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काबुलीवाला

kabuliwala
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मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, “बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।” मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। “देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?” और फिर वह खेल में लग गई।

मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!”

कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी
दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।

काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, “बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?”

मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, “इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।” फिर मैं बाहर चला गया।

कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।

काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?”

रहमत हँसता हुआ कहता, “हाथी।” फिर वह मिनी से कहता, “तुम ससुराल कब जाओगी?”

इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, “तुम ससुराल कब जाओगे?”

रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, “हम ससुर को मारेगा।” इस पर मिनी खूब हँसती।

हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।

इतने में “काबुलीवाले, काबुलीवाले”, कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ”तुम ससुराल जाओगे?” रहमत ने हँसकर कहा, “हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।”

रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, “ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।”

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।

काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।

कई साल बीत गए।

आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।

मैंने पूछा, “क्यों रहमत कब आए?”

“कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ,” उसने बताया।

मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।”

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, “ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?”

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले” चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, “आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।”

वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “‘यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।”

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, ‘आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।’ फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।”

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया।

मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।”

Wish4me In English

meree paanch baras kee ladakee minee se ghadeebhar bhee bole bina nahin raha jaata. ek din vah savere-savere hee bolee, “baaboojee, raamadayaal darabaan hai na, vah kaak ko kaua kahata hai. vah kuchh jaanata nahin na, baaboojee.” mere kuchh kahane se pahale hee usane doosaree baat chhed dee. “dekho, baaboojee, bhola kahata hai – aakaash mein haathee soond se paanee phenkata hai, isee se varsha hotee hai. achchha baaboojee, bhola jhooth bolata hai, hai na?” aur phir vah khel mein lag gaee.

mera ghar sadak ke kinaare hai. ek din minee mere kamare mein khel rahee thee. achaanak vah khel chhodakar khidakee ke paas daudee gaee aur bade zor se chillaane lagee, “kaabuleevaale, o kaabuleevaale!”

kandhe par mevon kee jholee latakae, haath mein angoor kee pitaaree lie ek lamba sa kaabulee dheemee chaal se sadak par ja raha tha. jaise hee vah makaan kee or aane laga, minee jaan lekar bheetar bhaag gaee. use dar laga ki kaheen vah use pakad na le jae. usake man mein yah baat baith gaee thee ki kaabuleevaale kee jholee ke andar talaash karane par us jaise aur bhee
do-chaar bachche mil sakate hain.

kaabulee ne musakaraate hue mujhe salaam kiya. mainne usase kuchh sauda khareeda. phir vah bola, “baaboo saahab, aap kee ladakee kahaan gaee?”

mainne minee ke man se dar door karane ke lie use bulava liya. kaabulee ne jholee se kishamish aur baadaam nikaalakar minee ko dena chaaha par usane kuchh na liya. darakar vah mere ghutanon se chipat gaee. kaabulee se usaka pahala parichay is tarah hua. kuchh din baad, kisee zaruree kaam se main baahar ja raha tha. dekha ki minee kaabulee se khoob baaten kar rahee hai aur kaabulee musakaraata hua sun raha hai. minee kee jholee baadaam-kishamish se bharee huee thee. mainne kaabulee ko athannee dete hue kaha, “ise yah sab kyon de diya? ab mat dena.” phir main baahar chala gaya.

kuchh der tak kaabulee minee se baaten karata raha. jaate samay vah athannee minee kee jholee mein daalata gaya. jab main ghar lauta to dekha ki minee kee maan kaabulee se athannee lene ke kaaran us par khoob gussa ho rahee hai.

kaabulee pratidin aata raha. usane kishamish baadaam de-dekar minee ke chhote se hraday par kaafee adhikaar jama liya tha. donon mein bahut-bahut baaten hoteen aur ve khoob hansate. rahamat kaabulee ko dekhate hee meree ladakee hansatee huee poochhatee, “kaabuleevaale, o kaabuleevaale! tumhaaree jholee mein kya hai?”

rahamat hansata hua kahata, “haathee.” phir vah minee se kahata, “tum sasuraal kab jaogee?”

is par ulate vah rahamat se poochhatee, “tum sasuraal kab jaoge?”

rahamat apana mota ghoonsa taanakar kahata, “ham sasur ko maarega.” is par minee khoob hansatee.

har saal saradiyon ke ant mein kaabulee apane desh chala jaata. jaane se pahale vah sab logon se paisa vasool karane mein laga rahata. use ghar-ghar ghoomana padata, magar phir bhee pratidin vah minee se ek baar mil jaata.

ek din savere main apane kamare mein baitha kuchh kaam kar raha tha. theek usee samay sadak par bade zor ka shor sunaee diya. dekha to apane us rahamat ko do sipaahee baandhe lie ja rahe hain. rahamat ke kurte par khoon ke daag hain aur sipaahee ke haath mein khoon se sana hua chhura.

kuchh sipaahee se aur kuchh rahamat ke munh se suna ki hamaare pados mein rahane vaale ek aadamee ne rahamat se ek chaadar khareedee. usake kuchh rupe us par baakee the, jinhen dene se usane inakaar kar diya tha. bas, isee par donon mein baat badh gaee, aur kaabulee ne use chhura maar diya.

itane mein “kaabuleevaale, kaabuleevaale”, kahatee huee minee ghar se nikal aaee. rahamat ka chehara kshanabhar ke lie khil utha. minee ne aate hee poochha, tum sasuraal jaoge?” rahamat ne hansakar kaha, “haan, vaheen to ja raha hoon.”

rahamat ko laga ki minee usake uttar se prasann nahin huee. tab usane ghoonsa dikhaakar kaha, “sasur ko maarata par kya karun, haath bandhe hue hain.”

chhura chalaane ke aparaadh mein rahamat ko kaee saal kee saza ho gaee.

kaabulee ka khyaal dheere-dheere mere man se bilakul utar gaya aur minee bhee use bhool gaee.

kaee saal beet gae.

aaj meree minee ka vivaah hai. log aa-ja rahe hain. main apane kamare mein baitha hua kharch ka hisaab likh raha tha. itane mein rahamat salaam karake ek or khada ho gaya.

pahale to main use pahachaan hee na saka. usake paas na to jholee thee aur na chehare par pahale jaisee khushee. ant mein usakee or dhyaan se dekhakar pahachaana ki yah to rahamat hai.

mainne poochha, “kyon rahamat kab aae?”

“kal hee shaam ko jel se chhoota hoon,” usane bataaya.

mainne usase kaha, “aaj hamaare ghar mein ek jaruree kaam hai, main usamen laga hua hoon. aaj tum jao, phir aana.”

vah udaas hokar jaane laga. daravaaje ke paas rukakar bola, “zara bachchee ko nahin dekh sakata?”

shaayad use yahee vishvaas tha ki minee ab bhee vaisee hee bachchee banee huee hai. vah ab bhee pahale kee tarah “kaabuleevaale, o kaabuleevaale” chillaatee huee daudee chalee aaegee. un donon kee us puraanee hansee aur baatacheet mein kisee tarah kee rukaavat na hogee. mainne kaha, “aaj ghar mein bahut kaam hai. aaj usase milana na ho sakega.”

vah kuchh udaas ho gaya aur salaam karake daravaaze se baahar nikal gaya.

main soch hee raha tha ki use vaapas bulaoon. itane me vah svayan hee laut aaya aur bola, “yah thoda sa meva bachchee ke lie laaya tha. usako de deejiega.”

maine use paise dene chaahe par usane kaha, aapakee bahut meharabaanee hai baaboo saahab! paise rahane deejie. phir zara thaharakar bola, “aapakee jaisee meree bhee ek betee hain. main usakee yaad kar-karake aapakee bachchee ke lie thoda-sa meva le aaya karata hoon. main yahaan sauda bechane nahin aata.”

usane apane kurate kee jeb mein haath daalakar ek maila-kuchaila muda hua kaagaj ka tukada nikala aur bade jatan se usakee chaaron tah kholakar dono haathon se use phailaakar meree mej par rakh diya. dekha ki kaagaj ke us tukade par ek nanhen se haath ke chhote-se panje kee chhaap hain. haath mein thodee-see kaalikh lagaakar, kaagaz par usee kee chhaap le lee gaee thee. apanee betee is yaad ko chhaatee se lagaakar, rahamat har saal kalakatte ke galee-koochon mein sauda bechane ke lie aata hai.

dekhakar meree aankhen bhar aaeen. sabakuchh bhoolakar maine usee samay minee ko baahar bulaaya. vivaah kee pooree poshaak aur gahanen pahane minee sharam se sikudee mere paas aakar khadee ho gaee.

use dekhakar rahamat kaabulee pahale to sakapaka gaya. usase pahale jaisee baatacheet na karate bana. baad mein vah hansate hue bola, “lallee! saas ke ghar ja rahee hain kya?”

minee ab saas ka arth samajhane lagee thee. maare sharam ke usaka munh laal ho utha.

minee ke chale jaane par ek gaharee saans bharakar rahamat zameen par baith gaya. usakee samajh mein yah baat ekaek spasht ho uthee ki usakee betee bhee itane dinon mein badee ho gaee hogee. in aath varshon mein usaka kya hua hoga, kaun jaane? vah usakee yaad mein kho gaya.

maine kuchh rupe nikaalakar usake haath mein rakh die aur kaha, “rahamat! tum apanee betee ke paas desh chale jao.”

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