व्रत विधि | Kamada Ekadashi Vrat Vidhi
चैत्र शुक्ल पक्ष कि एकादशी तिथि में इस व्रत को करने से पहले कि रात्रि अर्थात व्रत के पहले दिन दशमी को जौ, गेहूं और मूंग की दाल आदि का भोजन नहीं करना चाहिए भोजन में नमक का प्रयोग करने से भी बचना चाहिए. और दशमी तिथि में भूमि पर ही शयन करना चाहिए. इस व्रत की अवधि 24 घंटे की होती है. दशमी तिथि के दिन से ही व्रत के नियमों का पालन करना चाहिए.
एकादशी व्रत करने के लिये व्यक्ति को प्रात: उठकर, शुद्ध मिट्टी से स्नान करना चाहिए. स्नान करने के लिये तिल और आंवले के लेप का प्रयोग भी किया जा सकता है. मिट्टी और तिल एक लेप से स्नान करने के बाद, भगवान श्री विष्णु जी की पूजा करनी चाहिए. सबसे पहले धान्य रख कर, धान्यों के ऊपर मिट्टी या तांबें का घडा रखा जाता है. घडे पर लाल वस्त्र बांध कर, धूप, दीप से पूजन करना चाहिए. और भगवान कि पूजा धूप, दीप, पुष्प की जाती है.
कामदा एकादशी व्रत कथा | Kamada Ekadashi Vrat Katha in Hindi
पुराने समय में पुण्डरीक नामक राजा था, उसकी भोगिनीपुर नाम कि नगरी थी. उसके खजाने सोने चांदी से भरे रह्ते थे. वहां पर अनेक अप्सरा, गंधर्व आदि वास करते थें. उसी जगह ललिता और ललित नाम के स्त्री-पुरुष अत्यन्त वैभवशाली घर में निवास करते थें. उन दोनों का एक-दूसरे से बहुत अधिक प्रेम था. कुछ समय ही दूर रहने से दोनों व्याकुल हो जाते थें.
एक समय राजा पुंडरिक गंधर्व सहित सभा में शोभायमान थे. उस जगह ललित गंधर्व भी उनके साथ गाना गा रहा था. उसकी प्रियतमा ललिता उस जगह पर नहीं थी. इससे ललित उसको याद करने लगा. ध्यान हटने से उसके गाने की लय टूट गई. यह देख कर राजा को क्रोध आ गया. ओर राजा पुंडरीक ने उसे श्राप दे दिया. मेरे सामने गाते हुए भी तू अपनी स्त्री का स्मरण कर रहा है. जा तू अभी से राक्षस हो जा, अपने कर्म के फल अब तू भोगेगा.
राजा पुण्डरीक के श्राप से वह ललित गंधर्व उसी समय विकराल राक्षस हो गया, उसका मुख भयानक हो गया. उसके नेत्र सूर्य, चन्द्र के समान लाल होने लग��ं. मुँह से अग्नि निकलने लगी. उसकी नाक पर्वत की कन्दरा के समान विशाल हो गई. और गर्दन पहाड के समान लगने लगी. उसके सिर के बाल पर्वत पर उगने वाले वृ्क्षों के समान दिखाई देने लगे़. उस की भुजायें, दो-दो योजन लम्बी हो गई. इस तरह उसका आठ योजन लम्बा शरीर हो गया. राक्षस हो जाने पर उसकों महान दु:ख मिलने लगा और अपने कर्म का फल वह भोगने लगा.
अपने प्रियतम का जब ललिता ने यह हाल देख तो वह बहुत दु;खी हुई. अपने पति के उद्वार करने के लिये वह विचार करने लगी. एक दिन वह अपने पति के पीछे घूमते-घूमते विन्धाजल पर्वत पर चली गई. उसने उस जगह पर एक ऋषि का आश्रम देखा. वह शीघ्र ही उस ऋषि के सम्मुख गई. और ऋषि से विनती करने लगी.
उसे देख कर ऋषि बोले की हे कन्या तुम कौन हो, और यहां किसलिये आई हों, ललिता बोली, हे मुनि, मैं गंधर्व कन्या ललिता हूं, मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से एक भयानक राक्षस हो गया है. इस कारण मैं बहुत दु:खी हूं. मेरे पति के उद्वार का कोई उपाय बताईये.
इस पर ऋषि बोले की हे, गंधर्व कन्या शीघ्र ही चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी आने वाली है. उस एकादशी के व्रत का पालन करने से, तुम्हारे पति को इस श्राप से मुक्ति मिलेगी. मुनि की यह बात सुनकर, ललिता ने आनन्द पूर्वक उसका पालन किया. और द्वादशी के दिन ब्राह्मणों के सामने अपने व्रत का फल अपने पति को दे दिया, और भगवान से प्रार्थना करने लगी.
हे प्रभो, मैनें जो यह व्रत किया है, उसका फल मेरे पति को मिलें, जिससे वह इस श्राप से मुक्त हों. एकादशी का फल प्राप्त होते ही, उसका पति राक्षस योनि से छुट गया. और अपने पुराने रुप में वापस आ गया. इस प्रकार इस वर को करने से व्यक्ति के समस्त पाप नष्ट हो जाते है.
- कामदाएकादशी
युधिष्ठिर ने पूछा: वासुदेव ! आपको नमस्कार है ! कृपया आप यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है?
भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वशिष्ठजी ने राजा दिलीप के पूछने पर कहा था ।
वशिष्ठजी बोले: राजन् ! चैत्र शुक्लपक्ष में ‘कामदा’ नाम की एकादशी होती है । वह परम पुण्यमयी है । पापरुपी ईँधन के लिए तो वह दावानल ही है ।
प्राचीन काल की बात है: नागपुर नाम का एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोने के महल बने हुए थे । उस नगर में पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास करते थे । पुण्डरीक नाम का नाग उन दिनों वहाँ राज्य करताथा । गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरी का सेवन करती थीं । वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था । उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था । वे दोनों पति पत्नी के रुप में रहते थे ।दोनों ही परस्पर काम से पीड़ित रहा करते थे । ललिता के हृदय में सदा पति की ही मूर्ति बसी रहती थी और ललित के हृदय में सुन्दरी ललिता का नित्य निवास था ।
एक दिन की बात है । नागराज पुण्डरीक राजसभा में बैठकर मनोरंजन कर रहा था । उस समय ललित का गान हो रहा था किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी । गाते-गाते उसे ललिता का स्मरण होआया । अत: उसके पैरों की गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लगी ।
नागों में श्रेष्ठ कर्कोटक को ललित के मन का सन्ताप ज्ञात हो गया, अत: उसने राजा पुण्डरीक को उसके पैरों की गति रुकने और गान में त्रुटि होने की बात बता दी । कर्कोटक की बात सुनकर नागराज पुण्डरीककी आँखे क्रोध से लाल हो गयीं । उसने गाते हुए कामातुर ललित को शाप दिया : ‘दुर्बुद्धे ! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नी के वशीभूत हो गया, इसलिए राक्षस हो जा ।’
महाराज पुण्डरीक के इतना कहते ही वह गन्धर्व राक्षस हो गया । भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजानेवाला रुप – ऐसा राक्षस होकर वह कर्म का फल भोगने लगा ।
ललिता अपने पति की विकराल आकृति देख मन ही मन बहुत चिन्तित हुई । भारी दु:ख से वह कष्ट पाने लगी । सोचने लगी: ‘क्या करुँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पाप से कष्ट पा रहे हैं…’
वह रोती हुई घने जंगलों में पति के पीछे-पीछे घूमने लगी । वन में उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक मुनि शान्त बैठे हुए थे । किसी भी प्राणी के साथ उनका वैर विरोध नहीं था । ललिता शीघ्रता केसाथ वहाँ गयी और मुनि को प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई । मुनि बड़े दयालु थे । उस दु:खिनी को देखकर वे इस प्रकार बोले : ‘शुभे ! तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच-सच बताओ ।’
ललिता ने कहा: महामुने ! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं । मैं उन्हीं महात्मा की पुत्री हूँ । मेरा नाम ललिता है । मेरे स्वामी अपने पाप दोष के कारण राक्षस हो गये हैं । उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैननहीं है । ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्त्तव्य हो, वह बताइये । विप्रवर! जिस पुण्य के द्वारा मेरे पति राक्षसभाव से छुटकारा पा जायें, उसका उपदेश कीजिये ।
ॠषि बोले: भद्रे ! इस समय चैत्र मास के शुक्लपक्ष की ‘कामदा’ नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है । तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व्रत का जो पुण्य हो, उसे अपनेस्वामी को दे डालो । पुण्य देने पर क्षणभर में ही उसके शाप का दोष दूर हो जायेगा ।
राजन् ! मुनि का यह वचन सुनकर ललिता को बड़ा हर्ष हुआ । उसने एकादशी को उपवास करके द्वादशी के दिन उन ब्रह्मर्षि के समीप ही भगवान वासुदेव के (श्रीविग्रह के) समक्ष अपने पति के उद्धार के लिए यहवचन कहा: ‘मैंने जो यह ‘कामदा एकादशी’ का उपवास व्रत किया है, उसके पुण्य के प्रभाव से मेरे पति का राक्षसभाव दूर हो जाय ।’
वशिष्ठजी कहते हैं: ललिता के इतना कहते ही उसी क्षण ललित का पाप दूर हो गया । उसने दिव्य देह धारण कर लिया । राक्षसभाव चला गया और पुन: गन्धर्वत्व की प्राप्ति हुई ।
नृपश्रेष्ठ ! वे दोनों पति पत्नी ‘कामदा’ के प्रभाव से पहले की अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रुप धारण करके विमान पर आरुढ़ होकर अत्यन्त शोभा पाने लगे । यह जानकर इस एकादशी के व्रत का यत्नपूर्वक पालनकरना चाहिए ।
मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इस व्रत का वर्णन किया है । ‘कामदा एकादशी’ ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का नाश करनेवाली है । राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञका फल मिलता है ।