एक महात्मा राजगुरु थे। समय-समय पर वे राजा को उपदेश देने राजमहल में जाया करते थे। एक दिन वे राजा को उपदेश देकर, भोजन करने के बाद, महल के एक कक्ष में अकेले ही लेटे हुए थे। उसी कक्ष में खूँटी पर राजा का मोतियों का हार टंगा हुआ था। महात्माजी के मन में अचानक ही लोभ आ गया और उन्होंने उस को खूँटी से उतारकर अपनी झोली में डाल दिया और अपनी कुटिया की ओर रवाना हो गए। कुछ समय पश्चात् हार न दिखाई देने पर, उसकी खोज प्रारम्भ हुई महात्माजी पर तो शक का कोई प्रश्न ही नहीं था।
लेकिन महल के नौकर-चाकर परेशान थे। कुछ दिवस व्यतीत हो जाने पर, जब महात्माजी के मन का मैल दूर हुआ तो उन्हें अपने किए पर घोर पश्चाताप हुआ और स्वयं ही हार को लेकर राजा के सामने रख कर बोले- ’’बुद्धि खराब होने के कारण मैं इस हार को चुराकर ले गया था और अपनी भूल का अहसास होने पर, मैं इसे वापिस करने आया हूं, मुझे अधिक दुःख इस बात का है कि मेरे कारण महल के नौकर चाकरों पर कितना अत्याचार हुआ होगा।’’
राजा को राजगुरु की बात पर विश्वास नहीं हुआ। राजा बोले, ऐसा लगता है, हार चुराने वाला आपके पास पहुँचा होगा और उसे बचाने हेतु यह अपराध आपने अपने ऊपर ले लिया है। महात्माजी ने पुनः राजा को विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि वास्तविक चोर वे स्वयं ही हैं। पर वे यह निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि, उनकी निर्लोभ वृत्ति में इस पाप ने कैसे प्रवेश किया। महात्माजी पुनः बोले कि- ’’आज प्रातः से ही हमें अतिसार हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो भोजन आपके यहाँ किया था, उससे मेरे निर्मल मन पर बुरा प्रभाव पङा है। अब दस्त हो जाने से उस अन्न का अधिकांश भाग बाहर निकल जाने पर मेरे मन का पाप दूर हो गया है।’’
राजा ने पता लगाया तो मालूम हुआ कि उस दिन का भोजन एक चोर द्वारा चुराए गए गेहूँ से बनाया गया था। यह सुनकर महात्माजी ने कहा, शास्त्रों में लिखा है कि राज्य का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। जैसे शारीरिक रोगों के सूक्ष्म कीटाणु फैलकर रोग का विस्तार करते हैं। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म मानसिक परमाणु भी अपना प्रभाव फैलाते हैं।’’
कहावत प्रसिद्ध है – ’’जैसा अन्न वैसी बुद्धि।’’