राजा युधिष्ठिर ने पूछा – भगवन् ! यह विष्णु भगवान की माया किस प्रकार की है ? जो इस चराचर जगत को व्यामोहित करती है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – महाराज ! किसी समय नारद मुनि श्वेतद्वीप में नारायण का दर्शन करने के लिये गये । वहां श्रीनारायण का दर्शन कर और उन्हें प्रसन्न मुद्रा में देखकर उनसे जिज्ञासा की । भगवन् ! आपकी माया कैसी है ? कहां रहती है ? कृपा कर उसका रूप मुझे दिखायें ।
भगवान ने हंसकर कहा – नारद ! माया को देखकर क्या करोगे ? इसके अतिरिक्त जो कुछ चाहते हो वह मांगो ।
नारद जी ने कहा – भगवन ! आप अपनी माया को ही दिखायें, अन्य किसी वर की अभिलाषा नहीं है । नारद जी ने बार बार आग्रह किया ।
नारायण ने कहा – अच्छा, आप हमारी माया देखें । यह कहकर नारद की अंगुली पकड़कर श्वेतद्वीप से चले । मार्ग में आकर भगवान ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया । शिखा, यज्ञोपवीत, कमण्डलु, मृगचर्म को धारण कर कुशा की पवित्री हाथों में पहनकर वेद पाठ करने लगे और अपना नाम उन्होंने यज्ञशर्मा रख लिया । इस प्रकार का रूप धारण कर नारद के साथ जंबूद्वीप में आये । वे दोनों वेत्रवती नदी के तट पर स्थित विदिशा नामक नगरी में गये । उस विदिशा नगरी में धन – धान्य से समृद्ध उद्यमी, गाय, भैंस, बकरी आदि पशु पालन में तत्पर, कृषिकार्य को भलीभांति करने वाला सीरभद्र नाम का एक वैश्य निवास करता था । वे दोनों सर्वप्रथम उसी के घर गये । उसने इन विशुद्ध ब्राह्मणों का आसन, अर्घ्य आदि से आदर सत्कार किया । फिर पूछा – ‘यदि आप उचित समझें तो अपनी रुचि के अनुसार मेरे यहां अन्न का भोजन करें ।’ यह सुनकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान ने हंसकर कहा ‘तुम को अनेक पुत्र – पौत्र हों और सभी व्यापार एवं खेती में तत्पर रहें । तुम्हारी खेती और पशु धन की नित्य वृद्धि हों’ – यह मेरा आशीर्वाद है । इतना कहकर वे दोनों वहां से आगे गये । मार्ग में गंगा के तट पर वेणिका नाम के गांव में गोस्वामी नाम का एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था, वे दोनों उसके पास पहुंचे । वह अपनी खेती की चिंता में लगा था । भगवान ने उससे कहा – ‘हम बहुत दूर से आये हैं, अब हम तुम्हारे अतिथि हैं, हम भूखे हैं, हमें भोजन कराओ ।’ उन दोनों को साथ में लेकर वह ब्राह्मण अपने घर पर आया । उसने दोनों को स्नान – भोजन आदि कराया, अनंतर सुखपूर्वक उत्तम शय्या पर शयन आदि की व्यवस्था की । प्रात: उठकर भगवान ने ब्राह्मण से कहा – ‘हम तुम्हारे घर में सुखपूर्वक रहे, अब जा रहे हैं । परमेश्वर करे कि तुम्हारी खेती निष्फल हो, तुम्हारी संतति की वृद्धि न हो’ – इतना कहकर वे वहां से चले गये ।
मार्ग में नारद जी ने पूछा – भगवन ! वैश्य ने आपकी कुछ भी सेवा नहीं की, किंतु उसको आपने उत्तम वर दिया । इस ब्राह्मण श्रद्धा से आपकी बहुत सेवा की, किंतु उसको आपने आशीर्वाद के रूप में शाप ही दिया – ऐसा आपने क्यों किया ?
भगवान ने कहा – नारद ! वर्षभर मछली पकड़ने से जितना पाप होता है, उतना ही एक दिन हल जोतने से होता है । वह सीरभद्र वैश्य अपने पुत्र – पौत्रों के साथ इसी कृषि कार्य में लगा हुआ है, वह नरक में जाएंगा, अत: हमने न तो उसके घर में विश्राम किया और न भोजन ही किया । इस ब्राह्मण के घर में भोजन और विश्राम किया । इस ब्राह्मण को ऐसा आशीर्वाद दिया है कि जिससे यह जगज्जाल में न फंसकर मुक्ति को प्राप्त करें । इस प्रकार मार्ग में बातचीत करते हुए वे दोनों कान्यकुब्ज देश के समीप पहुंचे । वहां उन्होंने एक अतिशय रम्य सरोवर देखा । उस सरोवर की शोभा देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए ।
भगवान ने कहा – नारद ! यह उत्तम तीर्थस्थान है । इसमें स्नान करना चाहिए, फिर कन्नौज नाम के नगर में चलेंगे । इतना कहकर भगवान उस सरोवर में स्नानकर शीघ्र ही बाहर आ गये । तदनंतर नारद जी भी स्नान करने के लिये सरोवर में प्रविष्ट हुए । स्नान संपन्न कर जब वे बाहर निकले, तब उन्होंने अपने को दिव्य कन्या के रूप में देखा । उस कन्या के विशाल नेत्र थे । चंद्रमा के समान मुख था, वह सर्वांग सुंदरी कन्या दिव्य शुभलक्षणों से संपन्न थी । अपनी सुंदरता से संसार को व्यामोहित कर रही थी । जिस प्रकार समुद्र से संपूर्ण रूप की निधान लक्ष्मी निकली थीं, उसी प्रकार सरोवर से स्नान के बाद नारद जी स्त्री के रूप में निकले । भगवान अंतर्धान हो गये । वह स्त्री भी अपने झुंड से भ्रष्ट अकेली हरिणी की तरह भयभीत होकर इधर – उधर देखने लगी । इसी समय अपनी सेनाओं के साथ राजा तालध्वज वहां आया और उस सुंदरी को देखकर सोचने लगा कि यह कोई देवस्त्री है या अप्सरा ? फिर बोला – ‘बाले ! तुम कौन हो, कहां से आयी हो ?’ उस कन्या ने कहा – ‘मैं माता पिता से रहित और निराश्रय हूं । मेरा विवाह भी नहीं हुआ है, अब आपकी ही शरण में हूं ।’
इतना सुनते ही प्रसन्नचित्त हो राजा उसे घोड़े पर बैठाकर राजधानी पहुंचा और विधिपूर्वक उससे विवाह कर लिया । तेरहवें वर्ष में वह गर्भवती हुई । समय पूर्ण होने पर उससे एक तुम्बी (लौकी) उत्पन्न हुई, जिसमें पचास छोटे – छोटे दिव्य शरीर वाले युद्ध में कुशल बलशाली बालक थे, उसने उनकी घृतकुण्ड में छोड़ दिया, कुछ दिन बाद पुत्र और पौत्रों की खूब वृद्धि हो गयी । वे महान अहंकारी, परस्पर विरोधी और राज्य की कामना करनेवाले थे । अनंतर राज्य के लोभ से कौरव और पाण्डवों की तरह परस्पर युद्ध करके समुद्र की लहरों की भांति लड़ते हुए वे सभी नष्ट हो गये । वह स्त्री अपने वंश का इस प्रकार संहार देखकर छाती पीटकर करुणापूर्वक विलाप करती हुई मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी । राजा भी शोक से पीड़ित हो रोने लगा ।
इसी समय ब्राह्मण का रूप धारण कर भगवान ब्राह्मण का रूप धारण कर भगवान विष्णु द्विजों के साथ वहां आये और राजा तथा रानी को उपदेश देने लगे – ‘यह विष्णु की माया है । तुम लोग व्यर्थ ही रो रहे हो । संपूर्ण प्राणियों की अंत में यही स्थिति होती है । विण्णु माया ही ऐसी है कि उसके द्वारा सैकड़ों चक्रवर्ती और हजारों इंद्र उसी तरह नष्ट कर दिये गये हैं जैसे दीपक को प्रचण्ड वायु विनष्ट कर देती है । समुद्र को सुखाने लिये भूमि को पीसकर चूर्ण कर डालने की तथा पर्वत को पीठ पर उठाने की सामर्थ्य रखनेवाले पुरुष भी काल के कराल मुख में चले गये हैं । त्रिकूट पर्वत जिसका दूर्ग था, समुद्र जिसकी खाईं थी, ऐसी लंका जिसकी राजधानी थी, राक्षसगण जिसके योद्धा थे, सभी शास्त्रों और वेदों को जाननेवाले शुक्राचार्य जिसके लिये मंत्रणा करते थे, कुबेर के धन को भी जिसने जीत लिया था, ऐसा रावण भी दैववश नष्ट हो गया । युद्ध में, घर में, पर्वत पर, अग्नि में, गुफा में अथवा समुद्र में कहीं भी कोई जाएं, वह काल के कोप से नहीं बच सकता । भावी होकर ही रहती है । पाताल में जाएं, इंद्रलोक में जाएं, मेरु पर्वत पर चढ़ गये, मंत्र, औषध, शस्त्र आदि से भी कितनी भी अपनी रक्षा करे, किंतु जो होना होता है, वह होता ही है – इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है । मनुष्यों के भाग्यानुसार जो भी शुभ और अशुभ होना है, वह अवश्य ही होता है । हजारों उपाय करने पर भी भावी किसी भी प्रकार नहीं टल सकती । कोई शोक विह्वल होकर आंसू टपकाता है, कोई रोता है, कोई बड़ी प्रसन्नता से नाचता है, कोई मनोहर गीत गाता है, कोई धन के लिये अनेक उपाय करता है, इस तरह अनेक प्रकार के जाल की रचना करता रहता है, अत: यह संसार एक नाटक है और सभी प्राणिवरेग उस नाटक के पात्र हैं ।’
इतना उपदेश देकर भगवान ने रानी का हाथ पकड़कर कहा – ‘नारद जी ! तुमने विष्णु की माया देख ली । उठो ! अब स्नान कर अपने पुत्र – पौत्रों को अर्घ्य देकर और्ध्वदैहिक कृत्य करो । यह माया विष्णु ने स्वयं निर्मित की है ।’ इतना कहकर उसी पुण्यतीर्थ में नारद को स्नान कराया । स्नान करते ही स्त्री रूप को छोड़कर नारद मुनि ने अपना रूप धारण कर लिया । राजा ने भी अपने मंत्री और पुरोहितों के साथ देखा कि जटाधारी, यज्ञोपवीतधारी, दण्ड कमण्डलु लिये, वीणा धारण किये हुए, खड़ाऊं के ऊपर स्थित एक तेजस्वी मुनि हैं, यह मेरी रानी नहीं है । उसी समय भगवान नारद का हाथ पकड़कर आकाश मार्ग से क्षणमात्र में श्वेतद्वीप आ गये ।
भगवान ने नारद से कहा – देवर्षि नारद जी ! आपने मेरी माया देख ली । नारद के देखते देखते ऐसा कहकर भगवान विष्णु अंतर्हित हो गये । देवर्षि नारद जी ने भी हंसकर उन्हें प३णाम किया और भगवान की आज्ञा प्राप्त कर तीनों लोकों में घूमने लगे । महाराज ! इस विष्णु माया हमने संक्षेप में वर्णन किया । इस माया के प्रभाव से संसार के जीव पुत्र, स्त्री, धन आदि में आसक्त हो रोते गाते हुए अनेक प्रकार की चेष्टाएं करते हैं ।
wish4me in English
raaja yudhishthir ne poochha – bhagavan ! yah vishnu bhagavaan kee maaya kis prakaar kee hai ? jo is charaachar jagat ko vyaamohit karatee hai .
bhagavaan shreekrshn ne kaha – mahaaraaj ! kisee samay naarad muni shvetadveep mein naaraayan ka darshan karane ke liye gaye . vahaan shreenaaraayan ka darshan kar aur unhen prasann mudra mein dekhakar unase jigyaasa kee . bhagavan ! aapakee maaya kaisee hai ? kahaan rahatee hai ? krpa kar usaka roop mujhe dikhaayen .
bhagavaan ne hansakar kaha – naarad ! maaya ko dekhakar kya karoge ? isake atirikt jo kuchh chaahate ho vah maango .
naarad jee ne kaha – bhagavan ! aap apanee maaya ko hee dikhaayen, any kisee var kee abhilaasha nahin hai . naarad jee ne baar baar aagrah kiya .
naaraayan ne kaha – achchha, aap hamaaree maaya dekhen . yah kahakar naarad kee angulee pakadakar shvetadveep se chale . maarg mein aakar bhagavaan ne ek vrddh braahman ka roop dhaaran kar liya . shikha, yagyopaveet, kamandalu, mrgacharm ko dhaaran kar kusha kee pavitree haathon mein pahanakar ved paath karane lage aur apana naam unhonne yagyasharma rakh liya . is prakaar ka roop dhaaran kar naarad ke saath jamboodveep mein aaye . ve donon vetravatee nadee ke tat par sthit vidisha naamak nagaree mein gaye . us vidisha nagaree mein dhan – dhaany se samrddh udyamee, gaay, bhains, bakaree aadi pashu paalan mein tatpar, krshikaary ko bhaleebhaanti karane vaala seerabhadr naam ka ek vaishy nivaas karata tha . ve donon sarvapratham usee ke ghar gaye . usane in vishuddh braahmanon ka aasan, arghy aadi se aadar satkaar kiya . phir poochha – ‘yadi aap uchit samajhen to apanee ruchi ke anusaar mere yahaan ann ka bhojan karen .’ yah sunakar vrddh braahmanaroopadhaaree bhagavaan ne hansakar kaha ‘tum ko anek putr – pautr hon aur sabhee vyaapaar evan khetee mein tatpar rahen . tumhaaree khetee aur pashu dhan kee nity vrddhi hon’ – yah mera aasheervaad hai . itana kahakar ve donon vahaan se aage gaye . maarg mein ganga ke tat par venika naam ke gaanv mein gosvaamee naam ka ek daridr braahman rahata tha, ve donon usake paas pahunche . vah apanee khetee kee chinta mein laga tha . bhagavaan ne usase kaha – ‘ham bahut door se aaye hain, ab ham tumhaare atithi hain, ham bhookhe hain, hamen bhojan karao .’ un donon ko saath mein lekar vah braahman apane ghar par aaya . usane donon ko snaan – bhojan aadi karaaya, anantar sukhapoorvak uttam shayya par shayan aadi kee vyavastha kee . praat: uthakar bhagavaan ne braahman se kaha – ‘ham tumhaare ghar mein sukhapoorvak rahe, ab ja rahe hain . parameshvar kare ki tumhaaree khetee nishphal ho, tumhaaree santati kee vrddhi na ho’ – itana kahakar ve vahaan se chale gaye .
maarg mein naarad jee ne poochha – bhagavan ! vaishy ne aapakee kuchh bhee seva nahin kee, kintu usako aapane uttam var diya . is braahman shraddha se aapakee bahut seva kee, kintu usako aapane aasheervaad ke roop mein shaap hee diya – aisa aapane kyon kiya ?
bhagavaan ne kaha – naarad ! varshabhar machhalee pakadane se jitana paap hota hai, utana hee ek din hal jotane se hota hai . vah seerabhadr vaishy apane putr – pautron ke saath isee krshi kaary mein laga hua hai, vah narak mein jaenga, at: hamane na to usake ghar mein vishraam kiya aur na bhojan hee kiya . is braahman ke ghar mein bhojan aur vishraam kiya . is braahman ko aisa aasheervaad diya hai ki jisase yah jagajjaal mein na phansakar mukti ko praapt karen . is prakaar maarg mein baatacheet karate hue ve donon kaanyakubj desh ke sameep pahunche . vahaan unhonne ek atishay ramy sarovar dekha . us sarovar kee shobha dekhakar ve bahut prasann hue .
bhagavaan ne kaha – naarad ! yah uttam teerthasthaan hai . isamen snaan karana chaahie, phir kannauj naam ke nagar mein chalenge . itana kahakar bhagavaan us sarovar mein snaanakar sheeghr hee baahar aa gaye . tadanantar naarad jee bhee snaan karane ke liye sarovar mein pravisht hue . snaan sampann kar jab ve baahar nikale, tab unhonne apane ko divy kanya ke roop mein dekha . us kanya ke vishaal netr the . chandrama ke samaan mukh tha, vah sarvaang sundaree kanya divy shubhalakshanon se sampann thee . apanee sundarata se sansaar ko vyaamohit kar rahee thee . jis prakaar samudr se sampoorn roop kee nidhaan lakshmee nikalee theen, usee prakaar sarovar se snaan ke baad naarad jee stree ke roop mein nikale . bhagavaan antardhaan ho gaye . vah stree bhee apane jhund se bhrasht akelee harinee kee tarah bhayabheet hokar idhar – udhar dekhane lagee . isee samay apanee senaon ke saath raaja taaladhvaj vahaan aaya aur us sundaree ko dekhakar sochane laga ki yah koee devastree hai ya apsara ? phir bola – ‘baale ! tum kaun ho, kahaan se aayee ho ?’ us kanya ne kaha – ‘main maata pita se rahit aur niraashray hoon . mera vivaah bhee nahin hua hai, ab aapakee hee sharan mein hoon .’
itana sunate hee prasannachitt ho raaja use ghode par baithaakar raajadhaanee pahuncha aur vidhipoorvak usase vivaah kar liya . terahaven varsh mein vah garbhavatee huee . samay poorn hone par usase ek tumbee (laukee) utpann huee, jisamen pachaas chhote – chhote divy shareer vaale yuddh mein kushal balashaalee baalak the, usane unakee ghrtakund mein chhod diya, kuchh din baad putr aur pautron kee khoob vrddhi ho gayee . ve mahaan ahankaaree, paraspar virodhee aur raajy kee kaamana karanevaale the . anantar raajy ke lobh se kaurav aur paandavon kee tarah paraspar yuddh karake samudr kee laharon kee bhaanti ladate hue ve sabhee nasht ho gaye . vah stree apane vansh ka is prakaar sanhaar dekhakar chhaatee peetakar karunaapoorvak vilaap karatee huee moorchchhit ho prthvee par gir padee . raaja bhee shok se peedit ho rone laga .
isee samay braahman ka roop dhaaran kar bhagavaan braahman ka roop dhaaran kar bhagavaan vishnu dvijon ke saath vahaan aaye aur raaja tatha raanee ko upadesh dene lage – ‘yah vishnu kee maaya hai . tum log vyarth hee ro rahe ho . sampoorn praaniyon kee ant mein yahee sthiti hotee hai . vinnu maaya hee aisee hai ki usake dvaara saikadon chakravartee aur hajaaron indr usee tarah nasht kar diye gaye hain jaise deepak ko prachand vaayu vinasht kar detee hai . samudr ko sukhaane liye bhoomi ko peesakar choorn kar daalane kee tatha parvat ko peeth par uthaane kee saamarthy rakhanevaale purush bhee kaal ke karaal mukh mein chale gaye hain . trikoot parvat jisaka doorg tha, samudr jisakee khaeen thee, aisee lanka jisakee raajadhaanee thee, raakshasagan jisake yoddha the, sabhee shaastron aur vedon ko jaananevaale shukraachaary jisake liye mantrana karate the, kuber ke dhan ko bhee jisane jeet liya tha, aisa raavan bhee daivavash nasht ho gaya . yuddh mein, ghar mein, parvat par, agni mein, gupha mein athava samudr mein kaheen bhee koee jaen, vah kaal ke kop se nahin bach sakata . bhaavee hokar hee rahatee hai . paataal mein jaen, indralok mein jaen, meru parvat par chadh gaye, mantr, aushadh, shastr aadi se bhee kitanee bhee apanee raksha kare, kintu jo hona hota hai, vah hota hee hai – isamen kisee prakaar ka sandeh nahin hai . manushyon ke bhaagyaanusaar jo bhee shubh aur ashubh hona hai, vah avashy hee hota hai . hajaaron upaay karane par bhee bhaavee kisee bhee prakaar nahin tal sakatee . koee shok vihval hokar aansoo tapakaata hai, koee rota hai, koee badee prasannata se naachata hai, koee manohar geet gaata hai, koee dhan ke liye anek upaay karata hai, is tarah anek prakaar ke jaal kee rachana karata rahata hai, at: yah sansaar ek naatak hai aur sabhee praanivareg us naatak ke paatr hain .’
itana upadesh dekar bhagavaan ne raanee ka haath pakadakar kaha – ‘naarad jee ! tumane vishnu kee maaya dekh lee . utho ! ab snaan kar apane putr – pautron ko arghy dekar aurdhvadaihik krty karo . yah maaya vishnu ne svayan nirmit kee hai .’ itana kahakar usee punyateerth mein naarad ko snaan karaaya . snaan karate hee stree roop ko chhodakar naarad muni ne apana roop dhaaran kar liya . raaja ne bhee apane mantree aur purohiton ke saath dekha ki jataadhaaree, yagyopaveetadhaaree, dand kamandalu liye, veena dhaaran kiye hue, khadaoon ke oopar sthit ek tejasvee muni hain, yah meree raanee nahin hai . usee samay bhagavaan naarad ka haath pakadakar aakaash maarg se kshanamaatr mein shvetadveep aa gaye .
bhagavaan ne naarad se kaha – devarshi naarad jee ! aapane meree maaya dekh lee . naarad ke dekhate dekhate aisa kahakar bhagavaan vishnu antarhit ho gaye . devarshi naarad jee ne bhee hansakar unhen pa3naam kiya aur bhagavaan kee aagya praapt kar teenon lokon mein ghoomane lage . mahaaraaj ! is vishnu maaya hamane sankshep mein varnan kiya . is maaya ke prabhaav se sansaar ke jeev putr, stree, dhan aadi mein aasakt ho rote gaate hue anek prakaar kee cheshtaen karate hain .