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बोरीभर ठीकरियां !!

दूलीचंद व नानकचंद गहरे मित्र थे। दूलीचंद ने वृद्धावस्था के लिए कुछ धन जोड़ रखा था। उसके बल पर उसका बुढ़ापा मजे से कट रहा । जबकि नानकचंद ने था जितना कमाया था वह सब उड़ा दिया था। फलस्वरूप उसका बुढ़ापा कष्टों में गुजर रहा था

दूलीचंद का परिवार पर पूरा दबदबा था। बेटे-बहुएं सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे। इसके ठीक विपरीत स्थिति नानकचंद की थी।

एक बार दोनों मित्र एक पार्क में मिले तो सुखदु:ख की बातें करने लगे। नानकचंद बोला, “ भैया, मेरी तो बड़ी दुर्गत हो रही है। बेटा बहू के कहने पर चलता है। सेवा-चाकरी करना तो दूर अब तो सब मुझसे घृणा करने लगे हैं। नौबत
यहां आ चुकी है कि मेरी चारपाई भी घर के बाहर लगा दी गई है।

इच्छा तो तक करती है कि कहीं निकल जाऊं।” “लेकिन इस बुढ़ापे में जाओगे भी कहां? मैं तुमसे पहले ही कहा करता था कि बुढ़ापे के लिए कुछ जमा कर लो, लेकिन तुम मानते कब थे मेरी बात.अब भुगतो अब भी मेरा कहा मान लो। ऐसा उपाय बताऊंगा कि बेटेबहू तुम्हारी सेवा करेंगे।”

“अच्छा, जल्दी बताओ भैया, क्या है वह उपाय? ” नानकचद ने पूछा तब दूलीचंद ने कहा“तुम कुछ ठीकरियां इकट्ठी कर लो और उन्हें सिक्कों की आकृति देकर रात्रि में किसी बरतन में रखकर खनखनाया करोतुम्हारी बहू यह समझेगी कि तुम्हारे पास सिक्कों के रूप में बहुत है। फिर वह तुम्हारी सेवा किया धन करेगी, साथ ही बेटा भी तुम्हारे आगेपीछे दुम हिलाता फिरेगा।”

नानकचंद ने उस दिन घर पहुंचकर इस उपाय पर अमल कियाउसने मटके की टूटी ठीकरियां इकट्ठी कीं और रात्रि में उन्हें खनखनाने लगा। सुबह उसकी बहू अपने पति से बोली, “क्यों जी, तुम्हारा बाप यूं ही हमें बुद्ध बनाता
है। मैंने कल रात ही कान लगाकर सुना है। वह रातरातभर पैसे गिना करता है।” नानकचंद का बेटा अपनी पत्नी से बोला, “ऐसा संभव ही नहीं है। यदि पैसे होते 1 तो मेरा बाप मुझे तो कम-सेकम बताता ही।” “कोई जरूरी नहीं। प्राय: सभी बूढ़े अपनी संतानों से छिपाकर कुछ-न-कुछ बचा रखते हैं।

तुम्हारे बाप के पास भी बहुत घंन है। मैं तो अभी से उनकी सेवा करनी शुरू कर देंगी। ”

अब नानकचंद की बहू उसकी सेवा-टहल करने लगी। कभी अच्छे-अच्छे पकवान बनाकर खिलाती तो कभी हाथपैर दबाया करती। नानकचंद बहुत खुश हुआ। उसने सोचा कि दूलीचंद का उपाय सफल हो रहा है। साल-छह महीने ऐसे ही व्यतीत हो गएनानकचंद की बहू ने उसकी खूब सेवा की, लेकिन एक दिन वह सख्त बीमार पड़ गया। बेटे ने इलाज का पूरा खर्चा उठाया। बहूबेटे तनमन-धन से उसकी सेवा में जुटे रहे।

आखिरकार एक दिन वह चल बसातब उसके बहू-बेटे ने उसके कमरे की तलाशी ली। उन्हें कहीं भी कुछ नहीं मिला। तभी बहू की नजर एकाएक एक कोने पर पड़ी जहां एक बोरी पड़ी थी। उसका मुंह सिला हुआ था। बहू ने धन के लालच में उस बोरी का मुंह खोला तो देखा कि उसमें ठीकरियां भरी पड़ी थीं।

उसे विश्वास नहीं हुआ। वह सोचने लगी कि शायद बुड्ढे ने ऊपर-नीचे ठीकरियां भर रखी हों और बीच में धन छिपा रखा हो। यह सोचकर उसने बोरी को जमीन पर गिराकर खाली कर दिया, ।

लेकिन उसमें सिवाय ठीकरियों के कुछ भी नहीं था। वह माथा पकड़कर रह गई। फिर भी सुखद बात यह रही कि ठीकरियों के बलबूते नानकचंद का बुढ़ापा अंतिम दिनों में आनंदपूर्वक कट गया।

इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है  कथा-सार

धन की माया ही कुछ ऐसी है कि धन पास हो तो पराये भी अपने हो जाते हैं; और न हो तो अपने भी बेगानों की तरह पेश आते हैं।

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