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क्रोध ने हमको बांधा हैं या हमने क्रोध को !!

एक  बार एक व्यक्ति एक महात्मा के पास गया और उसने उस महात्मा से कहा कि हे ! महात्मा मुझे बहुत क्रोध आता हैं | कृपया कोई उपाय बताये | तब महत्मा ने धीरे से मुस्कुरा कर हाथ आगे बढाया और अपने हाथ की मुट्ठी बांधकर कहा – हे भाई ! मेरी यह मुठ्ठी बंद हो गई हैं खुल नहीं रही हैं | तब उस व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा हे महात्मा| आपने ही यह मुठ्ठी बाँधी हैं आप खुद ही इसे खोल सकते हैं |

तब महात्मा ने मुस्कुराकर कहा हे भाई ! जब यह मुठ्ठी मुझे बांधकर नहीं रख सकती तब क्रोध तुम्हे कैसे बाँध सकता हैं मन के जिस कोने में क्रोध को पकड़ रखा हैं उसे वहाँ से जाने दो | मन में उसे बैठाकर नहीं रखोगे तो उससे दूर करने का उपाय भी नहीं पूछना होगा |

बुराई खुद जन्म नहीं लेती | हमारा मन ही उसे जगह देता हैं | जब हम अच्छा बुरा जानते हैं तब उन्हें अपने अन्दर पनपने से भी रोक सकते हैं | जैसे एक शराबी जानता हैं कि शराब पीने से उसका कोई लाभ नहीं | बल्कि भविष्य में उससे उसे तकलीफ ही होगी |तो क्या वह अपने आपको इस बुराई से दूर नहीं कर सकता ?

बुराई को जान कर पाल कर रखना, रखने वाले की गलती होती हैं बुराई की नहीं |

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