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श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं – 
पार्वती ! दक्षिण दिशामें कोल्हापुर नामका एक नगर है , जो सब प्रकारके सुखोंका आधार , सिद्ध – महात्माओंका निवासस्थान तथा सिद्धि – प्राप्तिका क्षेत्र है । वह पराशक्ति भगवती लक्ष्मीका प्रधान पीठ है । सम्पूर्ण देवता उसका सेवन करते हैं । वह पुराणप्रसिद्ध तीर्थ भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है । वहाँ करोड़ों तीर्थ और शिवलिङ्ग हैं । रुद्रगया भी वहीं है । वह विशाल नगर लोगोंमें बहुत विख्यात है । एक दिन कोई युवक पुरुष उस नगरमें आया । [ वह कहींका राजकुमार था ] उसके शरीरका रंग गोरा , नेत्र सुन्दर , ग्रीवा शङ्खके समान , कंधे मोटे , छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी – बड़ी थीं । नगरमें प्रवेश करके सब ओर महलोंकी शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मीके दर्शनार्थ उत्कण्ठित हो मणिकण्ठ तीर्थमें गया और वहाँ करके उसने पितरोंका तर्पण किया । फिर महामाया महालक्ष्मीजीको प्रणाम करके भक्तिपूर्वक स्तवन करना आरम्भ किया ।

राजकुमार बोला – 
जिसके हृदयमें असीम दया भरी हुई है , जो समस्त कामनाओंको देती तथा अपने कटाक्षमात्रसे सारे जगत्की सृष्टि , पालन और संहार करती है , उस जगन्माता महालक्ष्मीकी जय हो । जिस शक्तिके सहारे उसीके आदेशके अनुसार परमेष्ठी ब्रह्मा सृष्टि करते हैं , भगवान् अच्युत जगत्का पालन करते हैं तथा भगवान् रुद्र अखिल विश्वका संहार करते हैं , उस सृष्टि , पालन और संहारकी शक्तिसे सम्पन्न भगवती पराशक्तिका मैं भजन करता हूँ ।

कमले ! योगिजन तुम्हारे चरणकमलोंका चिन्तन करते हैं । कमलालये ! तुम अपनी स्वाभाविक सत्तासे ही हमारे समस्त इन्द्रियगोचर विषयोंको जानती हो । तुम्ही कल्पनाओंके समूहको तथा उसका संकल्प करनेवाले मनको उत्पन्न करती हो ।

इच्छाशक्ति , ज्ञानशक्ति और  . क्रियाशक्ति – ये सब तुम्हारे ही रूप हैं । तुम परासंवित् ( परमज्ञान ) रूपिणी हो । तुम्हारा स्वरूप निष्कल , निर्मल , नित्य , निराकार , निरञ्जन , अन्तरहित , आतङ्कशून्य , आलम्बहीन तथा निरामय है । देवि ! तुम्हारी महिमाका वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है । जो षट्चक्रोंका भेदन करके अन्तःकरणके बारह स्थानोंमें विहार करती है , अनाहत , ध्वनि , विन्दु , नाद और कला – ये जिसके स्वरूप हैं , उस माता महालक्ष्मीको मैं प्रणाम करता हूँ । माता ! तुम अपने [ मुखरूपी ] पूर्णचन्द्रमासे प्रकट होनेवाली अमृतराशिको बहाया करती हो । तुम्हीं परा , पश्यन्ती , मध्यमा और वैखरी नामक वाणी हो । मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ । देवि ! तुम जगत्की रक्षाके लिये अनेक रूप धारण किया करती हो । अम्बिके ! तुम्ही ब्राह्मी , वैष्णवी तथा माहेश्वरी शक्ति हो । वाराही , महालक्ष्मी , नारसिंही , ऐन्द्री , कौमारी , चण्डिका , जगत्को पवित्र करनेवाली लक्ष्मी , जगन्माता सावित्री , चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं पूर्ण करनेके लिये कल्पलताके समान हो । मुझपर प्रसन्न हो जाओ ।

उसके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षात स्वरूप धारण करके बोलीं – ‘ राजकुमार ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ । तुम कोई उत्तम वर माँगो ।

राजपुत्र बोला – 
माँ ! मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे । वे दैवयोगसे रोगग्रस्त होकर स्वर्गगामी हो गये । इसी बीचमें यूपमें बँधे हुए मेरे यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको , जो समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करके लौटा था , किसीने रात्रिमें बन्धन काटकर कहीं अन्यत्र पहुंचा दिया । उसकी खोजमें मैंने कुछ लोगोंको भेजा था ; किंतु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं , तब मैं सब ऋत्विजोंसे आज्ञा लेकर तुम्हारी शरणमें आया हूँ । देवि ! यदि तुम मुझपर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञका घोड़ा मुझे मिल जाय , जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके । तभी मैं अपने पिता महाराजका ऋण उतार सकूँगा । शरणागतोंपर दया करनेवाली जगज्जननी लक्ष्मी ! जिससे मेरा यज्ञ पूर्ण हो , वह उपाय करो ।

भगवती लक्ष्मीने कहा – 
राजकुमार ! मेरे मन्दिरके दरवाजेपर एक ब्राह्मण रहते हैं , जो लोगोंमें सिद्धसमाधिके नामसे विख्यात हैं । वे मेरी आज्ञासे तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे ।

महालक्ष्मीके इस प्रकार कहनेपर राजकुमार उस स्थानपर आये , जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे । उनके चरणोंमें प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ खड़े हो गये । तब ब्राह्मणने कहा – ‘ तुम्हें माताजीने यहाँ भेजा है । अच्छा , देखो ; अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ । ‘ यों कहकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणने सब देवताओंको वहीं खींचा । राजकुमारने देखा , उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर – थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये । तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने समस्त देवताओंसे कहा ‘ देवगण ! इस राजकुमारका अश्व , जो यज्ञके लिये निश्चित हो चुका था , रातमें देवराज इन्द्रने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया है ; उसे शीघ्र ले आओ ।

तब देवताओंने मुनिके कहनेसे यज्ञका घोड़ा लाकर दे दिया । इसके बाद उन्होंने उन्हें जानेकी आज्ञा दी । देवताओंका आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्वको पाकर राजकुमारने मुनिके चरणोंमें प्रणाम करके कहा – ‘ महर्षे ! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है । आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं , दूसरा कोई नहीं । ब्रह्मन् ! मेरी प्रार्थना सुनिये , मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोगसे मृत्युको प्राप्त हो गये हैं । अभीतक उनका शरीर तपाये हुए तेलमें सुखाकर मैंने रख छोड़ा है । साधुश्रेष्ठ ! आप उन्हें पुनः जीवित कर दीजिये ।

यह सुनकर महामुनि ब्राह्मणने किंचित् मुसकराकर कहा – ‘ चलो , जहाँ यज्ञमण्डपमें तुम्हारे पिता मौजूद हैं , चलें ‘ । तब सिद्धसमाधिने राजकुमारके साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे उस शवके मस्तकपर रखा । उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे । फिर उन्होंने ब्राह्मणको देखकर पूछा – ‘ धर्मस्वरूप ! आप कौन हैं ? तब राजकुमारने महाराजसे पहलेका सारा हाल कह सुनाया । राजाने अपनेको पुनः जीवनदान देनेवाले ब्राह्मणको नमस्कार करके पूछा – ‘ ब्रह्मन् ! किस पुण्यसे आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है ? ‘ उनके यों कहनेपर ब्राह्मणने मधुर वाणीमें कहा – राजन् ! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीताके बारहवें अध्यायका जप करता उसीसे मुझे यह शक्ति मिली है , जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है ।

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