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भगवान हनुमान के चरित्र से शिक्षा

bhagavaan hanumaan ke charitr se shiksha
bhagavaan hanumaan ke charitr se shiksha

सचिव कैसा होना चाहिए और उसे सचिव धर्म का पालन किस प्रकार करना चाहिए, इसका उत्तम उदाहरण श्रीहनुमान जी ने दिखाया है । महाबली वाली के दुरत्यय आघात के कारण सुग्रीव को त्रैलोक्य में कहीं ठिकाना नहीं रह गया था । ऐसे दीन, निराश्रय जन का साथ देकर महाबली वाली से वैर मोल लेना मामूली बात नहीं थी । ऐसी दुर्व्यवस्था में भी आप उनके मंत्रित्व – पद पर दृढ़ रहकर सदा सहायता करने में लगे रहे । यह परम साहसिकता और सच्ची प्रीति की पहली शिक्षा है । इतना ही नहीं, अंत में श्रीरामचंद्र जी से सुग्रीव की मित्रता करवा आपने उसको निर्भय कर दिया और इस प्रकार नीति के एक उच्च सिद्धांत को कार्यरूप में परिणत करके दिखा दिया कि राजा के सात अंगों में से यदि एक सर्वप्रधान अंग मंत्री बचा रहे तो शेष सब नष्ट हो जाने पर भी राज्य को पुन: प्राप्त कर सकना पात्रों के केवल मंत्री ही बच रहे थे – ‘तहं रह सचिव सहित सुग्रीवा, ‘सचिव संग लै नभ पथ गयऊ ।’ इससे अंत में दोनों के ही मनोरथ सफल हुए ।

श्रीहनुमान जी के संग से उपलब्ध श्रीरामकृपा से सुग्रीव जी राज्यासन पर विराजते हैं, परंतु जब राजमद के कारण ‘रमाविलास’ में रम जाते हैं तब श्रीहनुमान जी बड़ी ही दूरदर्शिता से आदर्श विनयपूर्वक सुग्रीव को सब प्रकार से सचेत कर देते हैं । सुग्रीव की अनुमति लेकर स्वयं दूतों को सम्मानपूर्वक बुलाते हैं और भय तथा प्रीति दिखाकर वानरों को बुलाने के लिए तुरंत भेज देते हैं । यदि आपने ऐसा न किया होता तो सुग्रीव पर कितना बड़ा कोपाक्रमण होता ।

जब वानर सेना इकट्ठे हो गये और श्री सीता जी की खोज में भेजे जाने लगे, तब आपका दल भी दक्षिण दिशा की ओर चला । उस समय सबसे पीछे आपने श्रीरघुनाथ जी के चरणों में शिरसा प्रणाम किया । श्रीराम जी ने इनको निकट बुलाकर अपने भक्तभयहारी कोमल कर कमल इनके मस्तक पर रख दिए और अपना ही जन जानकर सहिदान के निमित्त मुद्रि का दे दी । फिर श्रीरघुनाथ जी बोले –

आज श्रीहनुमान जी का जीवन सफल हो गया । उन्होंने सोचा कि मेरे समान बड़भागी कौन होगा, जिसके मस्तक पर मेरे नाथ ने आज पाप, ताप और माया – तीनों को एक साथ मिटा देने वाले कर – कमल रख दिए । श्रीहनुमान जी लंकादहन करते हैं । वहां चारों तरफ हाहाकार मच जाता है । अगणित जीव जलकर भस्म हो जाते हैं । इनकी गर्जना को सुनकर अनेक राक्षस – नारियों के गर्भपात हो जाते हैं । यह सब हुआ, परंतु आजतक किसी ने स्वप्न में भी ऐसी शंका नहीं की कि हनुमान जी को ऐसा करने में कोई पाप लगा । करते भी कैसे ? जिसके मस्तक पर परम कारुणिक का अभय हस्त फिर गया, उसमें पाप कहां ? यों तो आप स्वाभाविक ही त्रिविध ताप से मुक्त हैं, परंतु यहां उस ताप के संबंध में कहना है, जिससे आपने सारी लंका को तप्त कर दिया था । आपकी पूंछ में लगायी हुई अग्नि जिस समय प्रलयाग्नि या बड़वानल भी उसके सामने तुच्छ थे । अग्निशिखाएं मानो काल – रसना के सदृश सबको चाट रही थीं । मूसलधार वृष्टि भी उस समय घृताहुतियों के सदृश अग्नि को अधिकाधिक प्रचण्ड कर रही थी । समुद्र का जल भी उबल रहा था । ऐसी विकट स्थिति में आप सहज ही एक मंदिर से दूसरे मंदिर पर उछल रहे हैं, सारा शरीर रोम से आवृत है, परंतु अग्नि की आंच से आपका बाल भी बांका नहीं होता ।

कैसा आश्चर्य है ! बात यह है कि ‘गोपल सिंधु अनल सितलाई’ – की प्रभुतावाले प्रभु का अभय हस्त जिनके सिर पर रखा गया, उनके लिए ताप की संभावना ही नहीं रहती ।

अब रही माया की बात, श्रीहनुमान जी को तीनों प्रकार की गुणमयी माया का सामना करना पड़ा, परंतु आप सबका पराभव करते हुए करते हुए आगे बढ़े हैं । सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी – तीनों ही मायाओं से सामना करना पड़ा । देवलोक से आयी हुई सुरसा सतोगुणी, अधोनिवासिनी सिंहिका, जो उड़ते हुए पक्षियों की छाया को पकड़कर उन्हें खींच लेती थी, तमोगुणी और मध्यलोकस्थ लंकानिवासिनी लंकिनी रजोगुणी थी ।

इसके बाद श्रीहनुमान जी अब लंका में आकर विभीषण जी से मिलते हैं और उनको अंतर बाहर से भक्त समझ उनके बतलाये हुए मार्ग अशोकवाटिका में पहुंच माता सीता का साक्षात्कार करते हैं । भक्ति माता की खोज में निरत साधक को सद्गुरु चाहिए । यहां हनुमान रूपी जीव को विभीषणरूप सद्गुरु की प्राप्ति हुई । तदंतर भक्तिरूपी सीता के दर्शन हुए । इस प्रसंग में यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि माया से छुटकारा पाने पर भी संत – समागम के बिना यथार्थ भक्ति की प्राप्ति नहीं होती । इसके सिवा साधक को खोटा – खरा भलीभांति पहचान कर ही किसी को गुरु बनाना चाहिए । इसकी विधि भी यहीं बतला दी है । घर के बाहर श्रीराम – नाम – अंकित और तुलसी का वृक्ष देखकर ही हनुमान जी ने तुरंत विश्वास नहीं कर लिया, जब विभीशण जगकर ‘राम – राम’ कहने लगे, तब विश्वास किया । क्योंकि रामायणांतर्गत प्रतापभानु की कथा से ही यह प्रकट है कि जगत में साधुवेश घोर असाधु भी स्वार्थ साधन के निमित्त निवास करते हैं ।

फिर विभीषणोपदिष्ट मार्ग से असोकवाटिका में पहुंचे । भक्तराज विभीषण की शिक्षा से सीता जी की सन्निधि प्राप्त कर आपने स्वामी की मुद्रिका माता को प्रदान की । मुद्रिका प्रदान में भी एक रहस्य है । भक्ति के लिये जो कुछ साधक भेंट करता है, वह वस्तु होती क्या है ? केवल प्रभु की दी हुई ही । अन्यथा बेचारा जीव प्रभु – प्रसाद के अतिरिक्त किसी वस्तु को कहां से पाता ? यह बड़ा रहस्यपूर्ण प्रसंग है ।श्रीहनुमान जी के निकट जाने पर माता जी पूरी परीक्षा लेने का विचार कर मुंह फेर बैठ गयीं ।

तदंतर जब हनुमान जी ने रामभक्त होने के परिचय में सहिदानी मुद्रिका का लक्ष्य कराते और ‘करुनानिधान’ नाम की सत्य शपथ करते हुए उनका दास होने की सूचना देकर पूर्णरूप से विश्वास दिलाया, तब माता ने उन्हें मन, कर्म, वचन से ‘कृपासिंधु’ का दास जान परम प्रसन्न हुई और पुलकित होकर संतुष्ट मन से आशीर्वाद प्रदान किया । यहां श्रीहनुमान ने यह प्रमाणित कर दिया कि भगवत प्रेमियों को प्रभु की कृपा के अतिरिक्त कुछ और नहीं चाहिए ।

श्रीहनुमान से जुड़े प्रसंगों के यह तो सिर्फ अंश मात्र हैं । प्रभु का जीवन सेवा और पुरुषार्थ का नमूना है और इससे हमें यह अन्यतम शिक्षा प्राप्त होती है कि भगवान की सेवा के साथ – साथ पुरुषार्थ करने से भगवान की कृपादृष्टि होती है और जीवन सफल हो जाता है ।

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