सज्जन का हर रोज का एक काम था कि प्रतिदिन तीन ग़रीब लोगों को भोजन कराने के पश्चात् ही स्वयं भोजन करते थे। एक दिन बहुत खोजने पर भी कोई ग़रीब न मिला। दोपहर हो गई। त्योहार निकट थी। दुकानों पर नाना प्रकार की मिठाइयाँ और चीनी के खिलौने सजे थे। एक हलवाई ने चीनी से आदमी की आकृति बना रखे थे।
इन्होंने देखा तो सोचा, दूसरे ग़रीब तो मिले नहीं, चीनी से बने इन गरीबों को ही ले चलो। इन्हीं को भोग लगाकर खाना खा लेंगे।
तीन चीनी के मिटाई नुमा आदमी खरीदकर वे घर आए तो देखा कि वहाँ तीन असली निर्धन लोग खड़े हैं। उसने उनका स्वागत करते हुए कहा- भाइयों ! मैं तो सुबह से आपको ही खोज रहा था। आएँ भोजन करें। उसने तीनों गरीबों को बैठाया और पत्नी से बोले- तुम जल्दी से भोजन बनाओ, मैं बाजार से दही ले आता हूँ। वह बाजार चले गए, पत्नी खाना बनाने लगी।
इतने में ही उनका पुत्र भीतर आया। उसने थैले में पड़े वे चीनी से बने मिटाई नुमा आदमी देखे तो बोला- माँ! एक आदमी तो मैं खाऊँगा। साथ वाले कमरे में बैठे आदमियों ने यह बात सुनी तो घबराए। इतने में उस माँ की आवाज आई- इतना उतावला क्यों होता है? अभी तेरे पिताजी आएँगे। यहाँ आदमी तीन हैं। एक तुम खाना, एक तेरे पिताजी खाएँगे, एक मैं खाऊँगी।
उन तीनों आदमियों ने जब यह बात सुनी तो उनके होश उड़ गये कि आख़िर हम लोग कहाँ आकर फंस गए? ये लोग तो आदमियों तक को खाते हैं, मनुष्य नहीं राक्षस मालूम पड़ते हैं।
उसके बाद एक आदमी लघुशंका के बहाने घर से बाहर हो गया। दूसरे ने भी ऐसा ही किया, तीसरे ने भी। तीनों ने अपने अपने जूते उठाए और लगे भागने। सामने से वही सज्जन दही लेकर आ रहे थे। देखा तो पत्नी से पूछा- क्या हुआ?
वह बोली- मुझे तो पता नहीं, वे लघुशंका जाने की बात कह रहे थे। न जाने क्यों भाग रहे हैं?
वह सज्जन तो सुबह से ही भूखे थे। उन तीन आदमियों के पीछे भागे, बोले- भाइयों ! कहाँ भागे जाते हो? हम लोग तो सुबह से भूखे हैं। उन आदमियों ने दौड़ते हुए कहा- आज तो ये दुष्ट हमें ही खाकर अपनी भूख मिटाएँगे।
अन्ततः वह सज्जन उन तीनों आदमियों के पास पहुँचे। उनकी बात सुनी, उन्हें चीनी के मिटाई नुमा आदमियों की बात बताई, तब उन तीनों की जान में जान आई और फ़िर उन सब ने भोजन किया। इसलिए अगर पूरी बात मालूम न होने से अच्छी भली बुद्धि में भी भ्रम पैदा हो जाता है।