गोदावरी नदी के तट पर महात्मा वेदधर्मजी का आश्रम था । उनके आश्रम में अलग-अलग स्थानों से वेद अध्ययन करने के लिए विद्यार्थी आते थे । उनके शिष्यों में संदीपक नाम का अत्यंत बुद्धिमान शिष्य था । वह गुरुभक्त भी था ।
वेदों का अभ्यास पूर्ण होने पर उन्होंने अपने सभी शिष्यों को बुलाया और कहा कि, ‘‘मेरे प्रिय शिष्यों, तुम सभी गुरुभक्त हो इसमें कोई संदेह नहीं है । मुझसे जितना हो सका उतना ज्ञान तुम सबको मैंने दिया है । परन्तु अब मेरे पूर्व जन्म के कर्मों के कारण आगे आनेवाले समय में मुझे कोढ होगा, मैं अंधा हो जाऊंगा, मेरे शरीर में कीडे पड जायेगे, मेरे शरीर से दुर्गंध आने लगेगी । इसलिए अब मैं यह आश्रम छोडकर जानेवाला हूं और अपने इस व्याधिकाल को काशी में निवास कर के व्यतीत करूंगा । मेरा प्रारब्ध समाप्त होने तक मैं वहीं रहूंगा । तो आप सभी में से कौन-कौन मेरे साथ आने के लिए तैयार है ?’’
गुरुदेवजी की यह बात सुनकर सारे शिष्य स्तब्ध रह गए । तभी संदीपक आगे आया और उसने कहा कि, ‘‘हे गुरुदेवजी, मैं प्रत्येक स्थिति में, प्रत्येक स्थान पर आपके साथ रहकर आपकी सेवा करने के लिए तैयार हूं ।’’
गुरुदेवजी बोले, ‘‘देखो संदीपक, मैं अंधा हो जाऊंगा, मेरी शरीर रोग के कारण कैसा होगा । तुम्हें मेरे लिए अत्यंत कष्ट झेलने पडेंगे । इसलिए सोच-समझकर बताओ ।
संदीपक ने कहा, ‘‘ हे गुरुदेवजी, मैं किसी भी प्रकार का कष्ट सहने के लिए मैं तैयार हुं । बस आप केवल मुझे आपके साथ चलने की अनुमति दीजिए ।
दूसरे दिन गुरु वेदधर्मजी संदीपक के साथ काशी जाने के लिए निकल पडे । काशी में कंवलेश्वर नाम के स्थान पर वे दोनों रहने लगे ।
कुछ ही दिनों में गुरु वेदधर्मजी के पूरे शरीर पर कोढ उभर आया, उसमें पस पडने लगा और कीडे भी पड गए । उनको आंखों से कुछ दिखाई भी नहीं देने लगा अर्थात वह अंधे हो गए । उनका स्वभाव चिडचिडा और विचित्र सा हो गया । जिस प्रकार गुरुदेवजी ने काशी आने से पहले बताया था, उसी प्रकार से उनकी स्थिति हो गई ।
संदीपक दिनरात बहुत लगन से गुरुदेवजी की सेवा करता । उनको स्नान करवाना, शरीर पर हुए जख्मों को साफ करना, उनपर औषधि लगाना, कपडे पहनाना, भोजन करवाना, यह सब वह करता था । तब भी गुरुदेवजी सदैव उसी पर चिडचिड करते रहते थे; परंतु संदीपक मन लगाकर उनकी सेवा करता रहता था । उसके मन में गुरुदेवजी के प्रति कभी कोई अनुचित प्रतिक्रिया नहीं आती थी ।
ये सारी सेवाएं करते-करते संदीपक की सारी वासनाएं अर्थात इच्छाएं नष्ट हो गई । उसकी बुद्धि में एक अलौकिक ज्ञान का प्रकाश फैल गया । वह कहने लगा, अपने मनानुसार साधना करोगे तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा । गुरुदेवजी की बताई राह पर चलोगे तो जीवन में कहीं नहीं भटकोगे ।
इस प्रकार गुरुदेवजी की सेवा करते करते अनेक वर्ष बीत गए । संदीपक की गुरुसेवा देखकर प्रत्यक्ष भगवान शिव उसके सामने प्रकट हो गए । उन्होंने कहा, ‘‘संदीपक, लोग काशी विश्वनाथ का दर्शन करने के लिए आते हैं; मैं तो स्वयं तुम्हारे पास बिना बुलाए आ गया हूं । तुम अपने गुरु की सेवा अत्यंत श्रद्धा और भाव से करते हो, उन गुरु के हृदय में मैं सोऽहं स्वरूप में निवास करता हूं । अर्थात तुम्हारे द्वारा की गई प्रत्येक सेवा मुझ तक पहुंचती है । मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूं, तुमको जो चाहिए वह वर तुम मुझसे मांग लो !’’
संदीपक ने नम्रतापूर्वक भगवान शिव से कहा कि, ‘‘हे प्रभु, आपकी प्रसन्नता ही मेरे लिए सबकुछ है । परन्तु भगवान शिवजी ने कहा कि, ‘‘ तुम्हें मुझसे कुछ तो मांगना ही पडेगा !’’
भगवान शिवजी के ऐसे वचन सुनकर संदीपक ने कहा कि, ‘‘हे महादेव, आप मुझपर प्रसन्न हो गए हैं, यह मेरा परमभाग्य है । परन्तु मैं अपने गुरुदेवजी की आज्ञा के बिना किसी से कुछ नहीं मांग सकता ।
भगवान बोले, ‘‘ ठीक है, तुम अपने गुरु से पूछकर आओ ।’’
संदीपक गुरुदेवजी के पास आया और उनसे बोला, ‘‘ हे गुरुदेवजी, आपकी कृपा से भगवान शंकर मुझपर प्रसन्न होकर मुझे वर देना चाहते हैं । यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आपका कोढ और अंधत्व दूर होने के लिए उनसे वर मांगू ?’’
यह सुनकर गुरुदेवजी को बहुत गुस्सा आ गया और वह बोले, ‘‘संदीपक, लगता है कि तुम मेरी सेवा करते-करते ऊब गए हो तथा मेरी सेवा टालना चाहते हो । मेरी सेवा करके थक गए हो इसलिए भीख मांग रहे हो ? शिवजी जो देंगे उससे मेरा प्रारब्ध तो नहीं बदलेगा ? चले जाओ, मैंने तो तुम्हें पहले ही मना किया था; परंतु तुम ही जिद करके मेरे साथ चले आए, चले जाओ ।
संदीपक दौडते हुए भगवान शिवजी के पास गया और उनसे बोला ‘हे भगवन, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए ।’, यह सुनकर भगवान शिवजी उसपर प्रसन्न हो गए, परन्तु उससे बोले, तुम अपने गुरु की इतनी सेवा करते हो; परंतु तुम्हारे गुरु तुम्हें ही इतना डांटते रहते हैं ?’’
अपने गुरुदेव की निंदा संदीपक को अच्छी नहीं लगी । वह बोला ‘केवल गुरुकृपा से ही शिष्य का भला होता है’ और उस स्थान को छोडकर वह गुरुदेव की सेवा करने के लिए चला गया ।
भगवान शिवजी ने यह बात भगवान श्री विष्णु को बताते हुए संदीपक की गुरुभक्ति का वर्णन किया । वह सुनकर भगवान श्री विष्णु ने भी संदीपक की परीक्षा ली और उसे वर मांगने के लिए कहा । संदीपक ने उनके चरण पकडकर कहा, ‘‘हे त्रिभुवन के अधिपति, गुरुकृपा से ही मुझे आपके दर्शन हुए हैं । गुरुचरणों में मेरी श्रद्धा सदैव बनी रहे और मुझसे उनकी अखंड सेवा होती रहे, यही वरदान मुझे दीजिए ।’
श्री विष्णु ने प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिया । जब महात्मा वेदधर्मजी को यह बात पता चली तब वह अतिप्रसन्न हो गए । उन्होंने संदीपक को गले से लगाया और आशीर्वाद देकर कहा, ‘‘वत्स, तुम ही मेरे सर्वश्रेष्ठ शिष्य हो । तुम्हें सारी सिद्धियां प्राप्त होंगी । ऋद्धि-सिद्धि तुम्हारे हृदय में निवास करेंगी । संदीपक ने कहा, ‘‘गुरुवर, आपके चरणों में ही मेरी ऋद्धि-सिद्धि हैं । आप केवल मुझे निरंतर आनंदावस्था में रहने का आशीर्वाद दीजिए ।’’
उसी समय महात्मा वेदधर्मजी का कोढ नष्ट हो गया । उनका शरीर पहले की तरह से कांतिमान हो गया । गुरुदेवने अपने इस प्रिय शिष्य के सत्व की परीक्षा लेकर उसे ब्रह्मविद्या का विशाल खजाना समर्पित किया ।