्धा से कर्म की उपासना करते हैं, इसलिए सुरक्षित रहते हैं।

श्रद्धा को सुमतिदायिनी, कामायनी, कात्यायनी बताकर उसकी उपासना की गई है। वैदिक ऋचा में कहा गया है, ‘हे परमप्रिय श्रद्धे, तेरी कृपा से मैं ऐसा व्यवहार करूँ, जिससे संसार का उपकार हो सके।

हे सुमतिदायिनी श्रद्धे, मैं जो कुछ आहुति, दान व बलिदान करूँ, उसे उपयोगी और सर्वहितकारी बना। हे कात्यायनी श्रद्धे, मेरी अनासक्त कामना है कि मेरे कृत्यों से दान और बलिदान की प्रेरणा उदित होती रहे।

हे कात्यायनी श्रद्धे, मुझे अपार सौंदर्य दे, जिससे मुझसे सब प्रेम करें और मैं अपने आपको परमेश्वर में उत्सर्ग कर देँ।’

हृदय से जब श्रद्धा की उपासना होती है, तब अनंत ऐश्वर्य अनायास ही प्राप्त होने लगते हैं। मन में श्रद्धा होने से सद्भावना, सत्य, अहिंसा, त्याग, अनुराग आदि स्वेच्छा से वरण करते हैं।

ऋग्वेद में कहा गया है, ‘श्रद्धया अग्निः समिध्यते।’ यानी श्रद्धा से ऐसी अग्नि प्रदीप्त होती है, जो मनुष्य को प्रेम, रस, आनंद और अमृत प्रदानकर उसका लोक-परलोक सफल बनाती है।

श्रद्धा ही वृद्धजनों, माता-पिता, गुरु के प्रति कर्तव्यपालन करने, मातृभूमि के लिए प्राणोत्सर्ग करने, समाज व धर्म की सेवा में संलग्न होने की प्रेरणा का स्रोत है।

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