एक बार राजा कृष्णदेव राय अपने दरबारियों के साथ चर्चा कर रहे थे। चर्चा करते-करते अचानक बात चतुराई पर होने लगी। महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में राजगुरु से लेकर कई अन्य दरबारी तेनालीराम से जलते थे। ऐसे में, तेनालीराम को नीचा दिखाने के लिए एक मंत्री दरबार में बोल पड़ा कि, “महाराज! दरबार में एक से बढ़कर एक बुद्धिमान और चतुर लोग मौजूद हैं और अगर मौका दिया जाए, तो हम सभी अपनी चतुराई आपके सामने पेश कर सकते हैं, किंतु?
महाराज कृष्णदेव ने हैरत में पड़ते हुए पूछा, “किन्तु क्या मंत्री जी?” इस पर सेनापति बोले, “महाराज! मैं आपको बताता हूं कि मंत्री जी के मन में क्या बात है। दरअसल, इस दरबार में तेनालीराम के अलावा किसी को भी अपनी चतुराई साबित करने का मौका नहीं दिया जाता है। हर बार तेनालीराम ही चतुराई का श्रेय ले जाते हैं, तो ऐसे में दरबार के बाकी लोग अपनी योग्यता कैसे दिखा सकते हैं?”
महाराज कृष्णदेव राय सेनापति की बात सुनकर समझ गए कि दरबार के सभी लोग तेनाली के विरोध में उतर आए हैं। इसके बाद महाराज कुछ देर शांत रहे और मन ही मन विचार करने लगे। तभी महाराज की नजर भगवान की मूर्ति के सामने जल रही धूपबत्ती पर गई। धूपबत्ती को देखकर महाराज के मन में सभी दरबारियों की परीक्षा लेने का विचार आया।
उन्होंने तुरंत कहा, “आप सभी दरबारियों को अपनी चतुराई साबित करने का एक मौका जरूर दिया जाएगा। जब तक सभी दरबारी अपनी चतुराई साबित नहीं कर देते, तनाली बीच में नहीं आएगा।” यह सुनकर दरबार में मौजूद लोग खुश हो गए। उन्होंने कहा, “ठीक है महाराज! आप बताएं कि हमें क्या करना होगा?” राजा कृष्णदेव राय ने धूपबत्ती की तरफ उंगली करते हुए कहा कि मेरे लिए दो हाथ धुआं लेकर आओ। जो भी यह काम कर पाएगा, उसे तेनालीराम से अधिक बुद्धिमान समझा जाएगा।”
महाराज की बात सुनकर सभी दरबारी सोच में पड़ गए और आपस में चर्चा करने लगे कि यह कैसे संभव है, भला धुएं को नापा जा सकता है क्या? इसके बाद अपनी चतुराई साबित करने के लिए सभी दरबारियों ने अपना हाथ आजमाया, लेकिन कोई भी धुआं नाप नहीं पाया। जैसे ही कोई धुएं को नापने की कोशिश करता, धुआं उनके हाथों से निकलकर उड़ जाता।
जब सभी दरबारियों ने हार मान ली, तब उनमें से एक दरबारी बोला कि, “महाराज! हमारे हिसाब से धुएं को नापा नहीं जा सकता है। हां, अगर तेनाली ऐसा कर पाए, तो हम उसे अपने से भी अधिक बुद्धिमान मान लेंगे, लेकिन अगर वह ऐसा नहीं कर पाए, तो आपको उन्हें हमारे जैसा ही समझना होगा।” राजा मुस्कुराते हुए बोले, ‘क्यों तेनालीराम! क्या तुम तैयार हो?” इस पर तेनालीराम ने सिर झुकाते हुए कहा, “महाराज! मैंने हमेशा आपके आदेश का पालन किया है। इस बार भी जरूर करूंगा।”
इसके बाद तेनालीराम ने एक सेवक को बुलाया और उसके कान में कुछ कहा। उनकी बात सुनकर सेवक तुरंत दरबार से बाहर चला गया। दरबार में चारों ओर चुप्पी छा गई। सभी यह देखने के लिए उतावले हुए जा रहे थे कि आखिर कैसे तेनालीराम राजा को दो हाथ धुंआ देता है। तभी सबकी नजर सेवक पर पड़ी, जो शीशे की बनी दो हाथ लंबी नली लेकर दरबार में वापस आया था।
तेनालीराम ने उस शीशे की नली का मुंह धूपबत्ती से निकलते धुएं पर लगा दिया। थोड़ी ही देर में शीशे की पूरी नली धुएं से भर गई और तेनाली ने जल्दी से नली के मुंह पर कपड़ा लगाकर उसे बंद कर दिया और उसे महाराज की तरफ करते हुए कहा, “महाराज! यह लीजिए दो हाथ धुआं।” यह देख महाराज के चेहरे पर मुस्कान आ गई और उन्होंने तेनाली से नली लेकर दरबारियों की ओर देखा।
सभी के सिर तेनालीराम की चतुराई देखकर शर्म से नीचे झुके हुए थे। वहां कुछ दरबारी तेनालीराम के पक्ष में भी थे। उन सब की आंखों में तेनालीराम के लिए सम्मान था। तेनालीराम की बुद्धिमानी और चतुराई देखकर, राजा बोले, “अब तो आप लोग यह समझ गए होंगे कि तेनालीराम की बराबरी करना संभव नहीं है।” इसके जवाब में दरबारी कुछ भी बोल न सकें और उन लोगों ने चुपचाप सिर झुका लिया।
कहानी से सीख :
हमें दूसरों की बुद्धिमता का सम्मान करना चाहिए और किसी की चतुराई से जलन नहीं करनी चाहिए।