दक्षिण भारत के एक नगर में मणिभद्र नामक एक दानवीर व्यापारी रहता था. धार्मिंक कार्यों और जनसेवा के लिए वह बहुत सा धन दान में दिया करता था. अत्यधिक दान-पुण्य के कारण उसका धन समाप्त होता गया और वह निर्धन हो गया.
निर्धन होते ही लोग उसका तिरस्कार करने लगे. लोगों के ऐसे व्यवहार से वह व्यथिक हो गया और चिंतातुर रहने लगा. एक रात वह बिस्तर पर लेटा सोच रहा था – धनहीन व्यक्ति का समाज में कोई मान नहीं. धन के अभाव में बुद्धि, ज्ञान और प्रतिभा भी दब जाती है. ऐसे तिरिस्कृत जीवन का क्या लाभ? इससे तो मृत्यु भली.”
सोचते-सोचते वह गहरी नींद में चला गया. नींद में उसने एक स्वप्न देखा. स्वप्न में एक भिक्षु उसके पास आया और बोला, “मणिभद्र! चिंतातुर मत हो. मैंने पद्मनिधि हूँ, जो तुम्हारे पूर्वजों द्वारा संचित धन के रूप में हूँ. तुमने और तुम्हारे पूर्वजों ने जीवन में बहुत पुण्य किये हैं. इसलिए मैं तुम्हारे घर आया हूँ. कल सुबह मैं इसी भेष में तुम्हारे सामने आऊंगा. तुम मेरे सिर पर लाठी मारना. ऐसा करते ही मैं स्वर्ण में परिवर्तित हो जाऊंगा. तुम्हें उस स्वर्ण को बेचकर धन की व्यवस्था कर लेना.”
सुबह उठकर ही मणिभद्र को रात में आये स्वप्न का ख्याल आया और वह लाठी लिए द्वार पर खड़ा होकर स्वप्न में दिखाई दिए भिक्षु की प्रतीक्षा करने लगा. जैसे ही भिक्षु आया, उसने लाठी से उसके सिर पर वार किया और देखते ही देखते वह भिक्षु स्वर्ण में परिवर्तित हो गया.
उस दिन मणिभद्र की पत्नि ने गाँव के नाई को अपने पांव के नाखून काटने के लिए घर बुलाया था. नाई उसी समय वहाँ आ पहुँचा, जब मणिभद्र भिक्षु को लाठी से मार रहा था. उसने भिक्षु को स्वर्ण में परिवर्तित होते देख लिया. मणिभद्र नहीं चाहता था कि गाँव में यह बात फैले. इसलिए उसने नाई को कुछ धन और कपड़े देकर यह बात स्वयं तक रखने हेतु समझा दिया.
इधर नाई जब अपने घर लौटा, तो उसकी आँखों के सामने भिक्षु के स्वर्ण में परिवर्तित होने के दृश्य तैर रहा था. वह सोचने लगा – “यदि एक भिक्षु लाठी की चोट से स्वर्ण में परिवर्तित हो सकता है, तो अन्य भिक्षु क्यों नहीं? मैं भी कुछ भिक्षुओं को अपने घर आने का निमंत्रण दूंगा और उन्हें लाठी की चोट से स्वर्णमय बनाकर धनी हो जाऊंगा.”
अगले दिन वह भिक्षुओं के मठ में गया और मठ-प्रधान का हाथ जोड़कर अभिवादन किया. मठ-प्रधान ने उसके आने का प्रयोजन पूछा, तो वह बोला, “मान्यवर! मैं आपके मठ के समस्त भिक्षुओं को भोजन हेतु अपने घर आमंत्रित करने आया हूँ. कृपया मेरा आमंत्रण स्वीकार करें.”
मठ-प्रधान ने उसका आमंत्रण अस्वीकार करते हुए कहा, “पुत्र! हम दूसरों के घरों में जाकर भोजन ग्रहण नहीं करते. भिक्षाटन कर जो प्राप्त होता है, वह प्राण-धारण हेतु पर्याप्त होता है. हम उतने में ही संतुष्ट हैं.”
नाई तत्परता से बात बदलकर बोला, “मान्यवर! आपको अपने भिक्षाटन के नियमों के विपरीत जाने की आवश्यकता नहीं है. आप मेरे घर पधारे, मैं आपको कुछ धार्मिक पुस्तकें और लेखन सामग्री दान में देना चाहता हूँ. कृपया मेरा अनुग्रह स्वीकार करें.”
मठ-प्रधान नाई का अनुग्रह टाल नहीं पाया और दोपहर को कुछ साथी भिक्षुओं के साथ उसके घर पहुँचा. नाई ने पहले से ही लाठियों की व्यवस्था की हुई थी. वह उन्हें घर के भीतर ले गया और दरवाज़ा बंद कर लाठियों से उनके सिर पर वार करने लगा. स्वयं पर हमला होते देख बचाव में भिक्षु चीख-पुकार मचाने लगे, जिसे सुनकर नगर के रक्षक नाई के घर दौड़े आये. वहाँ उन्होंने देखा कि कई भिक्षु लहुलुहान और धराशायी पड़े हैं, तो कई भिक्षु मरे पड़े हैं.
नाई को पकड़कर वे न्यायाधीश के समक्ष ले गए. न्यायाधीश ने जब रक्तपात का कारण पूछा, तो नाई ने मणिभद्र के घर घटी घटना का शब्दशः वर्णन कर दिया. मणिभद्र को न्यायालय में बुलाया गया. वह न्यायालय पहुँचा और पूछने पर न्यायाधीश को विस्तारपूर्वक स्वप्न की बात बता दी.
न्यायाधीश ने मूर्ख नाई को मृत्युदंड दिया और कहा, “इस मूर्ख नाई की तरह बिना सोचे समझे और उचित परीक्षण के कार्य करने का यही परिणाम होता है.”
सीख (Moral of the story)
बिना सोचे-समझे कार्य करने वालों को कई बार पछताना पड़ता है. इसलिए किसी भी कार्य को करने के पूर्व उसके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त कर लें और पूर्ण परीक्षण उपरांत ही उसे करें, ताकि आधी-अधूरी जानकारी कार्य बिगड़ने का कारण न बने ||