एक गाँव के निकट के जंगल में मंदिर का निर्माण हो रहा था. निर्माण कार्य सुबह से लेकर शाम तक चलता था. बहुत से कारीगर इसमें जुटे हुए थे.
सुबह से शाम तक कारीगर वहाँ काम करते और दोपहर में भोजन करने गाँव आ जाया करते थे.
एक दोपहर सभी कारीगर भोजन करने गाँव आये हुए थे. तभी बंदरों का एक दल निर्माणधीन मंदिर के पास आ धमका और उछल-कूद मचाने लगा.
मंदिर में उस समय लकड़ी का काम चल रहा है. चीरी हुई शहतूत और अन्य लकड़ियाँ इधर-उधर पड़ी हुई थी. बंदरों के सरदार ने बंदरों को वहाँ जाने से मना किया. किंतु एक शरारती बंदर नहीं माना.
सभी बंदर जहाँ पेड़ पर चढ़ गए. वह शरारती बंदर शहतूत की लकड़ियों पर धमाचौकड़ी करने लगा. वहाँ शहतूत के कई अधचिरे लठ्ठे रखे हुए थे. उन अधचिरे लठ्ठे के बीच कील फंसी हुई थी.
कारीगर भोजन के लिए जाने के पूर्व लठ्ठों के बीच कील फंसाकर जाते थे, ताकि वापस आने के बाद उनमें आरी घुसाने में सुविधा हो.
शरारती बंदर कौतूहलवश एक अधचिरे शहतूत के बीच फंसे कील को देखने लगा. वह सोचने लगा कि यदि इस कील को यहाँ से निकाल दिया जाये, तो क्या होगा. वह अधचिरे शहतूत के ऊपर बैठकर कील पर अपनी ज़ोर अजमाइश करने लगा.
बंदरों के सरदार ने जब उसे ऐसा करते देखा, तो चेतावनी देकर उसे बुलाने का प्रयास भी किया. किंतु हठी बंदर नहीं माना.
वह दम लगाकर कील को खींचने लगा. किंतु कील नहीं निकली. बंदर और जोर से कील को खींचने लगा. इस जोर अजमाइश में उसकी पूंछ पाटों के बीच आ गई. लेकिन बंदर ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और अपनी धुन में लगा रहा.
कुछ देर तक कील को खींचने पर वह थोड़ी हिलने लगी. यह देख बंदर ख़ुश हो गया और दुगुने उत्साह से कील को निकालने में लग गया. अंत में जोर के झटके के साथ कील बाहर निकल गई.
लेकिन जैसे ही कील बाहर निकली, अधचिरे पाट आपस में आ मिले और बंदर की पूंछ उसमें दब गई. बंदर दर्द से चीख उठा. कराहते हुए उसने वहाँ से निकलने का भरसक प्रयास किया. किंतु नाकाम रहा.
वह जितना दम लगाकर वहाँ से निकलने का प्रयास करता, उसकी पूंछ उतनी जख्मी होती जाती. बहुत देर तक वह वहाँ फंसा तड़पता रहा और अंततः अत्यधिक रक्त बह जाने के कारण मर गया.
सीख – जिस काम की जानकारी नहीं उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप करना मूर्खता है. ऐसा करना मुसीबत को बुलावा देना है.