एक मूर्तिकार था। उसने अपने बेटे को भी मूर्तिकला सिखाई। दोनों बाप-बेटे मूर्तियां बनाते और बाजार में बेंचने ले जाते। बाप की मूर्तियां तो डेढ़-दो रुपये में बिकती। लेकिन लड़के की मूर्तियां केवल आठ-दस आने में ही बिक पातीं।
घर आकर बाप लड़के को मूर्तियों में कमी बताता और उन्हें ठीक करने को कहता। लड़का भी समझदार था। वह मन लगाकर कमियों को दूर करता। धीरे धीरे उसकी मूर्तियां भी डेढ़-दो रुपये में बिकने लगीं।
लेकिन पिता तब भी उसकी मूर्तियों में कमी बताता और ठीक करने को कहता। लड़का और मेहनत से मूर्ति ठीक करता। इस प्रकार पांच साल बीत गए। अब लड़के मूर्तिकला में निखार आ गया।
उसकी मूर्तियां अब पांच-पाँच रुपये में मिलने लगीं। लेकिन पिता ने अब भी कमियां निकालना नहीं छोड़ा। वह कहता अभी और सुधार की गुंजाइश है।
एक दिन लड़का झुंझलाकर बोला, “अब बस करिए। अब तो मैं आपसे भी अच्छी मूर्ति बनाता हूँ। आपको केवल डेढ़ दो रुपये ही मिलते हैं। जबकि मुझे पांच रुपये।”
तब उसके पिता ने समझाया, “बेटा! जब मैं तुम्हारी उम्र का था। तब मुझे अपनी कला पर घमंड हो गया था। जिससे मैंने सुधार बन्द कर दिया। इस कारण से मैं डेढ़ दो रुपये से अधिक की मूर्ति नहीं बना सका।
मैं चाहता हूँ कि तुम वह गलती न करो। किसी भी क्षेत्र में सुधार की सदैव गुंजाइश रहती है। मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी कला में निरंतर सुधार करते रहो। जिससे तुम्हारा नाम बहुमूल्य मूर्तियां बनाने वाले कलाकारों में शामिल हो जाये।”
Moral of Story- सीख
यह कहानी सीख देती है कि सुधार एक निरंतर प्रकिया है। जिसे जीवन के हर क्षेत्र में हमेशा करते रहना चाहिए।