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लगातार दो बेटियां हो गई दो साल के अंतराल में

सच कहूं तो मैं खुश नहीं थी। मेरे सपने अधूरे रह गए। मेरा सपना था कि एक बेटा भी मेरे गोद में खेले मगर मेरे अच्छे पति ने जब कहा “दो बेटियों को ही हम पाल पोस कर काबिल बनाएंगे स्नेहा। क्यों बेटे के लिए तरस रही हो। आज के इस महंगाई के जमाने में दो से ज्यादा बच्चे होना भी देश के अहित में है।। वैसे ही देश में जनसंख्या बहुत है। दो बेटियों के बाद अगर एक बेटा हो गया तो तुम्हारा ध्यान भी बेटे की ओर ज्यादा रहेगा जिससे बेटियां स्वयं को तिरस्कृत महसूस करेगी। मैं ऐसा होने देना नहीं चाहता। हमारा छोटा परिवार सुखी परिवार।”

मेरे पति की बात मुझे कुछ हद तक तो समझ में आ गई मगर मन में एक अधूरा ख्वाब रह गया।

हम दोनों ने मिलकर दोनों बेटियों को अच्छी शिक्षा और अच्छी संस्कृति से अच्छा व्यक्तित्व दिया। बड़ी बेटी डॉक्टर बनी तो छोटी बेटी इंजीनियर। बड़ी धूमधाम से दोनों बेटियों की अच्छे लड़कों से शादी भी की। बड़ा दामाद डॉक्टर है तो छोटा दामाद इंजीनियर। दोनों बेटियों को ही अपना मनपसंद जीवनसाथी मिला। हम बहुत खुश थे इसलिए खुशी से जीवन बितने लगे। मेरे पति ने जो भी संपत्ति हमारे पास थी, दोनों बेटियों में आधा-आधा बांट दिया। जब बड़ी बेटी ने कहा कि “हमें आपकी संपत्ति की जरूरत नहीं है पापा। आप अपनी संपत्ति अपने पास ही रखिए।” तब मेरे पति ने जवाब दिया “हमारे घर के तुम ही तो वारिस हो। हमारे बाद हमारी संपत्ति की देखभाल तुम दोनों बहनें मिलकर ही तो करोगे।”

बेटी ने कहा “आप अभी कहीं नहीं जा रहे हैं पापा।”

“कभी ना कभी तो हमें जाना ही पड़ेगा बेटा। हाँ एक बात कहना चाहता हूं अगर मैं पहले चला गया तो अपनी माँ का ध्यान रखना।”

“और अगर मैं पहले चली गई तो?” मैं बोल पड़ी थी।

“यह भी कोई कहने वाली बात है क्या मम्मी, पापा? आप लोग ऐसा क्यों कह रहे हैं? आप दोनों की देखभाल करना हमारा कर्तव्य है।” कृतिका ने कहा।

“इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरे दोस्त बृजेश के दोनों बेटे अमेरिका में जाकर बस गए। अब बुढ़ापे में उनका सहारा कोई नहीं रहा। जब दो बेटे हुए थे तब बृजेश बहुत गर्वित था यह सोच कर कि दो वारिस पैदा हो गए। मुझे भी कहा था “एक बार और चांस ले लो अमूल्य, हो सकता है तीसरी बार कोई बेटा पैदा हो जाए। तुम्हारे बाद तुम्हारा कोई वारिस तो होगा।” मैंने भी हंसकर कहा था..”मेरी बेटियां ही वारिस बनेगी। मुझे बेटा नहीं चाहिए।” मेरे अच्छे पति ने कहा था।

पापा के गुजर जाने के बाद बड़ी बेटी कृतिका ने उस जमीन पर अपने पापा के नाम से एक अस्पताल खोला जो जमीन पापा ने संपत्ति का बंटवारा करते समय उसे दी थी। अस्पताल का नाम अपने पापा के नाम से ‘अमूल्य आरोग्य केंद्र’ रखा। छोटी बेटी अमृता के नाम से उसके पापा ने अपना मकान कर दिया था। अमृता ने उस मकान में बच्चों के लिए एक निशुल्क स्कूल खोल दिया और स्कूल का नाम मेरे नाम से ‘स्नेहा विद्यालय’ रखा। दोनों बेटियों ने माता पिता का नाम अमर कर दिया। आज मैं अपनी बेटियों पर गर्वित हूँ। मेरे मन में अब कोई अधूरा ख्वाब नहीं रह गया।

कौन कहता है कि केवल लड़के ही वारिस बनते हैं लड़कियां नहीं। जहां पर भी कृतिका और अमृता के पापा आज है वहीं से देखकर गर्व से उनका सीना चौड़ा हो रहा होगा यह सोच कर कि “मेरे बाद मेरी बेटियों ने हमारा नाम ऊंचा रखा है, जीवित रखा।”

बेटियों ने अपने कर्म से मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया। बेटा न होने का मन में कोई क्षोभ नहीं है |

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