पाप का फल सबको भुगतना ही पड़ता है। कभी कभी हमें लगता है कि कोई पाप करने के बाद भी अच्छा जीवन जी रहा है। लगातार उन्नति कर रहा है। लेकिन अंततः उसे अपने किये गए बुरे कर्मों का फल भोगने ही पड़ता है। इसी प्रसंग पर एक बार एक साधु ने अपनी आपबीती सुनाई। जो इस प्रकार है —
अपनी जवानी के दिनों में मैं गरीबी भरा जीवन जी रहा था। बड़ी मुश्किल से जीवनयापन हो रहा था। इसके अलावा जो सबसे बड़ा दुख था वह ये कि मेरे कोई संतान भी नहीं थी। मैं प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करता कि मेरे कष्ट दूर करो।
आखिरकार एक दिन ईश्वर ने मेरी सुन ही ली। एक दिन मेरे शहर का ही एक परिचित व्यक्ति मेरे पास आया। उसने मेरे सामने साझे में व्यापार करने का प्रस्ताव रखा। उसने कहा कि पैसा वह लगाएगा। मुझे केवल व्यापार की देखभाल करनी है।
मैंने खुशी खुशी उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। हमने साझे में व्यापार शुरू कर दिया। हमने मुम्बई से रुई की गांठे खरीदीं। ईश्वर की कृपा से हमें उसमें दो लाख का मुनाफा हुआ। पैसा लाने हम दोनों मुम्बई गए।
पैसा लेकर हम लोग एक होटल में रुके। मैंने इतना पैसा जीवन में पहली बार देखा था। मेरे मन में चोर आ गया। मैंने सोचा यदि यह पूरा पैसा मेरा हो जाये, तो मेरे सारे सपने पूरे हो जाएंगे। इसके लिए मैंने एक योजना बनाई।
मैं होटल से निकलकर बाजार गया और वहां से जहर खरीदकर लाया। उसे मैंने अपने पार्टनर को दूध में मिलाकर पिला दिया। रात में ही उसकी मौत हो गयी। सुबह मैंने एक गाड़ी बुलाई और सबको बताया कि मेरा दोस्त बीमार हो गया है।
उसको गाड़ी में लिटाकर मैं समुद्र के किनारे लाया और लोगों की नजर बचाकर उसकी लाश समुद्र में बहा दी। उसके बाद मैं सारे पैसे लेकर अपने शहर वापस लौट आया। मेरे लौटने की खबर पाकर मेरे पार्टनर के घर वाले उसकी खबर लेने आये।
मैंने रोते हुए उन्हें बताया कि मुम्बई पहुंचते ही उसे हैजा हो गया। बहुत इलाज कररने के बाद भी वह नहीं बच सका। सारा पैसा उसके इलाज में खर्च हो गया। केवल दस हजार रुपये बचे हैं। जो मैंने उसके घर वालों को दे दिए।
मेरे नाटक करने और पैसे देने से उसके घरवालों को मेरे ऊपर विश्वास हो गया। उसके बाद मैंने अकेले व्यापार शुरू किया। मेरा व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ता गया। जल्दी ही मेरी गिनती शहर के सबसे अमीर लोगों में होने लगी।
फिर मेरा सबसे बड़ा कष्ट भी दूर हो गया। मुझे सन्तान के रूप में एक पुत्र भी प्राप्त हो गया। मुझे लगा कि शायद मेरे पाप मुझे फल रहा है। पुत्र जब बड़ा हुआ तो मैंने उसे पढ़ने के लिए विदेश भेज दिया।
वहां से लौटने पर उसके विवाह के लिए बड़े बड़े सेठ प्रस्ताव लेकर मेरे दरवाजे पर आने लगे। मैं प्रसन्नता के सातवें आसमान पर था। फिर मेरे कर्मों का भोग शुरू हुआ। एक रात मेरा पुत्र अपने दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने गया।
सुबह उसे तेज बुखार था। मैंने डॉक्टर को दिखाया, लेकिन आराम होने के बजाय बुखार और बढ़ गया। फिर मैंने शहर के सबसे बड़े और नामी डॉक्टरों को दिखाया। उन्होंने परीक्षण के बाद बताया कि इसे क्षय रोग हो गया है।
अब यह कुछ दिनो का ही मेहमान है। मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई। मैंने उनसे कहा कि चाहे जितना पैसा ले लो, लेकिन मेरे लड़के को ठीक कर दो। इस पर उन्होंने कहा कि इसका इलाज यहां नहीं है।
अगर आप इसे स्विट्जरलैंड ले जाओ तो शायद यह बच जाए। मैं उसे लेकर स्विट्जरलैंड गया। एक साल तक वहां रहकर मैंने उसका इलाज कराया। उसके इलाज में लगभग मेरा सारा धन खर्च हो गया।
फिर एक दिन वहां के डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया। उन्होंने कहा कि इसे घर ले जाइए, यह केवल कुछ दिनों का ही मेहमान है। मैं उसे लेकर अपने घर आ गया।
एक दिन उसकी तकलीफ अपने चरम पर पहुँच गयी। ऐसा लगा कि अब उसका अंतिम समय आ गया है। मैंने अत्यंत दुखी भाव से उसे पुकारा, “बेटा, एक अंतिम बार आंखें खोलकर मुझसे बात कर लो।”
इसपर उसने आंखें खोलीं और हंसकर बोला, “पिताजी, मुझे ध्यान से देखिए और पहचानने की कोशिश कीजिये कि मैं कौन हूँ ? मैं आपका वही पार्टनर हूँ, जिसकी आपने हत्या की थी। मैं आपसे अपना बदला लेने आया था। अब तक मैंने अपना सारा धन ले लिया है। केवल पांच सौ रुपये बचे हैं, वह आप मेरी अंत्येष्टि में खर्च कर देना।”
इतना कहकर उसने अपने प्राण त्याग दिए। मैं ठगा सा खड़ा उसे देखता रह गया। वह घटना जो मैं कब की भूल चुका था। चलचित्र की भांति मेरी आँखों के सामने ताजा हो गयी। दुख, पश्चाताप, आश्चर्य ने मुझे संज्ञाशून्य कर दिया था।
किसी तरह मैंने उसका अंतिम संस्कार किया और फिर वापस घर नहीं लौटा। वहीँ से मैंने जंगल की राह पकड़ ली। तब से हर मिलने वाले को मैं अपनी यह कहानी सुनाता हूँ। ताकि लोगों को पता चले कि किये गए पाप का फल यहीं, इसी जन्म में भुगतना पड़ता है।
Moral- सीख
यह कहानी शिक्षा देती है कि बुरे कर्मों का फल अंततः अवश्य ही भुगतना पड़ता है। कहा भी गया है–
अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशेवर्षे समूलं तद् विनश्यति।।
अर्थात अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दस वर्षों तक ही रहता है। ग्यारहवें वर्ष वह मूलधन सहित नष्ट हो जाता है।