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मौन पर बुद्ध कहानी

आश्रम के सभी बच्चे जब दूसरे कामों में लगे होते थे तो एक बच्चा एक कोने में बैठा चुपचाप अपने आप में खोया रहता था। वो अक्सर किसी से ज्यादा बात नहीं करता था। आश्रम की सभी जिम्मेदारियां पूरी करने के बाद जहाँ सभी बच्चे पूरे दिन की घटनाओं की चर्चा करने लगते हैं, वही पर वो शांत रहने वाला बच्चा एक बरगद के पेड के नीचे बैठकर ध्यान करने लगता। सभी बच्चों को आश्चर्य होता था क्योंकि उसका कोई दोस्त नहीं था। वो अक्सर आश्रम में अकेला ही घूमता रहता था। ये देख कर उसके गुरु को बडी प्रसन्नता होती थी। उसे लगता था कि कोई तो है आश्रम में जो मौन यानी कि चुप रहने की ताकत को समझता है, उसके महत्त्व को समझता है। आश्रम के बारे में जब भी कोई जरूरी निर्णय लेना होता उसकी राय जरूर लिया करते थे, लेकिन यही बात गुरूजी के एक दूसरे शिष्य को बडी खटकती थी।

क्योंकि वो गुरु जी का प्रिय शिष्य बनना चाहता था इसीलिए वो गुरूजी के सामने दूसरे बच्चों के कामों में कुछ न कुछ कमियां निकालता रहता था, जिससे गुरूजी उसे महान समझने लग जाए। अक्सर वो अपनी जिम्मेदारियां पूरी तरह से निभाने का दिखावा भी करता, चाहे उससे कोई सलाह ना भी मांगे। लेकिन फिर भी वो उन्हें अपनी सलाह देता रहता था। वो बहुत ही बातूनी शिष्य था और आश्रम के दूसरे सभी बच्चों में बहुत प्रसिद्ध भी था क्योंकि वो सबसे हँसी मजाक करता रहता था। उनसे दिन भर बातें करता रहता था इसीलिए उसकी सबसे दोस्ती हो गई थी।

लेकिन जब आश्रम के गुरु उसकी राय ना लेकर दूसरे बच्चे की राय लेते थे तो ये बात उसे बडी खटकती थी। उसे ये लगता था कि वो उस दूसरे बच्चे से ज्यादा बुद्धिमान है। लेकिन गुरु जी फिर भी उसकी तरफदारी करते हैं। ऐसा नहीं था कि गुरु जी को बातूनी शिष्य के स्वभाव के बारे में पता नहीं था लेकिन गुरूजी उसे अपने तरीके से सीख देना चाहते थे ताकि उसकी ज्यादा बोलने की आदत, दिखावा करने की आदत, दूसरों में कमियां निकालने की आदत, हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जाए और वो मौन रहकर ध्यान की गहराइयों को छुपाएँ।

असल में हर सच्चे गुरु की यही इच्छा होती है। वो किसी तरीके से उस बातूनी शिष्य को एहसास कराना चाहते थे। की चुप रहने से ही उसे असीम सत्य को जाना जा सकता है। उस विराट का एहसास चुप होकर ही किया जा सकता है। १ दिन गुरूजी को एक तरीका सूझा। उन्होंने आश्रम के सभी बच्चों को अपने पास बुलाया और कहा कि मैं तुम सभी को दो दो हिस्सों में बांटकर अलग अलग गांवों में भिक्षा मांगने के लिए भेज रहा हूँ और जो भी दो बच्चे सबसे ज्यादा भिक्षा मांगकर लाएंगे उन दोनों को आश्रम की सभी जिम्मेदारियां निभाने का मौका दिया जाएगा।

अपनी बात जारी रखते हुए गुरूजी ने बताया कि भिक्षा मांगने से हमारा अहंकार खत्म होता है। इसीलिए हर शिष्य पूरे मन से भिक्षा मांगे। कोई भी इस काम को औपचारिकता में ना लें वरना तो वो अपने जीवन का बहुत बडा ज्ञान खो देंगे। आश्रम के गुरूजी ने जानबूझकर बातूनी शिष्य और चुप रहने वाले शिष्य की जोडी बना दी। बातूनी शिष्य के मन में सिर्फ एक ही बात चल रही थी कि इस बार उसे मौका मिला है और इस बार वो गुरूजी को दिखा देगा की वो चुप रहने वाले शिष्य से कितना ज्यादा प्रतिभावान है।

दोनों शिष्यों ने आपस में अपनी सहमति से निर्णय लिया कि दोनों गांव के अलग अलग जगह से भिक्षा मांगना शुरू करेंगे। ताकि भिक्षा मांगने का काम जल्दी खत्म किया जा सके। चुप रहने वाला शिष्य हर द्वार पर जाकर अपने हाथ जोडकर अपना भिक्षा का पात्र उनके सामने कर देता। उसके चेहरे पर एक सादगी और उसकी आँखों में एक एकान्त होता था, जिससे भिक्षा देने वाले उसे भिक्षा देकर अपने आप को अनुग्रहीत समझते थे।

वहीं पर दूसरा बातूनी शिष्य हर द्वार पर जाकर उनको कुछ ना कुछ ज्ञान देने लगता था, जिससे ज्यादातर लोग उसे बिना भिक्षा दिए ही लौटा देते थे। पूरे गांव में भिक्षा मांगकर जब दोनों गांव के बीच में मिले तो बातूनी शिष्य ने देखा कि चुप रहने वाले शिष्य के पास उससे दुगुनी भिक्षा थी। ये देखकर उसे मन ही मन बहुत ठेस पहुंचा। लेकिन जब वो दोनों भिक्षा का सामान लेकर आश्रम की तरफ जा रहे थे तब बातूनी शिष्य को एक चालाकी सूझी।

उसने चुप रहने वाले शिष्य से कहा कि हमें अपनी भिक्षा एक ही थैले में डाल लेने चाहिए। गुरु जी ने हम दोनों को एक साथ भिक्षा लाने के लिए कहा था। चुप रहने वाले शिष्य ने बिना कुछ बोले अपनी सारी भिक्षा उसके थैले में डाल दी। बातूनी शिष्य मन ही मन बहुत खुश हो रहा था कि अब गुरु जी को ये पता नहीं चलेगा कि ज्यादा भिक्षा हम में से किसने मांगी। उसे लग रहा था कि गुरु जी मुझे इससे कम प्रतिभावान समझेंगे। इसीलिए उसने ये तरकीब लगायी।

सभी शिष्यों के आने के बाद संध्या के समय जब सभी की भिक्षा तो ली गई तो इन दोनों शिष्यों की भिक्षा सबसे ज्यादा निकली। गुरु जी ने इन दोनों का अभिवादन करते हुए आश्रम के सभी बच्चों के सामने उनकी पीठ थपथपाते हुए उन्हें मुबारकबाद दी और कहा कि मैं आश्रम का कार्यभार तुम दोनों को नहीं सौंप सकता। इससे आपसी मतभेद होने का खतरा रहता है। इसीलिए तुम दोनों में से जो ज्यादा भिक्षा लेकर आया है, आश्रम की जिम्मेदारी उसे ही सौंपी जाएगी। जब उन्होंने उनसे पूछा कि तुम में से ज्यादा भिक्षा कौन मांगकर लाया था तो बातूनी शिष्य ने कहा कि गुरु जी मैं इससे दुगनी भिक्षा मांगकर लाया था लेकिन मुझसे गलती हो गयी की मैंने वो दोनों भिक्षा एक ही थैले में डाल ली। मुझे नहीं पता था कि आप ऐसा निर्णय लेने वाले हैं वरना तो मैं अपनी शिक्षा का थैला अलग ही रखता।

इस पर गुरूजी ने चुप रहने वाली शिष्य से पूछा की क्या तुम इसके बाद से सहमत हो? क्या तुम इससे कम भिक्षा लेकर आए थे? ये सुनकर चुप रहने वाले शिष्य ने कहा कि गुरूजी मेरे पास ऐसा कोई साधन नहीं है जिससे मैं ये साबित कर पाऊँ कि मैं इससे ज्यादा भिक्षा लेकर आया था। असल में ये उल्टा बोल रहा है दुगनी भिक्षा मैं लेकर आया था ये मुझसे आदि भिक्षा लेकर आया था और इसी ने ही मुझसे भिक्षा एक थैले में डालने की बात कही थी। आश्रम से कुछ दूरी पर एक पहाडी थी, जिसके पीछे सूरज अभी अभी संध्या के समय ढल रहा था। गुरु जी को तो पता था कि सच कौन बोल रहा है?

लेकिन बाकी बच्चों के सामने सच साबित करने के लिए उन्होंने उन दोनों से एक सवाल पूछा कि पीछे पहाडी पर तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? यह सुनकर वाचाल शिष्य झट से बोल पडा कि गुरूजी पहाडी के पीछे सूरज अपना रंग बिखेर रहा हैं। आसमान में लालिमा छाई हुई है। ये बहुत ही सुंदर दृश्य है। वो तो और भी बहुत कुछ कहना चाहता था, लेकिन गुरूजी ने उसे चुप करते हुए दूसरे शिष्य से जवाब जानने के लिए जब उसकी तरफ देखा तो उसकी आँखों में आंसू भरे हुए थे। श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से उसकी आंखें भर आई थी। गुरु जी को उससे पूछने की जरूरत ही नहीं पडी।

गुरूजी ने सभी बच्चों को संबोधित करते हुए कहा कि मैंने सवाल किया था कि पहाडी के पीछे तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? ज्यादातर लोगों को यही दिखाई देगा की एक बहुत सुंदर दृश्य हैं। लेकिन मज़े की बात ये है की सुन्दरता बोलकर नहीं बताई जा सकती। उसे महसूस किया जा सकता है और सामने वाला उस सुंदरता को आप की आँखों में देख पाता है। चुप रहने वाले शिष्य की तरफ इशारा करते हुए गुरूजी ने कहा कि असल में सुंदरता इसी बच्चे ने देखी है। दूसरे बच्चे ने सिर्फ सुंदरता की उप व्याख्या की है।

लेकिन इसने वास्तविकता में उस सुंदरता को महसूस किया है। अपने आप को ऊंचा दिखाने की सभी कोशिशे नाकाम होती देख वाचाल शिष्य वहीं पर फूट फूटकर रोने लगा। उसको चुप कराते हुए गुरूजी ने कहा कि बेटा मुझे पहले से पता था कि तुम झूठ बोल रहे हो, लेकिन मैं तुम्हें उस झूठ का एहसास कराना चाहता था। सभी बच्चों को संबोधित करते हुए गुरूजी ने बताया कि शब्द जाल की तरह होते हैं। हमारे ज्यादा बोलने की वजह से बहुत सारी समस्याएं पैदा होती है। जब कोई आदमी एक बात को बढा चढाकर बोल देता है तो उसे सिद्ध करने के लिए वो शब्दों के जाल में फंसता चला जाता है और इसी वजह से अंतर्मुखी होने की बजाय वो बहिर्मुखी होता चला जाता है।

वहीं पर जिस भी व्यक्ति को अपनी अंतर यात्रा करनी होती है। उसे सबसे पहले चुप रहना सीखना होता है। जरूरत से ज्यादा बोलना या फिर हर वक्त बोलते ही रहना, ये सब हमारी अंतर यात्रा में बाधा बन जाती है। जब आप चुप रहने का अभ्यास करते हैं। तो आप अपने साथ वक्त बिताने लगते हैं जिससे कि आप अपने एकांत को जान पाते हैं और एक बार अगर मन में एकांत स्थापित हो जाए तो आपकी आंखो में आपके चेहरे पर वो सादगी, वो एकांत, वो स्पष्टता की झलक सब कुछ सामने नजर आने लगता है। कुछ साबित करने को नहीं रह जाता, कुछ बताने को नहीं रह जाता, सब कुछ आंखो में देखा जा सकता है। चुप रहने वाले शिष्य की तरफ इशारा करते हुए गुरूजी ने कहा कि

अभी जो दृश्य है इस बच्चे ने देखा। वो ज्यादा बोलने वाला आदमी कभी नहीं देख पाएगा। वो अपनी बुद्धि से तर्क वितर्क करता रहेगा कि उसे क्या क्या दिखाई दे रहा है लेकिन उसमें से वो महसूस कुछ भी नहीं कर पाएगा, उसे दिखाई दे जाएंगे। पहाड, सूरज या फिर उसकी लालिमा, लेकिन उस सुंदरता को, उस विराट को, उस अद्वैत को, वो कभी नहीं देख पाएगा। अगर चुप रहने की कला सीखनी है तो तुम्हे सबसे पहले एक बात ध्यान रखनी होगी कि तुम्हें किसी को भी प्रभावित करने की कोशिश नहीं करनी है। ज्यादातर लोग इसी वजह से ज्यादा बोलते है क्योंकि वो दूसरों को प्रभावित करना चाहते हैं। अपने आप को साबित करना चाहते हैं और उस साबित करने के चक्कर में वो शब्दों के जाल में फंसते चले जाते हैं और धीरे धीरे वहीं उनकी आदत बन जाती है।

अगर कोई व्यक्ति दूसरों को प्रभावित करना चाहता है तो वो कितने लोगों को प्रभावित कर पाएगा? उसकी ये भूख बढती जाएगी और वहीं संसार में सभी को कभी भी प्रभावित नहीं कर पाएगा। इसलिए यह समझने की बात होती है कि बहिर्मुखी होने की बजाय हम अन्तर्मुखी होकर अपने आप को समझ सकते हैं। अपनी बातों को खत्म करते हुए गुरु जी ने अपना आखिरी संदेश दिया। उन्होंने बताया कि अगर कोई व्यक्ति ज्यादा समय तक चुप नहीं रह सकता तो उसे थोडे समय से अभ्यास करना चाहिए।

निश्चित संकल्प लेकर किसी व्रत की भाँति दिन में कुछ समय या फिर हफ्ते में कुछ समय या फिर १ दिन चुप रहने का अभ्यास जरूर किया जाना चाहिए। इससे हमारी चुप रहने की आदत धीरे धीरे खुद ब खुद पनपने लगती है क्योंकि एक बार जब हम चुप रहने लगते हैं तो हमें चुप रहने का आनंद पता चल जाता है। उसके बाद हमें प्रयास नहीं करना पडता बल्कि हमारा मन आनंद की तरफ अपने आप बढता चला जाता है। चुप रहने की कला सीखने के बाद आपकी बुद्धिमानी और आप की स्पष्टता दोनों में बहुत ज्यादा फायदा होगा। वास्तविकता में जिसे दर्शन कहते हैं वो मौन रहकर ही किया जा सकता है। इसके बाद सभी बच्चों से कुछ समय चुप रहने का संकल्प लेकर गुरूजी ने अपनी बात खत्म कर दी और सभी बच्चे रात्रि का भोजन करने के लिए एक साथ भोजन कक्ष में पहुँच गए।
तो दोस्तों कैसी लगी ये कहानी आपको कमेंट सेक्शन में जरूर बताना, तो मिलते है किसी अगली कहानी में तब तक के लिए अपना ख्याल रखें।

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