दूरस्थ वन में एक ऊँचे पेड़ की खोह में कपिंजल नामक तीतर का निवास था. कई वर्षों से वह वहाँ आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था.
एक दिन भोजन की ख़ोज में वह अपना खोह छोड़ निकला और एक हरे-भरे खेत में पहुँच गया. वहाँ हरी-भरी कोपलें देख उसका मन ललचा गया और उसने कुछ दिन उसी खेत में रहने का निर्णय किया. कोपलों से रोज़ अपना पेट भरने के पश्चात् वह वहीं सोने लगा.
कुछ ही दिनों में खेत की हरी-भरी कोपलें खाकर कपिंजल मोटा-ताज़ा हो गया. किंतु पराया स्थान पराया ही होता है. उसे अपने खोह की याद सताने लगी. वापसी का मन बना वह अपने खोह की ओर चल पड़ा.
खोह पहुँचकर उसने वहाँ एक ख़रगोश को वास करते हुए पाया. कपिंजल की अनुपस्थिति में एक दिन ‘शीघ्रको’ नामक ख़रगोश उस पेड़ पर आया और खाली खोह देख वहीं मज़े से रहने लगा.
अपने खोह में शीघ्रको का कब्ज़ा देख कपिंजल क्रोधित हो गया. उसे भगाते हुए वह बोला, “चोर, तुम मेरे खोह में क्या कर रहे हो? मैं कुछ दिन बाहर क्या गया, तुमने इसे अपना निवास बना लिया. अब मैं वापस आ गया हूँ. चलो भागो यहाँ से.”
किंतु शीघ्रको टस से मस नहीं हुआ और अकड़कर बोला, “तुम्हारा खोह? कौन सा? अब यहाँ मैं रहता हूँ. ये मेरा निवास है. इसे छोड़कर जाने के उपरांत तुम इस पर से अपना अधिकार खो चुके हो. इसलिये तुम यहाँ से भागो.”
कपिंजल ने कुछ देर विचार किया. उसे शीघ्रको से विवाद बढ़ाने में कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ा. वह बोला, “हमें इस विवाद के निराकरण के लिए किसी मध्यस्थ के पास चलना चाहिए. अन्यथा यह बिना परिणाम के बढ़ता ही चला जायेगा. मध्यस्थ हम दोनों का पक्ष सुनने के पश्चात जो भी निर्णय देगा, हम उसे स्वीकार कर लेंगे.”
शीघ्रको को भी कपिंजल की बात उचित प्रतीत हुई और दोनों मध्यस्थ की खोज में निकल पड़े.
जब कपिंजल और शीघ्रको में मध्य ये वार्तालाप चल रहा था, ठीक उसी समय एक जंगली बिल्ली वहाँ से गुजर रही थी. उसने दोनों की बातें सुन ली और सोचा क्यों ना स्थिति का लाभ उठाते हुए मैं इन दोनों की मध्यस्थ बन जाऊं. जैसे ही अवसर मिलेगा, मैं इन्हें मारकर खा जाऊंगी.
वह तुरंत पास बहती एक नदी के किनारे माला लेकर बैठ गई और सूर्य की ओर मुख कर ऑंखें बंद कर धर्मपाठ करने का दिखावा करने लगी.
कपिंजल और शीघ्रको मध्यस्थ की खोज करते-करते नदी किनारे पहुँचे. धर्मपाठ करती बिल्ली को देख उन्होंने सोचा कि ये अवश्य कोई धर्मगुरु है. न्याय के लिए उन्हें उससे परामर्श लेना उचित प्रतीत हुआ.
वे कुछ दूरी पर खड़े हो गए और बिल्ली को अपनी समस्या बताकर अनुनय करने लगे, “गुरूवर, कृपया हमारे विवाद का निपटारा कर दीजिये. हमें विश्वास है कि आप जैसे धर्मगुरू का निर्णय धर्म के पक्ष में ही होगा. इसलिए आपका निर्णय हर स्थिति में हमें स्वीकार्य है. हममें से जिसका भी पक्ष धर्म विरूद्ध हुआ, वो आपका आहार बनने के लिए तैयार रहेगा.”
अनुनय सुन धर्मगुरू बनी पाखंडी बिल्ली ने आँखें खोल ली और बोली, “राम राम ! कैसी बातें करते हो? हिंसा का मार्ग त्याग कर मैंने धर्म का मार्ग अपना लिया है. इसलिए मैं हिंसा नहीं करूंगी. किंतु तुम्हारे विवाद का निराकरण कर तुम्हारी सहायता अवश्य करूंगी. मैं वृद्ध हो चुकी हूँ और मेरी श्रवण शक्ति क्षीण हो चुकी है. इसलिए मेरे निकट आकर मुझे अपना-अपना पक्ष बताओ.”
पाखंडी बिल्ली की चिकनी-चुपड़ी बातों पर कपिंजल और शीघ्रको विश्वास कर बैठे और अपना पक्ष बताने उसके निकट पहुँच गये. निकट पहुँचते ही पाखंडी बिल्ली ने शीघ्रको को पंजे में दबोच लिया और कपिंजल को अपने मुँह में दबा लिया. कुछ ही देर में दोनों को सफाचट कर पाखंडी बिल्ली वहाँ से चलती बनी.
सीख (Moral Of The Cunning Cat Story)
अपनी शत्रु पर कभी भी आँख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए. परिणाम घातक हो सकता है.