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सेर को सवा सेर !!

शहर गंगापुर में सबसे बड़ी दुकान दमड़ी साह की थी। उनकी दुकान पर जरूरत का हर सामान मिल जाता था। लेकिन दमड़ी साह थे बड़े नफाखोर। से सस्ती और बेकार चीजें उठा लाते और यहां मनमाने दामों में बेचते।
चावल- मिलावट भी खूब करते। पिसी धनिया में लकड़ी का बुरादा, दालों में छोटे पत्थरपिसी मिर्च में ईटों का बुरादा, काली मिर्च में पपीते के बीज।

सब जानते हुए भी लोग कुछ न कह पाते। मजबूरी थी। आस पास कोई ऐसी दुकान भी नहीं थी। जहां जरूरत का हर सामान मौके पर मिल जाए। उसी गांव में सोहन नाम का एक सयाना आदमी रहा करता था।

दमड़ी साह की आदतों से तंग आकर उसने उन्हें सबक सिखाने की सोची। एक दिन वह सुबहसुबह दुकान के आगे जाकर खड़ा हो गया और बोला, “रामरामसाहजी ।”
“हां-हां, ठीक है। क्या चाहिए?” दमड़ी साह ने भौंहें टेढ़ी करके पूछा। “चाहिए तो कुछ नहीं, बस दावत का न्यौता देने आया था?” “दावत.किस खुशी में?” दमड़ी साह को आश्चर्य तो हुआ, पर दावत के नाम पर मन ही मन लड्डू फूटने लगे।

‘अरेगांव के रिश्ते से आप ठहरे चाचा और हम भतीजा। अब आप ही बताइए, अपने चाचा को दावत में बुलाने के लिए कोई कारण ढूंढ़ना पड़ेगा भला?”

दमड़ी साह का मन प्रसन्न हो उठा। मुंह में पानी भर आया। आंखों के सामने पकवानों की थालियां नाचने लगी।
उन्हें ख़्यालों में डूबा देखकर सोहन ने और उकसाया, “देखो चाचा,

कोई जोरजबरदस्ती नहीं है। हमने तो अपना समझकर कहा था। अगर मर्जी न हो, तो रहने दो। हम गरीबों के घर वैसे भी कौन आता है?” सोहन जानता था कि दमड़ी साह मुफ्त की दावत छोड़ने वालों में से नहीं हैं।

शिव! शिव! ऐसी अशुभ बातें मुंह से क्यों निकालते हो? तुम बुलाओ और भला मैं न आऊं। आऊंगा भतीजेअवश्य आऊंगा।” दमड़ी साह मक्खन की तरह मुलायम होकर बोले।

न्यौता देकर सोहन चला गया। दमड़ी साह का वह दिन मुश्किल से कटा । दावत की बात सोच-सोचकर
लार टपकती रही। शाम ढलते ही दुकान बंद की। नहाधोकर धोतीकुर्ता पहना, टोपी लगाई और छड़ी उठाकर चल पड़े।
सोहन ओसारे में बैठा प्रतीक्षा कर रहा था। उसने मुस्कुराते हुए दमड़ी साह का स्वागत किया और बैठक में ले गया। थोड़ी देर की औपचारिक बातचीत के बाद खाने की थालियां सजने लगीं। पकवानों की महक से
दमड़ी साह का मन बेचैन हो उठा।

उन्होंने आव देखा न ताव। उतावले होकर एक कचौड़ी मुंह में डाल ली। लेकिन यह क्या? मुंह चलाते ही दांतों
में जैसे रेत खिसखिसा उठी। दमड़ी साह हक्का-बक्का रह गया। न उगलते बनेन निगलते।

चेहरे की रंगत बदलती देख सोहन बोला, “क्या हुआ चाचा? कचौड़ियां अच्छी नहीं लगीं?” “नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.बहुत बढ़िया हैं, स्वादिष्ट हैं”, दमड़ी साह हड़बड़ाकर बोले। “हां-हां होंगी क्यों नहीं! आपकी दुकान से ही तो आटा मंगवाया था।

” दमड़ी साह पर घड़ों पानी पड़ गया। जान बचाकर वह पुलाव की ओर लपके। पुलाव महक भी खूब रहा था। सोचा कचौड़ी न सहीइसी से पेट भर लेंगे। पर जब पुलाव का एक निवाला मुंह में डाला तो चीख निकल
गई। चावल में बुरी तरह कंकड़ भरे हुए थे। अब तो दमड़ी साह की हालत देखने लायक हो गई।

उनकी हालत पर मजा लेते हुए सोहन बोला”लगता है आपको पुलाव भी अच्छा नहीं लगा। मैंने तो बड़ी उम्मीद से आपकी दुकान से बासमती चावल मंगवाए थे। खेर कोई बात नहीं, अब यह खीर खा लीजिए।”

“क्या खीर के लिए शक्कर भी..? ” दमड़ी साह एकदम घबरा गए। “हां-हां, शक्कर भी आपकी दुकान से मंगवाई थी।” सोहन कुटिलता मुस्कुराया। दमड़ी साह को उबकाई आ गई। याद आ गया कि उन्होंने झुनकू को
चूहों की गदंगी से भरी शक्कर बेची थी।

“खीर हो जाए तो एक प्याला चाय.” शुन कहने लगा। “क्या चायपत्ती भी…?”
“हां, चाचाजी, आपको छोड़कर हम भला और किसके पास जा सकते “मेरा पेटभर गया है, भतीजे। में तो चला…. ” और दमड़ी साह भाग “अरेपान तो खाते जाइए।” शुन पीछे से चिल्लाया, “ये आपकी दुकान के नहीं हैं।”
पर दमड़ी साह ऐसा भागे कि पीछे पलटकर नहीं देखा। आज उन्हें सोहन ने अच्छा मजा चखाया था।

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