एक समय की बात है। हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ। उसने नदी के तट पर भगवती महामया की प्रसनन्ता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाये भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामन्त्र का जप करता रहा। उसकी इंन्द्रियाँ उसके वश में हो चुकी थीं। सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था। उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रुप में दर्शन दिया। भगवती महामाया ने उससे कहा महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई। मैं तुम पर परम प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिये तैंयार हूँ। वत्स! वर माँगो।
भगवती की दया और प्रेम से ओतप्रोत वाणी सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। उसके नेत्र आनन्द के अश्रुओं से भर गये। उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा – कल्याणमयी देवी! आपको नमस्कार है। आप महामाया हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। आपकी कृपा से कुछ भी असम्भव नही है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें।
देवी ने कहा – दैत्यराज! संसार में जिनका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता है। किसी का सदा के लिये अमर होना असम्भव है। अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है। अतः तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर मांगों।
हयग्रीव बोला- अच्छा तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो। दूसरे मुझे ना मार सकें। मेरे मन की यही अभिलाषा है। आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें। ऐसा ही हो यह कहकर भगवती अन्तर्धान हो गयीं। हयग्रीव असीम आनन्द का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वह दुष्ट देवी के वर के प्रभाव से अज्ञेय हो गया। त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके। उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा। यज्ञादि कर्म बन्द हो गये और सृष्टि की व्यवस्था बिगड़ने लगी। ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गये, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे। उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी। ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिये वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी। उस समय बड़ा भयंकर शब्द हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया। सिररहित भगवान के धड़को देखकर देवताओं के दुःख की सीमा ना रही। लोगों ने इस विचित्र घटना को देख कर भगवती की स्तुति की। भगवती प्रकट हुईं। उन्होंने कहा – देवताओ चिन्ता मत करो। मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा। ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काट कर भगवान के धड़ से जोड़ दें। इससे भगवान का हयग्रीवावतार होगा। वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे। ऐसा कह कर भगवती अन्तर्धान हो गयीं।
भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोंड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया। भगवती के कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया। फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ। अन्त में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई। हयग्रीव को मार कर भगवान ने वेदों को बह्मा जी को पुनः समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों का संकट निवारण किया।
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