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सुकून मिलता है

सितम्बर 1988 की बात है । पानागढ स्कूल में क्लास 3A की मैं क्लास टीचर थी । नयी – नयी नौकरी लगी थी , मैं दुनिया बदल दूँगी वाली उत्साह से भरी थी । ख़ूब परिश्रम से पढ़ाती । काँपी चेक करती । बच्चों को पास बुला कर समझाती । मैंने पाया कि चंदन मंडल कुछ नहीं लिखता है । काँपी भी नहीं निकालता है ।

चंदन काँपी निकालो ।

मैडम मेरे पास काँपी नहीं है ।

काँपी क्यों नहीं है ?

मैडम मम्मी ने नहीं दिया है ।

अब जाकर उसका बैग जो फ़ौजी पिट्ठू था टटोला । एक स्कूल की पुरानी डायरी और एक पेंसिल थी , उसके बैग में । मेरा ग़ुस्सा सातवें आसमान पर ।मैंने कान पकड़कर उसे खींचते हुए अपने टेबल तक लाई । बैठकर पूछा किताब – काँपी क्यों नहीं लाते ?

मम्मी ने नहीं ख़रीदा है ।

मारने के लिए हाथ उठाया तो उसने कहा कि इस गाल पर मारिए , उस पर नहीं ।

तुम से पूछ कर मारूँगी ?

नहीं , पर इस गाल में कैंसर है ।

अब मेरी आँखें भर आईं । ग़ुस्से का पारा ज़ीरो पर लुढ़क गया

। मैंने पूछा किसने कहा – कैंसर है ?

डाक्टर कहते हैं । परसों इस गाल के अंदर से मांस काट कर जाँच के लिए भेजा गया है ।

ओह । अब मैं तुम्हें कभी नहीं मारूँगी। पर तुम लिखते- पढ़ते जो नहीं हो ।

मैं क्या करूँ ? मम्मी काँपी नहीं देती है ।

मम्मी को बुलाकर लाओ ।

मम्मी नहीं आ सकती । वो तो सेंटर जातीं हैं । सेंटर मतलब वेलफ़ेयर सेंटर जहां औरतें जवानों की वर्दी सिलती हैं और कुछ रूपये कमाती हैं । माँ भी ठीक उसी समय आती है जब हमारी स्कूल की छुट्टी होती है । मैंने कहा ठीक है छुट्टी के बाद मेरे साथ चलना – आज तुम्हारी मम्मी से मिलकर आती हूँ ।

छुट्टी के बाद उसके साथ रिक्शे में बैठ कर चली । मेरे साथ बैठकर वो बहुत खुश था । पैदल चलते दोस्तों को आवाज़ दे – दे कर बुला रहा था । टाटा कर रहा था । अपने घर पहुँच कर दरवाज़े से ही माँ – माँ की जोर – ज़ोर से आवाज़ लगायी ।

पतली – दुबली सी एक महिला दरवाज़े पर आई ।

मैं चंदन की क्लास टीचर हूँ । किताब – काँपी कुछ नहीं लाता है । कहता है माँ ने नहीं दिया ।बताइए ये भी कोई बात है ।

उसकी माँ ने कहा – मैडम क्या करूँ ? इसका पापा दार्जिंलिंग में पोस्टेड है । सुना है वहाँ दूसरी शादी कर लिया है । पैसा भेजता नहीं है । बच्चों को ज़िंदा रखूँ या काँपी – किताब ख़रीदूँ । मुझ पर तुषार पात हो गया ।मैं चुपचाप खड़ी रही । उसने आगे कहा कि पाँच – छह महीने में चार – पाँच हज़ार भेज देता उससे क्या होता है । दिन – रात सेंटर का कपड़ा सिल कर बच्चों को ज़िंदा रख रही हूँ । अंदर आइए ना , बैठिए ना । मैं ठीक हूँ , अच्छा चलती हूँ । मन पर कई मन का बोझ लिए मैं लौट आई । साँस लेना भी कठिन हो रहा था ।सारी शक्ति निचोड़ दी गई थी । थका – थका शरीर लग रहा था ।

शाम को पति देव को सारी घटना कह सुनाई ।पति देव ने बहुमूल्य सलाह दिया कि उसकी सारी किताबें और काँपी तुम ख़रीद कर दे दो । दूसरी सलाह कि अगर हो सके तो किसी आर्मी आफ़िसर को इस समस्या से अवगत कराओ ।

दूसरे दिन पानागढ बाज़ार में उतर कर काँपी – किताब ख़रीदी । मात्र ४५ रूपये में सारी किताबें और कापी आ गईं ।

चंदन अचानक नयी किताबें और काँपी पाकर नाच रहा था । अपने साथियों से मेरी तारीफ़ करते नहीं थक रहा था । फिर मैंने मिसेज़ जोशी जो स्कूल में एड-हॉक पद पर काम कर रही थी एक सीनियर आर्मी आफ़िसर की बीबी थीं उन्हें सारी समस्या से अवगत कराया । मिसेज़ जोशी की कोशिश से काम युद्ध स्तर पर हुआ । चंदन के पापा को यहीं पानागढ बुलाया गया । डाँट फटकार लगायी गई । चंदन का इलाज भी सही तरीक़े से होने लगा ।

अब वो तेज़ी से लिखकर काम दिखाता । कितनी सुंदर उसकी लिखावट थी । कितना सुंदर चित्र बनाता था । मेरी बोर्ड पर चित्र देखकर पूरी क्लास हंसती तो मैं चंदन को बुलाकर बोर्ड पर चित्र बनवाती ।चार महीने बाद मेरा ट्रांसफ़र दुर्गापूर हो गया । मेरा प्यारा बाबू चंदन का साथ छूट गया ।आज भी फ़ुरसत के समय चंदन के बारे में सोचती हूँ ।

मेरे पात्र जब मुझसे ज़बरदस्त तक़ाज़ा करने लगते हैं तब मैं लिखना शुरू करती हूँ । हालाँकि लिखकर सुकून मिलता है । हम सब तो सुकून की तलाश में ही हैं । ईश्वर चंदन को कामयाबी दे 

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