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तोसिको बोस TOSIKO BOSS

तोसिको बोस का नाम भारतीय क्रान्तिकारी इतिहास में अल्पज्ञात है। अपनी जन्मभूमि जापान में वे केवल 28 वर्ष तक ही जीवित रहीं. फिर भी सावित्री तुल्य नारी का भारतीय स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाने में अनुपम योगदान रहा।

रासबिहारी बोस महान क्रान्तिकारी थे। 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में तत्कालीन वायसराय के जुलूस पर बम फैंक कर उसे यमलोक पहुंचाने का प्रयास तो हुआ, पर वह पूर्णतः सफल नहीं हो पाया. उस योजना में रासबिहारी बोस की बड़ी भूमिका थी।

अतः अंग्रेज शासन ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिये दूर-दूर तक जाल बिछा दिया। उन्हें पकड़वाने वाले के लिये एक लाख रुपये का पुरस्कार भी घोषित किया गया। यदि वे पकड़े जाते, तो मृत्युदण्ड मिलना निश्चित था। अतः सब साथियों के परामर्श से वे 1915 के मई मास में नाम और वेश बदलकर जापान चले गये।

उन दिनों जापान और ब्रिटेन में एक सन्धि थी, जिसके अन्तर्गत भारत का कोई अपराधी यदि जापान में छिपा हो, तो उसे लाकर भारत में मुकदमा चलाया जा सकता है, पर यदि वह जापान का नागरिक है, तो उसे नहीं लाया जा सकता था‌।

एक अन्य कानून के अनुसार पति-पत्नी में से कोई एक यदि जापानी है, तो दूसरे को स्वतः नागरिकता मिल जाती थी। इसलिए रासबिहारी के मित्रों ने विचार किया कि यदि उनका विवाह किसी जापानी कन्या से करा दिया जाये, तो प्रत्यार्पण का यह संकट टल जाएगा।

रासबिहारी बोस के एक जापानी मित्र आइजो सोमा और उनकी पत्नी कोक्को सोमा ने उन्हें अपने होटल से लगे घर में छिपाकर रखा। इस दौरान उनका परिचय सोमा दम्पति की 20 वर्षीय बेटी तोसिको से हुआ। उसे जब भारतीयों पर ब्रिटिश शासन द्वारा किये जा रहे अत्याचारों का पता लगा, तो उसका हृदय आन्दोलित हो उठा।

रासबिहारी ने उसे क्रान्तिकारियों द्वारा जान पर खेलकर किये जा रहे कार्यों की जानकारी दी। इससे उसके मन में आजादी के इन दीवानों के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। अन्ततः उसने स्वयं ही रासबिहारी बोस से विवाह कर उनकी मानव कवच बनने का निर्णय ले लिया। इतना ही नहीं,उसने अज्ञातवास में भी रासबिहारी का साथ देने का वचन दिया।

तोसिको के माता-पिता के लिये यह निर्णय स्तब्धकारी था, फिर भी उन्होंने बेटी की इच्छा का सम्मान किया। नौ जुलाई, 1918 को रासबिहारी बोस एवं तोसिको का विवाह गुपचुप रूप से सम्पन्न हो गया. इससे रासबिहारी को जापान की नागरिकता मिल गयी। अब वे खुलकर काम कर सकते थे।

उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर दक्षिण पूर्व एशिया में रह रहे भारतीयों को संगठित किया और वहां से साधन जुटाकर भारत में क्रान्तिकारियों के पास भेजे। उन्होंने आसन्न द्वितीय विश्व युद्ध के वातावरण का लाभ उठाकर आजाद हिन्द फौज के गठन में बड़ी भूमिका निभायी।

दो जुलाई, 1923 को रासबिहारी को जापान में रहते हुए सात वर्ष पूरे हो गये‌। इससे उन्हें स्वतन्त्र रूप से वहां की नागरिकता मिल गयी, पर इस गुप्त और अज्ञातवास के कष्टपूर्ण जीवन ने तोसिको को तपेदिक (टी.बी) का रोगी बना दिया. उन दिनों यह असाध्य रोग था. तोसिको मुक्त वातावरण में दो साल भी पति के साथ ठीक से नहीं बिता सकी. चार मार्च, 1925 को मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में वे इस संसार से विदा हो गयीं। कोटि कोटि नमन्।

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