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कहानी एक बूढ़ी लाचार उदास माँ की

एक आलीशान से बँगले के बड़े से लिविंग रूम में
वाल पेंटिंग के जैसे शानदार स्मार्ट टी वी दीवार पर टंगा है
और लाइव आ रहा है आई पी ऐल का फाइनल
रोमांच है कि हर गेंद के साथ बस बढ़ता ही चला जा रहा है
लिपे पुते चेहरों पर तनाव है ख़िझ है और है ग़ुस्सा सा भी
तो है कभी कभार राहत भी सुकून सा भी और स्माइल बहुत सारी
हर एक गेंद के साथ हाथ स्नैकस की ओर बढ़ते हैं
और कोला के कुछ घूँट चिल्लाहट से सूख चुके हल्क़ को
तर करने के लिए बार बार बढ़े चले आते हैं
कोई ध्यान ही नहीं है किसी का उस एक कमरे की ज़ानिब
कि हर पल ढलते हुए जीवन में कोई थक हार चुका है…
और उसी बंगले के किसी एक कमरे के कोने में
एक चारपाई पर लेटी हुई है लाचार हो चली माँ
एकटक हो देख रही है दरवाज़े की ओर
गड्ढों में धंसी आँखों के कोर हैं भीगे हुए
इस आस से कि कोई इस ओर भी आएगा
प्यास से सूख चुके हल्क़ को
दो बूँद ज़िंदगी की पिला जाएगा
कोशिश है एक आवाज़ लगाने की अपने से चेहरों को
पर माँ की दबी दबी सी मरी हुई सी आवाज़
लिविंग रूम से आ रही चीखती चिल्लाती आवाज़ों में
रह रह कर दबी घुटी सी जा रही है…
हाँ के अब बेबस और लाचार हो चली है माँ
हाथों पैरों से थक हार चली है माँ
दोनों हाथों से अपना जहाँ लुटाने वाली माँ
बस थोड़े से ही लाढ़ प्यार को तरस चली है माँ
अपनों के बीच ही बेगानी सी हो चली है माँ
कोख़ से जिनकों जन्मा था बड़ी उम्मीदों से
उन्हीं अपने जनो से बेउम्मीद हो चली है माँ
सोच रही है के ‘प्रकाश’ कहता है इस जग को मिथ्या
‘प्रकाश’ की कही बात से अब रूबरू हो चली माँ
सच ही में तो ये नश्वर जग है मिथ्या
इस जगती को अब “मिथ्या जग” मान चुकी है माँ


(💐✍️🙏: – सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक स्वरचित काव्य रचना ©

प्रकाश रवि गर्ग,

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