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संन्यासी की क्षमा याचना !!

स्वामी विवेकानंद नए-नए संन्यासी बने थे। उस समय तक उन्होंने प्राणिमात्र में समान भाव से ईश्वर के दर्शन के संदेश का गंभीरता से अध्ययन नहीं किया था।

स्वामीजी युवावस्था में काफी समय तक ग्रामीण अंचलों का भ्रमण करने में लगे रहे। वे गाँवों की स्थिति का अध्ययन करने तथा लोगों को सदाचारी बनने और दुर्व्यसनों से दूर रहने का उपदेश दिया करते थे।

एक दिन भीषण गरमी में स्वामीजी एक गाँव से गुजर रहे थे। प्यास लगी, तो खेत की मेड़ पर बैठे एक व्यक्ति को लोटे से पानी पीते देखकर कहा, ‘भैया, मुझे भी थोड़ा पानी पिला दो। ‘

उस ग्रामीण ने भगवा वस्त्रधारी को देखकर सिर झुकाया तथा बोला, ‘महाराज, मैं निम्न जाति का व्यक्ति आपको अपने हाथ से पानी पिलाकर पाप मोल नहीं ले सकता।’ स्वामीजी यह सुनकर आगे बढ़ लिए।

कुछ ही क्षणों में उन्हें लगा कि मैंने साधु बनने के लिए जाति, परिवार तथा पुरानी प्रचलित गलत मान्यताओं का त्याग कर दिया, फिर आग्रह करके उस निश्छल ग्रामीण का पानी 

क्यों नहीं स्वीकार किया। मेरा सोया जाति अभिमान क्यों जाग उठा? यह तो अधर्म हो गया। वे तुरंत किसान के पास लौटकर बोले, ‘भैया, मुझे क्षमा करना ।

मैंने तुम जैसे निश्छल परिश्रमी व्यक्ति के हाथों से पानी न पीकर घोर पाप किया है। निम्न जाति तो उसकी होती है, जो दुर्व्यसनी और अपराधी होता है । ‘ स्वामीजी ने उसके हाथ से लोटा लेकर पानी ग्रहण किया। बाद में वे खुलकर ऊँच-नीच की भावना पर प्रहार करते रहे।

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