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मिठाईवाला

mitaiwala
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बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता – “बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।”

इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र किन्तु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर हो उठते। उनके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ उपयुक्त गान सुनकर निकट के मकानों में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अन्तर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर खिलौने की पेटी खोल देता।

बच्चे खिलौने देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोल-भाव करने लगते। पूछते – “इछका दाम क्या है, औल इछका? औल इछका?” खिलौनेवाला बच्चों को देखता, और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता, और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब फिर खिलौनेवाला उसी प्रकार गाकर कहता – “बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।” सागर की हिलोर की भाँति उसका यह मादक गान गली भर के मकानों में इस ओर से उस ओर तक, लहराता हुआ पहुँचता, और खिलौनेवाला आगे बढ़ जाता।

राय विजयबहादुर के बच्चे भी एक दिन खिलौने लेकर घर आए! वे दो बच्चे थे – चुन्नू और मुन्नू! चुन्नू जब खिलौने ले आया, तो बोला – “मेला घोला कैछा छुन्दल ऐ?”

मुन्नू बोला – “औल देखो, मेला कैछा छुन्दल ऐ?”

दोनों अपने हाथी-घोड़े लेकर घर भर में उछलने लगे। इन बच्चों की माँ रोहिणी कुछ देर तक खड़े-खड़े उनका खेल निरखती रही। अन्त में दोनों बच्चों को बुलाकर उसने पूछा – “अरे ओ चुन्नू – मुन्नू, ये खिलौने तुमने कितने में लिए है?”

मुन्नू बोला – “दो पैछे में! खिलौनेवाला दे गया ऐ।”

रोहिणी सोचने लगी – इतने सस्ते कैसे दे गया है? कैसे दे गया है, यह तो वही जाने। लेकिन दे तो गया ही है, इतना तो निश्चय है!

एक जरा-सी बात ठहरी। रोहिणी अपने काम में लग गई। फिर कभी उसे इस पर विचार की आवश्यकता भी भला क्यों पड़ती।

2

छह महीने बाद।

नगर भर में दो-चार दिनों से एक मुरलीवाले के आने का समाचार फैल गया। लोग कहने लगे – “भाई वाह! मुरली बजाने में वह एक ही उस्ताद है। मुरली बजाकर, गाना सुनाकर वह मुरली बेचता भी है सो भी दो-दो पैसे भला, इसमें उसे क्या मिलता होगा। मेहनत भी तो न आती होगी!”

एक व्यक्ति ने पूछ लिया – “कैसा है वह मुरलीवाला, मैंने तो उसे नही देखा!”

उत्तर मिला – “उम्र तो उसकी अभी अधिक न होगी, यही तीस-बत्तीस का होगा। दुबला-पतला गोरा युवक है, बीकानेरी रंगीन साफा बाँधता है।”

“वही तो नहीं, जो पहले खिलौने बेचा करता था?”

“क्या वह पहले खिलौने भी बेचा करता था?’

“हाँ, जो आकार-प्रकार तुमने बतलाया, उसी प्रकार का वह भी था।”

“तो वही होगा। पर भई, है वह एक उस्ताद।”

प्रतिदिन इसी प्रकार उस मुरलीवाले की चर्चा होती। प्रतिदिन नगर की प्रत्येक गली में उसका मादक, मृदुल स्वर सुनाई पड़ता – “बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला।”

रोहिणी ने भी मुरलीवाले का यह स्वर सुना। तुरन्त ही उसे खिलौनेवाले का स्मरण हो आया। उसने मन ही मन कहा – “खिलौनेवाला भी इसी तरह गा-गाकर खिलौने बेचा करता था।”

रोहिणी उठकर अपने पति विजय बाबू के पास गई – “जरा उस मुरलीवाले को बुलाओ तो, चुन्नू-मुन्नू के लिए ले लूँ। क्या पता यह फिर इधर आए, न आए। वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए है।”

विजय बाबू एक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उसी तरह उसे लिए हुए वे दरवाजे पर आकर मुरलीवाले से बोले – “क्यों भई, किस तरह देते हो मुरली?”

किसी की टोपी गली में गिर पड़ी। किसी का जूता पार्क में ही छूट गया, और किसी की सोथनी (पाजामा) ही ढीली होकर लटक आई है। इस तरह दौड़ते-हाँफते हुए बच्चों का झुण्ड आ पहुँचा। एक स्वर से सब बोल उठे – “अम बी लेंदे मुल्ली, और अम बी लेंदे मुल्ली।”

मुरलीवाला हर्ष-गद्गद हो उठा। बोला – “देंगे भैया! लेकिन जरा रुको, ठहरो, एक-एक को देने दो। अभी इतनी जल्दी हम कहीं लौट थोड़े ही जाएँगे। बेचने तो आए ही हैं, और हैं भी इस समय मेरे पास एक-दो नहीं, पूरी सत्तावन।… हाँ, बाबूजी, क्या पूछा था आपने कितने में दीं!… दी तो वैसे तीन-तीन पैसे के हिसाब से है, पर आपको दो-दो पैसे में ही दे दूँगा।”

विजय बाबू भीतर-बाहर दोनों रूपों में मुस्करा दिए। मन ही मन कहने लगे – कैसा है। देता तो सबको इसी भाव से है, पर मुझ पर उलटा एहसान लाद रहा है। फिर बोले – “तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत होती है। देते होगे सभी को दो-दो पैसे में, पर एहसान का बोझा मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।”

मुरलीवाला एकदम अप्रतिभ हो उठा। बोला – “आपको क्या पता बाबू जी कि इनकी असली लागत क्या है। यह तो ग्राहकों का दस्तूर होता है कि दुकानदार चाहे हानि उठाकर चीज क्यों न बेचे, पर ग्राहक यही समझते हैं – दुकानदार मुझे लूट रहा है। आप भला काहे को विश्वास करेंगे? लेकिन सच पूछिए तो बाबूजी, असली दाम दो ही पैसा है। आप कहीं से दो पैसे में ये मुरलियाँ नहीं पा सकते। मैंने तो पूरी एक हजार बनवाई थीं, तब मुझे इस भाव पड़ी हैं।”

विजय बाबू बोले – “अच्छा, मुझे ज्यादा वक्त नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल दो।”

दो मुरलियाँ लेकर विजय बाबू फिर मकान के भीतर पहुँच गए। मुरलीवाला देर तक उन बच्चों के झुण्ड में मुरलियाँ बेचता रहा। उसके पास कई रंग की मुरलियाँ थीं। बच्चे जो रंग पसन्द करते, मुरलीवाला उसी रंग की मुरली निकाल देता।

“यह बड़ी अच्छी मुरली है। तुम यही ले लो बाबू, राजा बाबू तुम्हारे लायक तो बस यह है। हाँ भैए, तुमको वही देंगे। ये लो।… तुमको वैसी न चाहिए, यह नारंगी रंग की, अच्छा वही लो।…. ले आए पैसे? अच्छा, ये लो तुम्हारे लिए मैंने पहले ही निकाल रखी थी…! तुमको पैसे नहीं मिले। तुमने अम्मा से ठीक तरह माँगे न होंगे। धोती पकड़कर पैरों में लिपटकर, अम्मा से पैसे माँगे जाते हैं बाबू! हाँ, फिर जाओ। अबकी बार मिल जाएँगे…। दुअन्नी है? तो क्या हुआ, ये लो पैसे वापस लो। ठीक हो गया न हिसाब?….मिल गए पैसे? देखो, मैंने तरकीब बताई! अच्छा अब तो किसी को नहीं लेना है? सब ले चुके? तुम्हारी माँ के पैसे नहीं हैं? अच्छा, तुम भी यह लो। अच्छा, तो अब मैं चलता हूँ।”

इस तरह मुरलीवाला फिर आगे बढ़ गया।

3

आज अपने मकान में बैठी हुई रोहिणी मुरलीवाले की सारी बातें सुनती रही। आज भी उसने अनुभव किया, बच्चों के साथ इतने प्यार से बातें करनेवाला फेरीवाला पहले कभी नहीं आया। फिर यह सौदा भी कैसा सस्ता बेचता है! भला आदमी जान पड़ता है। समय की बात है, जो बेचारा इस तरह मारा-मारा फिरता है। पेट जो न कराए, सो थोड़ा!

इसी समय मुरलीवाले का क्षीण स्वर दूसरी निकट की गली से सुनाई पड़ा – “बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला!”

रोहिणी इसे सुनकर मन ही मन कहने लगी – और स्वर कैसा मीठा है इसका!

बहुत दिनों तक रोहिणी को मुरलीवाले का वह मीठा स्वर और उसकी बच्चों के प्रति वे स्नेहसिक्त बातें याद आती रहीं। महीने के महीने आए और चले गए। फिर मुरलीवाला न आया। धीरे-धीरे उसकी स्मृति भी क्षीण हो गई।

4

आठ मास बाद –

सर्दी के दिन थे। रोहिणी स्नान करके मकान की छत पर चढ़कर आजानुलंबित केश-राशि सुखा रही थी। इसी समय नीचे की गली में सुनाई पड़ा – “बच्चों को बहलानेवाला, मिठाईवाला।”

मिठाईवाले का स्वर उसके लिए परिचित था, झट से रोहिणी नीचे उतर आई। उस समय उसके पति मकान में नहीं थे। हाँ, उनकी वृद्धा दादी थीं। रोहिणी उनके निकट आकर बोली – “दादी, चुन्नू-मुन्नू के लिए मिठाई लेनी है। जरा कमरे में चलकर ठहराओ। मैं उधर कैसे जाऊँ, कोई आता न हो। जरा हटकर मैं भी चिक की ओट में बैठी रहूँगी।”

दादी उठकर कमरे में आकर बोलीं – “ए मिठाईवाले, इधर आना।”

मिठाईवाला निकट आ गया। बोला – “कितनी मिठाई दूँ, माँ? ये नए तरह की मिठाइयाँ हैं – रंग-बिरंगी, कुछ-कुछ खट्टी, कुछ-कुछ मीठी, जायकेदार, बड़ी देर तक मुँह में टिकती हैं। जल्दी नहीं घुलतीं। बच्चे बड़े चाव से चूसते हैं। इन गुणों के सिवा ये खाँसी भी दूर करती हैं! कितनी दूँ? चपटी, गोल, पहलदार गोलियाँ हैं। पैसे की सोलह देता हूँ।”

दादी बोलीं – “सोलह तो बहुत कम होती हैं, भला पचीस तो देते।”

मिठाईवाला – “नहीं दादी, अधिक नहीं दे सकता। इतना भी देता हूँ, यह अब मैं तुम्हें क्या… खैर, मैं अधिक न दे सकूँगा।”

रोहिणी दादी के पास ही थी। बोली – “दादी, फिर भी काफी सस्ता दे रहा है। चार पैसे की ले लो। यह पैसे रहे।

मिठाईवाला मिठाइयाँ गिनने लगा।

“तो चार की दे दो। अच्छा, पच्चीस नहीं सही, बीस ही दो। अरे हाँ, मैं बूढ़ी हुई मोल-भाव अब मुझे ज्यादा करना आता भी नहीं।”

कहते हुए दादी के पोपले मुँह से जरा-सी मुस्कराहरट फूट निकली।

रोहिणी ने दादी से कहा – “दादी, इससे पूछो, तुम इस शहर में और भी कभी आए थे या पहली बार आए हो? यहाँ के निवासी तो तुम हो नहीं।”

दादी ने इस कथन को दोहराने की चेष्टा की ही थी कि मिठाईवाले ने उत्तर दिया – “पहली बार नहीं, और भी कई बार आ चुका है।”

रोहिणी चिक की आड़ ही से बोली – “पहले यही मिठाई बेचते हुए आए थे, या और कोई चीज लेकर?”

मिठाईवाला हर्ष, संशय और विस्मयादि भावों मे डूबकर बोला – “इससे पहले मुरली लेकर आया था, और उससे भी पहले खिलौने लेकर।”

रोहिणी का अनुमान ठीक निकला। अब तो वह उससे और भी कुछ बातें पूछने के लिए अस्थिर हो उठी। वह बोली – “इन व्यवसायों में भला तुम्हें क्या मिलता होगा?”

वह बोला – “मिलता भला क्या है! यही खाने भर को मिल जाता है। कभी नहीं भी मिलता है। पर हाँ; सन्तोष, धीरज और कभी-कभी असीम सुख जरूर मिलता है और यही मैं चाहता भी हूँ।”

“सो कैसे? वह भी बताओ।”

“अब व्यर्थ उन बातों की क्यों चर्चा करुँ? उन्हें आप जाने ही दें। उन बातों को सुनकर आप को दु:ख ही होगा।”

“जब इतना बताया है, तब और भी बता दो। मैं बहुत उत्सुक हूँ। तुम्हारा हर्जा न होगा। मिठाई मैं और भी कुछ ले लूँगी।”

अतिशय गम्भीरता के साथ मिठाईवाले ने कहा – “मैं भी अपने नगर का एक प्रतिष्ठित आदमी था। मकान-व्यवसाय, गाड़ी-घोड़े, नौकर-चाकर सभी कुछ था। स्त्री थी, छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे। मेरा वह सोने का संसार था। बाहर संपत्ति का वैभव था, भीतर सांसारिक सुख था। स्त्री सुन्दरी थी, मेरी प्राण थी। बच्चे ऐसे सुन्दर थे, जैसे सोने के सजीव खिलौने। उनकी अठखेलियों के मारे घर में कोलाहल मचा रहता था। समय की गति! विधाता की लीला। अब कोई नहीं है। दादी, प्राण निकाले नहीं निकले। इसलिए अपने उन बच्चों की खोज में निकला हूँ। वे सब अन्त में होंगे, तो यहीं कहीं। आखिर, कहीं न जन्मे ही होंगे। उस तरह रहता, घुल-घुल कर मरता। इस तरह सुख-संतोष के साथ मरूँगा। इस तरह के जीवन में कभी-कभी अपने उन बच्चों की एक झलक-सी मिल जाता है। ऐसा जान पड़ता है, जैसे वे इन्हीं में उछल-उछलकर हँस-खेल रहे हैं। पैसों की कमी थोड़े ही है, आपकी दया से पैसे तो काफी हैं। जो नहीं है, इस तरह उसी को पा जाता हूँ।”

रोहिणी ने अब मिठाईवाले की ओर देखा – उसकी आँखें आँसुओं से तर हैं।

इसी समय चुन्नू-मुन्नू आ गए। रोहिणी से लिपटकर, उसका आँचल पकड़कर बोले – “अम्माँ, मिठाई!”

“मुझसे लो।” यह कहकर, तत्काल कागज की दो पुड़ियाँ, मिठाइयों से भरी, मिठाईवाले ने चुन्नू-मुन्नू को दे दीं!

रोहिणी ने भीतर से पैसे फेंक दिए।

मिठाईवाले ने पेटी उठाई, और कहा – “अब इस बार ये पैसे न लूँगा।”

दादी बोली – “अरे-अरे, न न, अपने पैसे लिए जा भाई!”

तब तक आगे फिर सुनाई पड़ा उसी प्रकार मादक-मृदुल स्वर में – “बच्चों को बहलानेवाला मिठाईवाला।”

wish4me In English

bahut hee meethe svaron ke saath vah galiyon mein ghoomata hua kahata – “bachchon ko bahalaanevaala, khilaunevaala.”

is adhoore vaaky ko vah aise vichitr kintu maadak-madhur dhang se gaakar kahata ki sunanevaale ek baar asthir ho uthate. unake snehaabhishikt kanth se phoota hua upayukt gaan sunakar nikat ke makaanon mein halachal mach jaatee. chhote-chhote bachchon ko apanee god mein lie yuvatiyaan chikon ko uthaakar chhajjon par neeche jhaankane lagateen. galiyon aur unake antarvyaapee chhote-chhote udyaanon mein khelate aur ithalaate hue bachchon ka jhund use gher leta aur tab vah khilaunevaala vaheen baithakar khilaune kee petee khol deta.

bachche khilaune dekhakar pulakit ho uthate. ve paise laakar khilaune ka mol-bhaav karane lagate. poochhate – “ichhaka daam kya hai, aul ichhaka? aul ichhaka?” khilaunevaala bachchon ko dekhata, aur unakee nanheen-nanheen ungaliyon se paise le leta, aur bachchon kee ichchhaanusaar unhen khilaune de deta. khilaune lekar phir bachche uchhalane-koodane lagate aur tab phir khilaunevaala usee prakaar gaakar kahata – “bachchon ko bahalaanevaala, khilaunevaala.” saagar kee hilor kee bhaanti usaka yah maadak gaan galee bhar ke makaanon mein is or se us or tak, laharaata hua pahunchata, aur khilaunevaala aage badh jaata.

raay vijayabahaadur ke bachche bhee ek din khilaune lekar ghar aae! ve do bachche the – chunnoo aur munnoo! chunnoo jab khilaune le aaya, to bola – “mela ghola kaichha chhundal ai?”

munnoo bola – “aul dekho, mela kaichha chhundal ai?”

donon apane haathee-ghode lekar ghar bhar mein uchhalane lage. in bachchon kee maan rohinee kuchh der tak khade-khade unaka khel nirakhatee rahee. ant mein donon bachchon ko bulaakar usane poochha – “are o chunnoo – munnoo, ye khilaune tumane kitane mein lie hai?”

munnoo bola – “do paichhe mein! khilaunevaala de gaya ai.”

rohinee sochane lagee – itane saste kaise de gaya hai? kaise de gaya hai, yah to vahee jaane. lekin de to gaya hee hai, itana to nishchay hai!

ek jara-see baat thaharee. rohinee apane kaam mein lag gaee. phir kabhee use is par vichaar kee aavashyakata bhee bhala kyon padatee.

2

chhah maheene baad.

nagar bhar mein do-chaar dinon se ek muraleevaale ke aane ka samaachaar phail gaya. log kahane lage – “bhaee vaah! muralee bajaane mein vah ek hee ustaad hai. muralee bajaakar, gaana sunaakar vah muralee bechata bhee hai so bhee do-do paise bhala, isamen use kya milata hoga. mehanat bhee to na aatee hogee!”

ek vyakti ne poochh liya – “kaisa hai vah muraleevaala, mainne to use nahee dekha!”

uttar mila – “umr to usakee abhee adhik na hogee, yahee tees-battees ka hoga. dubala-patala gora yuvak hai, beekaaneree rangeen saapha baandhata hai.”

“vahee to nahin, jo pahale khilaune becha karata tha?”

“kya vah pahale khilaune bhee becha karata tha?

“haan, jo aakaar-prakaar tumane batalaaya, usee prakaar ka vah bhee tha.”

“to vahee hoga. par bhee, hai vah ek ustaad.”

pratidin isee prakaar us muraleevaale kee charcha hotee. pratidin nagar kee pratyek galee mein usaka maadak, mrdul svar sunaee padata – “bachchon ko bahalaanevaala, muraliyaavaala.”

rohinee ne bhee muraleevaale ka yah svar suna. turant hee use khilaunevaale ka smaran ho aaya. usane man hee man kaha – “khilaunevaala bhee isee tarah ga-gaakar khilaune becha karata tha.”

rohinee uthakar apane pati vijay baaboo ke paas gaee – “jara us muraleevaale ko bulao to, chunnoo-munnoo ke lie le loon. kya pata yah phir idhar aae, na aae. ve bhee, jaan padata hai, paark mein khelane nikal gae hai.”

vijay baaboo ek samaachaar patr padh rahe the. usee tarah use lie hue ve daravaaje par aakar muraleevaale se bole – “kyon bhee, kis tarah dete ho muralee?”

kisee kee topee galee mein gir padee. kisee ka joota paark mein hee chhoot gaya, aur kisee kee sothanee (paajaama) hee dheelee hokar latak aaee hai. is tarah daudate-haanphate hue bachchon ka jhund aa pahuncha. ek svar se sab bol uthe – “am bee lende mullee, aur am bee lende mullee.”

muraleevaala harsh-gadgad ho utha. bola – “denge bhaiya! lekin jara ruko, thaharo, ek-ek ko dene do. abhee itanee jaldee ham kaheen laut thode hee jaenge. bechane to aae hee hain, aur hain bhee is samay mere paas ek-do nahin, pooree sattaavan…. haan, baaboojee, kya poochha tha aapane kitane mein deen!… dee to vaise teen-teen paise ke hisaab se hai, par aapako do-do paise mein hee de doonga.”

vijay baaboo bheetar-baahar donon roopon mein muskara die. man hee man kahane lage – kaisa hai. deta to sabako isee bhaav se hai, par mujh par ulata ehasaan laad raha hai. phir bole – “tum logon kee jhooth bolane kee aadat hotee hai. dete hoge sabhee ko do-do paise mein, par ehasaan ka bojha mere hee oopar laad rahe ho.”

muraleevaala ekadam apratibh ho utha. bola – “aapako kya pata baaboo jee ki inakee asalee laagat kya hai. yah to graahakon ka dastoor hota hai ki dukaanadaar chaahe haani uthaakar cheej kyon na beche, par graahak yahee samajhate hain – dukaanadaar mujhe loot raha hai. aap bhala kaahe ko vishvaas karenge? lekin sach poochhie to baaboojee, asalee daam do hee paisa hai. aap kaheen se do paise mein ye muraliyaan nahin pa sakate. mainne to pooree ek hajaar banavaee theen, tab mujhe is bhaav padee hain.”

vijay baaboo bole – “achchha, mujhe jyaada vakt nahin, jaldee se do tho nikaal do.”

do muraliyaan lekar vijay baaboo phir makaan ke bheetar pahunch gae. muraleevaala der tak un bachchon ke jhund mein muraliyaan bechata raha. usake paas kaee rang kee muraliyaan theen. bachche jo rang pasand karate, muraleevaala usee rang kee muralee nikaal deta.

“yah badee achchhee muralee hai. tum yahee le lo baaboo, raaja baaboo tumhaare laayak to bas yah hai. haan bhaie, tumako vahee denge. ye lo…. tumako vaisee na chaahie, yah naarangee rang kee, achchha vahee lo….. le aae paise? achchha, ye lo tumhaare lie mainne pahale hee nikaal rakhee thee…! tumako paise nahin mile. tumane amma se theek tarah maange na honge. dhotee pakadakar pairon mein lipatakar, amma se paise maange jaate hain baaboo! haan, phir jao. abakee baar mil jaenge…. duannee hai? to kya hua, ye lo paise vaapas lo. theek ho gaya na hisaab?….mil gae paise? dekho, mainne tarakeeb bataee! achchha ab to kisee ko nahin lena hai? sab le chuke? tumhaaree maan ke paise nahin hain? achchha, tum bhee yah lo. achchha, to ab main chalata hoon.”

is tarah muraleevaala phir aage badh gaya.

3

aaj apane makaan mein baithee huee rohinee muraleevaale kee saaree baaten sunatee rahee. aaj bhee usane anubhav kiya, bachchon ke saath itane pyaar se baaten karanevaala phereevaala pahale kabhee nahin aaya. phir yah sauda bhee kaisa sasta bechata hai! bhala aadamee jaan padata hai. samay kee baat hai, jo bechaara is tarah maara-maara phirata hai. pet jo na karae, so thoda!

isee samay muraleevaale ka ksheen svar doosaree nikat kee galee se sunaee pada – “bachchon ko bahalaanevaala, muraliyaavaala!”

rohinee ise sunakar man hee man kahane lagee – aur svar kaisa meetha hai isaka!

bahut dinon tak rohinee ko muraleevaale ka vah meetha svar aur usakee bachchon ke prati ve snehasikt baaten yaad aatee raheen. maheene ke maheene aae aur chale gae. phir muraleevaala na aaya. dheere-dheere usakee smrti bhee ksheen ho gaee.

4

aath maas baad –

sardee ke din the. rohinee snaan karake makaan kee chhat par chadhakar aajaanulambit kesh-raashi sukha rahee thee. isee samay neeche kee galee mein sunaee pada – “bachchon ko bahalaanevaala, mithaeevaala.”

mithaeevaale ka svar usake lie parichit tha, jhat se rohinee neeche utar aaee. us samay usake pati makaan mein nahin the. haan, unakee vrddha daadee theen. rohinee unake nikat aakar bolee – “daadee, chunnoo-munnoo ke lie mithaee lenee hai. jara kamare mein chalakar thaharao. main udhar kaise jaoon, koee aata na ho. jara hatakar main bhee chik kee ot mein baithee rahoongee.”

daadee uthakar kamare mein aakar boleen – “e mithaeevaale, idhar aana.”

mithaeevaala nikat aa gaya. bola – “kitanee mithaee doon, maan? ye nae tarah kee mithaiyaan hain – rang-birangee, kuchh-kuchh khattee, kuchh-kuchh meethee, jaayakedaar, badee der tak munh mein tikatee hain. jaldee nahin ghulateen. bachche bade chaav se choosate hain. in gunon ke siva ye khaansee bhee door karatee hain! kitanee doon? chapatee, gol, pahaladaar goliyaan hain. paise kee solah deta hoon.”

daadee boleen – “solah to bahut kam hotee hain, bhala pachees to dete.”

mithaeevaala – “nahin daadee, adhik nahin de sakata. itana bhee deta hoon, yah ab main tumhen kya… khair, main adhik na de sakoonga.”

rohinee daadee ke paas hee thee. bolee – “daadee, phir bhee kaaphee sasta de raha hai. chaar paise kee le lo. yah paise rahe.

mithaeevaala mithaiyaan ginane laga.

“to chaar kee de do. achchha, pachchees nahin sahee, bees hee do. are haan, main boodhee huee mol-bhaav ab mujhe jyaada karana aata bhee nahin.”

kahate hue daadee ke popale munh se jara-see muskaraaharat phoot nikalee.

rohinee ne daadee se kaha – “daadee, isase poochho, tum is shahar mein aur bhee kabhee aae the ya pahalee baar aae ho? yahaan ke nivaasee to tum ho nahin.”

daadee ne is kathan ko doharaane kee cheshta kee hee thee ki mithaeevaale ne uttar diya – “pahalee baar nahin, aur bhee kaee baar aa chuka hai.”

rohinee chik kee aad hee se bolee – “pahale yahee mithaee bechate hue aae the, ya aur koee cheej lekar?”

mithaeevaala harsh, sanshay aur vismayaadi bhaavon me doobakar bola – “isase pahale muralee lekar aaya tha, aur usase bhee pahale khilaune lekar.”

rohinee ka anumaan theek nikala. ab to vah usase aur bhee kuchh baaten poochhane ke lie asthir ho uthee. vah bolee – “in vyavasaayon mein bhala tumhen kya milata hoga?”

vah bola – “milata bhala kya hai! yahee khaane bhar ko mil jaata hai. kabhee nahin bhee milata hai. par haan; santosh, dheeraj aur kabhee-kabhee aseem sukh jaroor milata hai aur yahee main chaahata bhee hoon.”

“so kaise? vah bhee batao.”

“ab vyarth un baaton kee kyon charcha karun? unhen aap jaane hee den. un baaton ko sunakar aap ko du:kh hee hoga.”

“jab itana bataaya hai, tab aur bhee bata do. main bahut utsuk hoon. tumhaara harja na hoga. mithaee main aur bhee kuchh le loongee.”

atishay gambheerata ke saath mithaeevaale ne kaha – “main bhee apane nagar ka ek pratishthit aadamee tha. makaan-vyavasaay, gaadee-ghode, naukar-chaakar sabhee kuchh tha. stree thee, chhote-chhote do bachche bhee the. mera vah sone ka sansaar tha. baahar sampatti ka vaibhav tha, bheetar saansaarik sukh tha. stree sundaree thee, meree praan thee. bachche aise sundar the, jaise sone ke sajeev khilaune. unakee athakheliyon ke maare ghar mein kolaahal macha rahata tha. samay kee gati! vidhaata kee leela. ab koee nahin hai. daadee, praan nikaale nahin nikale. isalie apane un bachchon kee khoj mein nikala hoon. ve sab ant mein honge, to yaheen kaheen. aakhir, kaheen na janme hee honge. us tarah rahata, ghul-ghul kar marata. is tarah sukh-santosh ke saath maroonga. is tarah ke jeevan mein kabhee-kabhee apane un bachchon kee ek jhalak-see mil jaata hai. aisa jaan padata hai, jaise ve inheen mein uchhal-uchhalakar hans-khel rahe hain. paison kee kamee thode hee hai, aapakee daya se paise to kaaphee hain. jo nahin hai, is tarah usee ko pa jaata hoon.”

rohinee ne ab mithaeevaale kee or dekha – usakee aankhen aansuon se tar hain.

isee samay chunnoo-munnoo aa gae. rohinee se lipatakar, usaka aanchal pakadakar bole – “ammaan, mithaee!”

“mujhase lo.” yah kahakar, tatkaal kaagaj kee do pudiyaan, mithaiyon se bharee, mithaeevaale ne chunnoo-munnoo ko de deen!

rohinee ne bheetar se paise phenk die.

mithaeevaale ne petee uthaee, aur kaha – “ab is baar ye paise na loonga.”

daadee bolee – “are-are, na na, apane paise lie ja bhaee!”

tab tak aage phir sunaee pada usee prakaar maadak-mrdul svar mein – “bachchon ko bahalaanevaala mithaeevaala.”

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भंडारे या लंगर का प्रसाद खाना या नहीं? धार्मिक स्थलों पर आयोजित भंडारे ने निर्धनों को सहारा देते हैं, लेकिन सक्षम व्यक्ति के लिए सेवा या....