कल्प वृक्ष के समान भक्तजनों के सभी मनोरथ पूर्ण करने वाले, वृंदावन की शोभा के अधिपति, आलोकिक कार्यो द्वारा, समस्त लोको को चकित करने वाले, वृंदावन बिहारी पुरुषोत्तम भगवान को नमस्कार करते है। नारायण, नर, नरोत्तम तथा देवी सरस्वती और श्रीव्यासजी को प्रणाम करती हूँ।
एक समय बहुत बड़ा यज्ञ करने की इच्छा से परम पवित्र नैमिषारण्य तीर्थ में बहुत से मुनि आये। जैसे – असित, देवल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन, ऋषि सुमति, कश्यप, जाबालि, भृगु, अंगिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत , ऋषि आपस्तम्ब, माण्डव्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य , ऋषि गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, क्रतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बधु, बौधायन, वसु , ऋषि कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, ध्रूम, शंकु, संकृति, शनि, विभाण्डक, पंक, गर्ग, काणाद , ऋषि जमदग्नि, भरद्वाज, धूमप, मौनभार्गब, कर्कश, शौनक तथा महातपस्वी शतानन्द , ऋषि विशाल, वृद्धविष्णु, जर्जर, जय, जंगम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि , ऋषि महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाबल, उद्दालक, महासेन, आर्त, आमलकप्रिय , ऋषि ऊर्ध्वबाहु, ऊर्ध्वपाद, एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिंगल, अत्रि, ऋभु , ऋषि शाण्डीर, करुण, काल, कैवल्य, कलाधार, श्वेतबाहु, रोमपाद, कद्रु, कालाग्निरुद्रग, ऋषि श्वेताश्वर, आद्य, शरभंग, पृथुश्रवस् आदि शिष्यों के सहित ये सब ऋषि अंगों के सहित वेदों को जानने वाले, ब्रह्मनिष्ठ, संसार की भलाई तथा परोपकार करने वाले, दूसरों के हित में सर्वदा तत्पर, श्रौत, स्मार्त कर्म करने वाले ये सभी ऋषि अपने शिष्यों के साथ एकत्रित हुए।
इधर तीर्थयात्रा की इच्छा से सूतजी अपने आश्रम से निकले और पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उसी समय वो भी अपने शिष्यों के साथ नैमिष शरण पधारे…
उन्होंने अनन्तर पेड़ की लाल छाल को धारण किया हुआ था वे प्रसन्न मुख,शांत, परमार्थ, विशारद, समग्र आदि गुणों से युक्त, संपूर्णा आनन्दों से परिपूर्ण, तुलसी की माला से सुशोभित, जटा के मुकुट से विभूषित, समस्त आपत्तियों से रक्षा करने वाले अलौकिक चमत्कार को दिखाने वाले भगवान के परम मंत्र को जपते हुए, समस्त शास्त्रों के सार को जानने वाले, संपूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न, जितेंद्रिय तथा क्रोध को जीतने वाले, जीवन्मुक्त जगतगुरु श्री व्यासजी की तरह और उन्हीं की तरह निस्पृह आदि गुणों से युक्त सूतजी महाराज शोभायमान हो रहे थे…
उनको देख उस नेमिषारण्य में रहने वाले समस्त महर्षि गण उठ खड़े हुए। सभी मुनिगण हाथ जोड़कर बोले –
हे सूतजी महराज!
आप चिरायु हो.. आपके लिए ये मनोहर आसन है आप इस पर विराजमान हो.. ये कह कर सभी ऋषि मुनि बैठ गए… तब नम्र स्वभाव वाले सुत जी ने प्रसन्न हो कर सब ऋषियोँ को हाथ जोड़कर बारंबार दंडवत प्रणाम किया।
ऋषि लोग बोले –
हे सूतजी! आप चिरन्जीवी तथा भगवद्भक्त होवो। हम लोगों ने आपके योग्य सुन्दर आसन लगाया है। हे महाभाग! आप थके हैं, यहाँ बैठ जाइये, ऐसा सब ब्राह्मणों ने कहा। इस प्रकार बैठने के लिए कहकर जब सब तपस्वी और समस्त जनता बैठ गयी।
तब विनयपूर्वक तपोवृद्ध समस्त मुनियों से बैठने की अनुमति लेकर प्रसन्न होकर आसन पर सूतजी बैठ गए।
तदनन्तर सूतजी को सुखपूर्वक बैठे हुए और श्रमरहित देखकर पुण्यकथाओं को सुनने की इच्छा वाले समस्त ऋषि बोले।
ऋषि बोले हे सुत जी! हे महाभाग!
आप भाग्यवान है.. भगवान व्यास के वचनों के हार्दिक अभिप्राय को गुरु की कृपा से आप जानते हैं। क्या आप सुखी तो है? आज बहुत दिनों के बाद कैसे इस वन में पधारें? आप प्रशंसा के पात्र हैं… हे व्यास शिष्य शिरोमणि आप पूज्य है!
इस असार संसार में सुनने योग्य हजारों विषय हैं परंतु उनमे श्रयस्कर थोड़ा- सा और सारभूत जो हो वह हम लोगों से कहिए। हे महाभाग! संसार समुद्र में डूबते हुए को पार करने वाला तथा शुभ फल देने वाला आपके मन मैं निश्चित विषय जो हो, वही हम लोगों से कहिए… अज्ञान रुप अंधकार से अंधे हुओ को ज्ञान रूप चक्षु देने वाले भगवान के लीला रूपी रस से युक्त परमानंद का कारण संसार रूपी लोगों को दुख दूर करने में रसायन के समान जो कथा का सार है वह शीघ्र ही कहिए।
इस प्रकार शौनक आदि ऋषियोँ के पूछने पर हाथ जोड़कर
सुत जी बोले:-
हे समस्त मुनियों ! मेरी कही हुई सुंदर कथा को आप लोग सुनिए। हे विप्र! पहले मैं पुष्कर तीर्थ को गया, वहां स्नान करके पवित्र ऋषियों देवताओं तथा पितरों को तर्पण आदि से तृप्त करके तब समस्त प्रतिबंधों को दूर करने वाली यमुना के तट पर गया, फिर क्रम से अन्य तीर्थों में जाकर गंगा तट पर गया, पुनः काशी आकर अनन्तर गया तीर्थ पर गया… पितरों का श्राद्ध करके तब त्रिवेणी पर गया.. तदन्तर कृष्णा के बाद गंडकी में स्नान कर पुलह ऋषि के आश्रम पर गया…
फिर कृतमाला कावेरी निर्वन्धिया, तामृणिका, तापी, वैहायसी, नन्द, नर्मदा, शर्मदा,नदियों पर गया। पुनः चर्मण्वती में स्नान कर पीछे सेतुबंध रामेश्वर पहुंचा। तदनंतर नारायण का दर्शन करने के हेतु बद्री वन गया। तब नारायण का दर्शन कर वहां तपस्वियों को अभिनंदन कर पुनः नारायण को नमस्कार कर और उनकी स्तुति कर सिद्धक्षेत्र पहुंचा.. इस प्रकार बहुत क्षेत्रों में घूमता हुआ कुरुक्षेत्र तथा जाड्गलं देश में घूमता फिरता हुआ हस्तिनापुर में गया है।
द्विजों वहां यह सुना कि राजा परीक्षित राज्य का त्याग कर बहुत से ऋषि मुनियों के साथ पुण्यप्रद गंगा तीर पर गए हैं। और उस गंगा तट पर बहुत से सिद्ध सिद्धि है। भूषण जिनका ऐसे योगी लोग और देव ऋषि वहां पर आए हैं। उसमे कोई निराहार, कोई वायु भक्षण कर, कोई जल पी कर, कोई पत्ते खाकर, कोई श्वास ही को आहार कर, कोई फलाहार का, और कोई कोई फेन का आहार कर रहते है।
हे द्विजों! उस समाज में कुछ पूछने की इच्छा से हम भी गए… वहां ब्रम्हस्वरूप भगवान महामुनि व्यास के पुत्र बड़े तेज वाले बड़े प्रतापी श्री कृष्ण के चरण कमलों को मन से धारण किए हुए श्री शुकदेव जी आए। उन 16 वर्ष के योगीराज शंख की तरह कंठ वाले, बड़े लंबे चिकने बालो से घिरे हुए मुख वाले, बड़ी पुष्ट कंधों की संधि वाले, चमकती हुई कांति वाले, अवधूत रूप वाले, ब्रह्म रूप वाले युवा से घिरे हुए। महामुनि शुकदेवजी को देख सब मुनि प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़कर सहसा उठ खड़े हो गए। इस प्रकार महा मुनियों के द्वारा सत्कृत भगवान शुकदेव जी को देख कर पश्चाताप करती हुई स्त्रियां और साथ के बालक जो उनको देख रहे थे, दूर हो खड़े रह गए और भगवान शुकदेव को प्रणाम करके अपने अपने घर की प्रति जाते रहे।