एक पुराना मन्दिर था| दरारें पड़ी थीं| खूब जोर से वर्षा हुई और हवा चली| मन्दिर बहुत-सा भाग लड़खड़ा कर गिर पड़ा| उस दिन एक साधु वर्षा में उस मन्दिर में आकर ठहरे थे| भाग्य से वे जहाँ बैठे थे, उधर का कोना बच गया| साधु को चोट नहीं लगी|
साधु ने सबेरे पास के बाजार में चंदा करना प्रारम्भ किया| उन्होंने सोचा – ‘मेरे रहते भगवान् का मन्दिर गिरा है तो इसे बनवाकर तब मुझे कहीं जाना चाहिये|’
बाजार वालों में श्रद्धा थी| साधु विद्वान थे| उन्होंने घर-घर जाकर चंदा एकत्र किया| मन्दिर बन गया| भगवान् की मूर्ति की बड़े भारी उत्सव के साथ पूजा हुई| भण्डारा हुआ| सबने आनन्द से भगवान् का प्रसाद लिया|
भण्डारे के दिन शाम को सभा हुई| साधु बाबा दाताओं को धन्यवाद देने के लिये खड़े हुए| उनके हाथ में एक कागज था| उसमें लम्बी सूची थी| उन्होंने कहा – ‘सबसे बड़ा दान एक बुढ़िया माता ने दिया है| वे स्वयं आकर दे गयी थीं|’
लोगों ने सोचा कि अवश्य किसी बुढ़िया ने सौ-दो-सौ रुपये दिये होंगे| कई लोगों ने सौ रुपये दिये थे| लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ|
जब बाबा ने कहा – ‘उन्होंने मुझे चार आने पैसे और थोड़ा-सा आटा दिया है|’ लोगों ने समझा कि साधु हँसी कर रहे हैं|
साधु ने आगे कहा – ‘वे लोगों के घर आटा पीसकर अपना काम चलाती हैं| ये पैसे कई महीने में वे एकत्र कर पायी थीं| यही उनकी सारी पूँजी थीं| मैं सर्वस्व दान करने वाली उन श्रद्धालु माता को प्रणाम करता हूँ|’
लोगों ने मस्तक झुका लिये| सचमुच बुढ़िया का मनसे दिया हुआ यह सर्वस्व दान ही सबसे बड़ा था|