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और जिंदगी चल पड़ी…….।

और जिंदगी चल पड़ी…….।
समीर को अपने ऑफिस में काम करते हुए लगभग पंद्रह साल हो चुके थे।एक ही तरह की उबाऊ ज़िंदगी से वह तंग आ चुका था। हर दिन कंपनी के नए टारगेट और डेडलाइंस, अपने सीनियर्स से बात बेबात बेइज्जत होना,कलीग्स का एक दूसरे की टांग खींचना और बेहतरीन काम करने पर भी प्रोमोशन को भीख की तरह मांगना या चापलूसों की कतार में शामिल होकर अपने लिए जगह बनाए रखना उसे हमेशा से ही बहुत मुश्किल लगता था।
हर सुबह वह अपनी सालों पुरानी एक्टिवा को किक मार कर जानी पहचानी सड़कों पर तेज़ी से अपने ऑफिस की तरफ निकल पड़ता। उसे लगने लगा था कि छि!ये भी कोई जिंदगी है।
क्या क्या सपने देखे थे उसने।कॉलेज से बाहर निकलते ही हर नौजवान की तरह उसे भी भ्रम हो गया था कि आसमान की बुलंदियां जैसे उसकी उंगलियों से छुए जाने का ही इंतजार कर रही हों। वह भी पढ़ लिख कर किसी बड़े ओहदे पर काम करना चाहता था। उसका सपना था कि एक दिन फर्राटे भरती उसकी बड़ी सी गाड़ी पल भर में उसे आलीशान दफ्तर तक पहुंचा देगी और उसी गाड़ी में बैठ कर जब वह घर वापस आएगा तो घर पर दरबान उसके महलनुमा घर का दरवाज़ा खोल कर उसका स्वागत करेगा। मगर अफसोस ! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। न तो उसकी एक्टिवा गाड़ी में बदली सकी और न फ्लैट बंगले में।
उसे लगता था कि वह कोई साधारण लड़का नहीं था। आम लोगों की तरह नौ से पांच तक की नौकरी से रिटायर होकर एक आम इंसान की तरह वह कभी नहीं मरेगा। “मुझे कुछ करना है।” मगर क्या? चालीस की उम्र पार करने पर भी वह ये तय नहीं कर पाया था।
रास्ते में एक चौराहे पर रोज़ मिलने वाला वह खिलौने बेचने वाला, जो चिलचिलाती धूप में भी दिन भर वहीं खड़ा रहता,वही एक मोची जो एक मोड़ पर बारिश में भी टपकते छप्पड़ के नीचे सुबह से शाम ढले तक सिर झुकाए टूटे जूते चप्पलों में अपनी रोज़ी रोटी तलाशता रहता और वह सब्ज़ी वाला, जिसके ठेले पर रुक कर कई बार उसने भी सब्ज़ी खरीदी थी ,वह और उस जैसे बहुत से रोज़ दिखने वाले अनगिनत चेहरे अब उसे बहुत ज्यादा परेशान करने लगे थे।वह सोचता कि ये लोग जीते कहां हैं,वे तो उम्र को वक्त की सतह पर घिस घिस कर जिंदगी के उस पार चले जाते हैं।अजीब सा ठहराव और एकरसता,क्या इसी का नाम ज़िंदगी है! वह अक्सर सोचता।
बस! अब और नहीं करनी नौकरी ,वह अक्सर सोचता। कुछ बड़ा करना है। मगर क्या? वह यही नहीं जानता था। यह सोचते हुए वह चौराहे पर से आगे बढ़ने को हुआ तो उसकी एक्टिवा अचानक बंद हो गई।शायद पेट्रोल खत्म हो गया था। महीने के आखरी दिनों में उसकी जेब में पैसे भी कम थे।
“ये ले!ले जा खिलौना।” चौंक पर खिलौने बेचने वाले के शब्दों ने उसका ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। खिलौने वाले के चेहरे पर मुस्कान थी।वह हाथ में एक खिलौना पकड़े एक छोटे से बच्चे की तरफ अपना हाथ बढ़ा रहा था।
“पैसे नहीं हैं!”बच्चे ने कहा। “कोई बात नही, न दे। चल हंस के दिखा।” खिलौने वाले ने कहा। मैले कुचैले कपड़े पहने एक छोटे से बच्चे ने अनिश्चय में कांपता हुआ अपना हाथ आगे की तरफ बढ़ा दिया।खिलौना हाथ में लेते ही बच्चा और खिलौने वाला दोनो मुस्कुरा दिए। दोनों के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी।
समीर का भी एक ही बेटा था मगर उसके बेटे को कभी भी इस तरह किसी खिलौने के लिए तरसना नही पड़ा था। वह कमाता जो था। उस वक्त भी घर का ज़रूरी सामान खरीदने के बाद उसके पर्स में इतने पैसे थे कि वह पेट्रोल भरवा कर घर तक जा सकता था।
पेट्रोल पंप नज़दीक ही था।एक्टिवा को उस तरफ घसीटते हुए वह एकाएक कुछ सोच कर मुस्कुरा उठा। वह भी तो वही कर रहा था जो बाकी सब कर रहे थे। कोई जूतों में रोटी ढूंढ रहा था तो कोई खिलौनों में, कोई कुछ बेच कर परिवार की खुशियां खरीद रहा था तो कोई परिवार के लिए कुछ खरीद कर।
बड़ा काम तो हर वो इंसान कर रहा है जो लहरों के विरुद्ध तैरने की कोशिश कर रहा है।हर दिन सिर उठा कर जिंदगी का सामना करना भी तो कोई छोटी बात नही। अभावों के बीच भी खिलौने वाले की तरह खुशियां बांटी जा सकती हैं और उस बच्चे की तरह छोटी छोटी खुशियां पाकर खुश रहा जा सकता है। सोचते ही उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई । उसने एक्टिवा को किक मारी और ज़िंदगी एक बार फिर मुस्कुराती हुई चल पड़ी।

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