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जीवन मिथ्या, मृत्यु मिथक; फिर सत्य क्या है!!

जीवन में दो बड़े सत्य हैं, जन्म और मृत्यु। दोनों के मध्य अनंत कार्य हैं उनमें से एक है प्रेम। जन्म भी कई बार झूठा लगता है क्योंकि हम बार-बार जन्मते हैं। आत्मा सिर्फ शरीर बदलती है, नया वस्त्र ले लेती है। तो फिर इसे नया जन्म क्यों मानें, जन्म का रूप परिवर्तन क्यों न कहें !! इस जन्म के पहले भी तो हम थे!! थे न!!

तो जब जन्म झूठा हुआ तो ऐसी ही झूठ मृत्यु भी हो जाएगी। कोई कहेगा ये क्या बकवास है! एक मिनट को सोचकर देखें। शरीर त्याग देना ही केवल मृत्यु तो नहीं? यदि मृत्यु ये ही है तो भी हम बार-बार मरते हैं। हज़ार बार हम मरे हैं। इस तरह तो हम मरकर भी मरे कहाँ? फिर से चले आये इस मृत्यु लोक में। मृत्यु होती है, मगर मरता कौन है? न कोई जन्मता है, न कोई मरता है।

जन्म के पहले भी हम थे, मृत्यु के बाद भी हम रहते हैं। न जन्म पक्का न मृत्यु फिर भी दोनों सत्य। जन्म और मृत्यु के बीच की सांसारिक अवधि को जीवन मान लिया जाए पर जीवन खुद को जीवन कब मानेगा! जब उसमें भरा होगा भरपूर प्रेम, एकदम लबालब। जो जन्म के पहले है और मृत्यु के बाद भी हो। प्रेम है द्वार परमात्मा का।

ये उस प्रेम की बात है जिसकी बात कबीर, मीरा, चैतन्य कर रहे हैं। एक प्रेम है जो कामना नहीं है जो वासना नहीं है। एक प्रेम है जो प्रार्थना है, प्रेम की वह ऊंचाई जहाँ प्रेम अर्चना, आराधना बन जाता है, उससे ही खुलता है द्वार प्रभु का।

जागें जन्म से, जागें मृत्यु से, जागें प्रेम में, झूठ से जागें ताकि सत्य को देख सकें और याद रहे प्रेम, सत्य, धर्म और परमात्मा पर्यायवाची हैं। प्रेम बस प्रभु से, आत्मा से क्यों प्रेम करना, करना है तो परमात्मा से करें। यही जीवन का सारतत्व है।
।।नारायण-नारायण।।

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