एक गाँव में एक मुर्गा रहता था. वह रोज़ सुबह बांग देकर गाँव वालों को जगाया करता था. एक दिन एक गीदड़ कहीं से घूमता हुआ गाँव में आ गया. जब उसने मुर्गे को देखा, तो उसकी लार टपकने लगी. वह सोचने लगा – ‘वाह! क्या शानदार मुर्गा है. अगर इसका मांस खाने को मिल जाये तो मज़ा आ जाये.
वह तरकीब सोचने लगता है, ताकि किसी तरह मुर्गे को दबोच कर पेट पूजा कर सके. उसने मुर्गे को बहला-फुसला कर अपने काबू में करने का निश्चय किया और उसके पास पहुँचकर बोला, “मित्र! मैं तुम्हारी आवाज़ सुनकर तुम्हारे पास आया हूँ. तुम्हारी आवाज़ बहुत ही सुरीली है. कानों में मिश्री घुल जाती है. मन करता है, दिन-भर सुनता रहूं. क्या तुम एक बार मुझे अपनी सुरीली आवाज़ सुनाओगे.”
मुर्गे की कभी किसी ने इतनी प्रशंसा नहीं की थी. वह गीदड़ की बात सुनकर मुर्गा ख़ुशी से फूला नहीं समाया और उसे अपनी आवाज़ सुनाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से “कूक-डू-कू” करने लगा.
गीदड़ इसी फ़िराक में था. उसके देखा कि मुर्गे का ध्यान उसकी ओर नहीं है. इसलिए अवसर पाकर उसने मुर्गे को अपने मुँह में दबा लिया और जंगल की ओर भागने लगा.
जब वह जंगल की ओर भाग रहा था, उस समय गाँव वालों की दृष्टि उस पर पड़ गई. वे लाठी लेकर उसे मारने के लिए दौड़े. गीदड़ डर के मारे और तेजी से भागने लगा. मुर्गा अब तक उसके मुँह में दबा था. तब तक उसने उसके चंगुल से बचकर निकलने का एक उपाय सोच लिया था.
वह भागते हुए गीदड़ से बोला, “देखो गीदड़ भाई! ये गाँव वाले मेरे कारण तुम्हारा पीछा कर रहे हैं. वे तब तुम्हारा पीछा करना छोड़ेंगे, जब तुम उनसे कहोगे कि मैं तुम्हारा हूँ, उनका नहीं. ऐसा करो, तुम उन्हें बोल दो.”
गीदड़ मुर्गे की बातों में आ गया और पलटकर बोलने के लिए अपना मुँह खोल लिया. लेकिन जैसे ही उसने मुँह खोला, मुर्गा उड़ गया और गाँव वालों के पास चला गया. इस तरह अपनी चतुराई से उसने अपनी जान बचाई.
सीख (Moral of the story)
संकट के समय बुद्धिमानी से काम लेना चाहिए.