संत कबीरदास प्रायः गाया करते थे,
कबिरहिं फिकर न राम की घूमत मस्त फकीर। पीछे-पीछे राम हैं, कहत कबीर-कबीर।
कबीर के एक शिष्य ने कहा, ‘गुरुजी जब भगवान् राम आपके पीछे पीछे घूमते हैं, तो क्यों न हमें भी एक बार उनके दर्शन का सौभाग्य मिले।’ कबीरदास ने हँसकर कहा, भैया, भगवान् उसे ही दर्शन देते हैं,
जो दुर्व्यसनों से मुक्त होता है, मेहनत की कमाई से पालन- पोषण करता है और गरीब-निराश्रितों व साधु-संतों को भोजन कराता है । किसी दिन ईमानदारी की कमाई से भोजन बनाकर साधु-संतों को जिमाओ। भगवान् अवश्य ही दर्शन देने की कृपा करेंगे।
शिष्य ने अपने अवगुण त्याग दिए और मेहनत से कमाई करने लगा। एक दिन वह बोला, ‘गुरुदेव, आज मैंने साधु-संतों व गरीबों के लिए भंडारे की व्यवस्था की है। आप भोजन करने पधारें और मुझे भगवान् के दर्शन कराएँ।’
भंडारे में कई साधु-संत भी पहुंचे। शिष्य कबीरदास की प्रतीक्षा करने लगा। अचानक उसने देखा कि एक भैंस रसोईघर में घुसकर पूरियों के छकड़े में मुँह मार रही है। क्रोधवश लाठी लेकर वह भैंस पर पिल पड़ा। भैंस के शरीर से खून निकलने लगा और वह भाग गई।
कबीरदास उस भैंस से लिपटकर रोते हुए कह रहे थे, ‘हे राम, तुम पर रावण ने भी ऐसा जुल्म नहीं किया, जैसा मेरे शिष्य ने आज किया।’ शिष्य को देखकर वे बोले, ‘अरे दुष्ट, भगवान् भोजन करने आए थे। तूने कसाई जैसा व्यवहार क्यों किया?
शिष्य समझ गया कि गुरुदेव तो प्राणिमात्र में अपने राम के दर्शन करते हैं। वह उनके चरणों में लोट गया।