सर्वव्यापक परमात्मा ही भगवान श्रीविष्णु हैं। यह सम्पूर्ण विश्व भगवान विष्णु की शक्ति से ही संचालित है। वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी। वे अपने चार हाथों में क्रमश: शंक, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं। जो किरीट और कुंडलों से विभूषित, पीतांबरधारी, वनमाला तथा कौस्तुभमणि को धारण करने वाले, सुंदर कमलों के समान नेत्र वाले भगवान श्रीविष्णु का ध्यान करता है वह भव- बंधन से मुक्त हो जाता है।
पद्मपुराण के उत्तरखंड में वर्णन है कि भगवान श्रीविष्णु ही परमार्थ तत्त्व हैं। वे ही ब्रह्मा और शिवसहित समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं। वे ही नारायण, वासुदेव, परमात्मा, अच्युत, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर तथा हिरण्यगर्भ आदि अनेक नामों से पुकारे जाते हैं। नर अर्थात जीवों के समुदाय को नार कहते हैं। संपूर्ण जीवों के आश्रय होने के कारण भगवान श्रीविष्णु ही नारायण कहे जाते हैं । कल्प के प्रारंभ में एकमात्र सर्वव्यापी भगवान नारायण ही थे। वे ही संपूर्ण जगत की सृष्टि करके सबका पालन करते हैं और अंत में सबका संहार करते हैं। इसलिए भगवान श्रीविष्णु का नाम हरि है। मत्स्य, कर्म, वाराह, वामन, हयग्रीव तथा श्रीरामकृष्णादि भगवान श्रीविष्णु के ही अवतार हैं।
भगवान श्रीविष्णु अत्यंत दयालु हैं । वे अकारण ही जीवों पर करुणा-वृष्टि करते हैं। उनकी शरण में जाने पर परम कल्याण हो जाता है। जो भक्त भगवान श्रीविष्णु के नामों का कीर्तन, स्मरम, उनके अर्चाविग्रह का दर्शन, वन्दन, गुणों का श्रवण और उनका पूजन करता है, उसके सभी पाप-ताप विनष्ट हो जाते हैं। यद्दपि भगवान विष्णु के अनंत गुण हैं, तथापि उनमें
भक्त वत्सलता का गुण सर्वोपरि है। चारों प्रकार के भक्त जिस भावना से उनकी उपासना करते हैं, वे उनकी उस भावना को परिपूर्ण करते हैं। ध्रुव, प्रह्लाद, अजामिल, द्रौपदी, गणिका आदि अनेक भक्तों का उनकी कृपा से उद्धार हुआ। भक्तवत्सल भगवान को भक्तों का कल्याण करने में यदि विलंब हो जाए तो भगवान उसे अपनी भूल मानते हैं और उसके लिए क्षमा- याचना करते हैं। धन्य है उनकी भक्त वत्सलता। मत्स्य, कूर्म, वाराह, वामन, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि अवतारों की कथाओं में भगवान श्रीविष्णु की भक्त वत्सलता के अनेक आख्यान आए हैं। ये जीवों के कल्याण के लिए अनेक रूप धारण करते हैं। वेदों में इन्ही भगवान श्रीविष्णु की अनन्त महिमा का गान किया गया है।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वर्णन मिलता है कि लवण समुद्र के मध्य में विष्णु लोक अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है । उसमें भगवान श्रीविष्णु वर्षा- ऋतु के चार मासों में लक्ष्मी द्वारा सेवित होकर शेषशय्या पर शयन करते हैं। पद्मपुराण के उत्तरखंड के 228 वें अध्याय में भगवान विष्णु के निवास का वर्णन है। वैकुण्डधाम के अन्तर्गत अयोध्यापुरी में एक दिव्य मंडप है। मण्डप के मध्यभाग में रमणीय सिंहासन है। वेदमय धर्मादि देवता उस सिंहासन को नित्य घेरे रहते हैं। धर्म, ज्ञान, ऐश्वर्य, वैराग्य सभी वहां उपस्थित रहते हैं। मण्डप के मध्य भाग में अग्रि, सूर्य और चंद्रमा रहते हैं। कूर्म नागराज तथा संपूर्ण वेद वहां पीठरूप धारण करके उपस्थित रहते हैं। सिंहासन के मध्य में अष्टदल कमल हैं; जिसपर देवताओं के स्वामी परम पुरुष भगवान श्रीविष्णु लक्ष्मी के साथ विराजमान रहते हैं।
भक्त वत्सल भगवान श्रीविष्णु की प्रसन्नता के लिए जपका प्रमुख मंत्र- ‘ॐ
नमो नारायणाय’ तथा ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ है।