Breaking News

मुंशी प्रेमचंद की कहानी: शूद्र!!

गांव के सिरे पर एक मां-बेटी झोपड़ी में रहती थी। मां विधवा थी तो बेटी कुवांरी। घर में और कोई आदमी न था। बेटी गौरा बाग से पत्तियां बटोर कर लाती तो मां गंगा भाड़ झोंकती थी। इससे सेर भर अनाज मिल जाता तो दोनों खाकर सो पड़ती थी। इसी से उनका गुजर-बसर हो रहा था।

हर मां की तरह गौरा की मां को भी हमेशा यही चिंता रहती थी कि किसी तरह उसकी बेटी की सगाई हो जाए। पति के मर जाने के बाद गंगा ने कभी दूसरा घर नहीं बसाया, न ही कोई रोजगार शुरू किया था। तब भी मां-बेटी सुकून से रहती थीं। इस बात को लेकर गांव के लोगों पर मां-बेटी पर संदेह होता था। सबके मन में यही सवाल आता था कि दोनों स्त्रियां कोई धंधा नहीं करती, कोई मर्द भी नहीं है तो फिर ये इतने आराम से कैसे रहती हैं। कभी इन्हें किसी के सामने हाथ फैलाते भी नहीं देखा। कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है।

शूद्रों की बिरादरी बहुत छोटी होती है। पांच-दस कोस से अधिक उनका दायरा नहीं होता। आखिर क्या कारण है कि कोई गौरा से शादी के लिए तैयार नहीं होता। गौरा की शादी के लिए मां-बेटी ने साथ कई तीर्थ यात्राएं की। उड़ीसा तक हो आए लेकिन कुछ हल नहीं निकला।

गौरा सुंदर और सुशील थी, लेकिन किसी ने उसे कुएं पर हंसते-बोलते नहीं देखा था। उसकी निगाहें कभी ऊपर न उठती थीं। उसकी ये हरकत गांव वालों के शक को और मजबूत करती थी। सभी को यही लगता कि कोई स्त्री इतनी सती कैसे हो सकती है। दिन गुजरते गए। गौरा की मां चिंता में घुलती जा रही थी। उधर गौरा की सुंदरता, उसकी जवानी गांव वालों की नजरों में चुभ रही थी।

एक परदेसी गांव से दूर नौकरी की खोज में कलकत्ता जा रहा था। दस-बारह कोस दूर पहुंचते उसे रात हो गई। उस समय वह एक गांव में पहुंचा था। वह लोगों से किसी कहार का घर पूछते हुए गंगा के घर पहुंचा। परदेसी को देख गंगा बहुत खुश हुई। गंगा मे उस परेदसी से उसका नाम पूछा, तो परदेशी ने बताया कि उसका नाम मंगरू है। इसके बाद गंगा ने मंगरू का खूब आदर-सत्कार किया। उसके लिए अच्छे पकवान भी बनाएं। धीरे-धीरे दोनों की बातचीत भी बढ़ने लगी। इसी दौरान शादी की चर्चा भी छिड़ गई। मंगरू नौजवान था। तभी उसकी निगाह गौरा पर पड़ी। गौरा एक सुंदर और शांत हाव-भाव की लड़की थी, जिसे देखते ही मंगरू भी मोह में पड़ गया और वह झट से गौरा से सगाई के लिए मान गया।

उसने दो-चार गहने खरीदे और कपड़े उधार लेकर सगाई कर ली। गंगा बेटी-दामाद को अपनी नजरों से दूर नहीं करना चहाती थी, इसलिए दोनों गंगा के साथ ही रहने लगे। दस-पंद्रह दिन भी नहीं बीते थे कि मंगरू के कानों में कई तरह की बातें पड़ने लगी। बिरादरी के अलावा दूसरी जाति के लोग भी कई तरह की बातें बनाने लगे। मंगरू इन अटकलों से परेशान हो गया था, लेकिन वह गौरा को छोड़ना भी नहीं चाहता था।

एक महीने बाद मंगरू अपनी बहन के घर गया। बहन ने खाना परोसा। मंगरू ने बहनोई को साथ खाने के लिए कहा। बहनोई बोला- तुम खा लो, मैं बाद में खा लूंगा। मंगरू को कुछ संदेह हुआ। उसने साफ पूछ लिया कि आखिर बात क्या है?

बहनोई बोला- मैं तुम्हारे साथ नहीं खा सकता। तुमने बिरादरी से बाहर शादी की है। किसी से न कुछ पूछा, न कुछ बताया। जब तक पंचायत नहीं होगी मैं तुम्हारे साथ उठ-बैठ नहीं सकता। तुम्हारी हरकत की वजह से मैं समाज से रिश्ता नहीं खत्म कर सकता।

मंगरू तेजी से उठा और ससुराल लौट आया। मन बेचैन था। उसने किसी से कुछ नहीं कहा और रात के अंधेरे में गौरा को छोड़कर चला गया। इसी तरह कई साल बीत गए, लेकिन मंगरू का कुछ पता न चला। पति के गायब होने पर भी गौरा उदास न थी। वह हंसती-खेलती, मांग में सिंदूर लगाती, रंग-बिरंगे कपड़े पहन कर तैयार होती थी। अपने पीछे मंगरू एक भजन की किताब छोड़ गया था। खाली समय में गौरा उस किताब से कोई भजन गाती थी।

पहले गौरा गांव की औरतों से ज्यादा मिलती-जुलती नहीं थी। दरअसल, उसके पास उन स्त्रियों से बात करने के लिए कोई विषय ही नहीं होता था। गौरा के पास अब गृहस्थ जीवन की ढेरों बातें थी, जिसकी चर्चा वह गली मोहल्ले की औरतें के साथ करती थी। वह सभी को बताती कि मंदरू कितना अच्छा, सहनशील है। तभी वहां मौजूद एक स्त्री ने पूछ लिया- गौरा मंगरू तुम्हें छोड़ कर क्यों चला गया?

गौरा कहती- मर्द कभी ससुराल में रह सकता है भला? बाहर जाकर पैसे कमाना ही मर्द का असली काम है। वहीं जब कोई गौरा से ये सवाल करता कि- मंगरू खत क्यों नहीं लिखता?

इस पर गौरा मुस्कुरा कर कहती- अपना ठिकाना बताने से डरते हैं। जानते हैं कि गौरा सामने आ पहुंचेगी। सच कहूं तो मैं उनके बिना एक दिन भी नहीं रह सकती।

एक सहेली बोली- तेरी बात हम नहीं मानते। जरूर मंगरू और तेरी लड़ाई हुई होगी। तभी इसी तरह बिना बताए वह तुझे छोड़कर चला गया।

गौरा बोली- बहना, अपने भगवान से भी भला कोई लड़ता है क्या? जिस दिन ऐसी नौबत आई मैं कहीं जाकर डूब मरुंगी।

कई दिनों बाद कलकत्ता से एक आदमी आया और गंगा के घर रुका। इत्तेफाक से वह मंगरू का पड़ोसी निकला। उसने कुछ पैसे और दो साड़ियां गौरा के हाथ में थमाई और बोला कि मुझे मंगरू ने तुम्हे लेने भेजा है। ये सुनते ही गौरा की खुशी का ठिकाना न रहा। वह फटाफट जाने के लिए तैयार हो गई। गांव की औरतों से मिल आई और सबको अपने जाने की खबर दे आई। बेटी के जाने से गंगा मायूस थी, लेकिन साथ ही खुश भी थी।

रास्ते भर गौरा के मन में हजारों अच्छे-बुरे ख्याल आते रहे। बीच-बीच में उसे अपनी मां के अकेलेपन की भी याद आ जाती। डर सताता कि बेचारी अम्मा अकेले कैसे रहेगी, सारा काम अकेले करना पड़ेगा। बूढ़ी दिन भर रोती रहेगी। इसी उधेड़बुन में रास्ता कट गया। लगभग तीन दिनों बाद गाड़ी कलकत्ता स्टेशन पहुंची। गौरा का दिल जोर से धड़क रहा था।

वह प्लेटफार्म पर उतर कर मंगरू का इंतजार करने लगी। बूढ़ा बोला- मैंने आस पास सभी जगह देख लिया, लेकिन मंगरू तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। शायद अब तक आया नहीं है।

गौरा घबरा गई। तभी बूढ़ा बोला- चलो हम डेरा पर चलते हैं, उसे मालूम न था कि हम कौन सी गाड़ी से आ रहे हैं। ऐसे में भला उसकी राह देखने से कोई फायदा नहीं। गौरा बात मान गई और दोनों तांगे पर सवार होकर चल दिए।

यह पहली बार था जब गौरा गांव से बाहर निकली थी, उसकी आंखें इधर-उधर चीजों को निहारने में लगी हुई थी। अचानक तांगा एक सुंदर और विशाल भवन के सामने रूका। गौरा उतरी और तेजी से सीढ़ियों के सहारे ऊपर चढ़ने लगी। मंगरू से मिलने की थोड़ी भी देरी उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी।

तभी बूढ़े ने पहली मंजिल के एक कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा- यह मंगरू का कमरा है। जाओ वह अंदर ही पड़ा होगा। गौरा अंदर गई लेकिन कमरे में कोई न था। कोने में खाट और चार-पांच बर्तन पड़े हुए थे। वह बाहर आई और बूढ़े को बताया। बूढ़ा बोला- मंगरू काम पर गया होगा। शाम को लौटेगा। यहां वह किराये पर रहता है।

कमरे में मंगरू को न पाकर गौरा थोड़ी मायूस हो गई, लेकिन शाम को मिलने की सोच कर मुस्काई और साफ-सफाई में लग गई। उसने कमरे में झाड़ू लगाया, बर्तन धोए। नहा-धो कर शाम का इंतजार करने लगी। राह देखते-देखते देर शाम हो गई, लेकिन मंगरू का अब तक कोई पता न था। गौरा का मन फिर घबराने लगा। घना अंधेरा छा गया था। परंतु कमरे में एक दीपक तक न था। जब भी किसी की आहट होती तो गौरा को लगता मंगरू आया होगा, लेकिन दरवाजे पर कोई दस्तक न होती थी। कुछ देर बाद दस्तक हुई। गौरा दौड़ी और दरवाजा खोला।

सामने बूढ़ा खड़ा था। गौरा बोली- वो अब तक आए क्यों नहीं आया?

बूढ़ा बोला- अभी मैं मंगरू के दफ्तर से ही लौटा हूं। साहब ने बताया कि मंगरू का ट्रांसफर हो गया है। मंगरू ने साहब से कई मिन्नतें की लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी और दूसरी जगह भेज दिया। मैं दफ्तर से उसका नया पता ले आया हूं। कल सुबह तुम्हें जहाज पर बैठा दूंगा फिर तुम अपने मंगरू के पास चली जाना।

गौरा घबरा कर बोली- जहाज में? कितने दिन का सफर होगा?

बूढ़े ने कहा- कम से कम आठ से दस दिन तो जरूर लगेंगे। लेकिन घबराओ मत, तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी।

तय बात के मुताबिक अगले दिन गौरा बूढ़े के साथ मंगरू के पास जाने के लिए निकली। बूढ़े ने उसे जहाज पर बैठाया और विदा किया। जहाज जैसे-जैसे किनारे से अलग हो रहा था वैसे-वैसे गौरा को लग रहा था कि अब उसकी अम्मा, गांव सब पीछे छूट रहा है। चारों ओर पानी-पानी देख गौरा का मन अजीब हो रहा था। अंजान जगह में मंगरू को कहां खोजेगी, यह सोच-सोच कर उसका दिल बैठा जा रहा था।

जहाज पर कई स्त्रियां और पुरुष सवार थे। गौरा उन्हें देख और उनकी बातें सुन रही थी। तभी उसकी नजर एक कोने में अकेली बैठी स्त्री पर पड़ी। गौरा ने हिम्मत कर उससे पूछा- कहां जा रही हो बहन?

ये सुनते ही स्त्री की आंखें डबडबा गई। बोली- मुझे नहीं मालूम कि मैं कहां जा रही हूं। बस जहां भाग्य ले जाए वहां चली जा रही हूं। तुम कहां जा रही हो?

गौरा बोली- मैं तो अपने मालिक के पास।

स्त्री झट से बोली- बहन कोई तुम्हें बहला-फुसला कर लाया है। तुम किसके साथ यहां आई?

गौरा ने कहा- मुझे एक बूढ़ा ब्राह्मण यहां बैठा गया। मैं तो अपने पति से मिलने कलकत्ता आई थी।

स्त्री बोली- किनारे पर जो लंबा, दुबला-पतला सा बूढ़ा था, जिसकी एक आंख फूली हुई थी वही?

गौरा- हां, बहन वही।

स्त्री बोली- बहन उसी दुष्ट ने मेरा जीवन बर्बाद किया है। भगवान करे, उसकी सात पुश्तों को नरक नसीब हो। उस कपटी के कारण मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रही। अब जा रही हूं मिश्र देश, वहीं मेहनत-मजदूरी करके गुजर-बसर करूंगी।

ये सब सुनकर गौरा के मुंह से बोल न फूटे। वह सोचने लगी कि अब क्या करूंगी? उसे अपनी मां, अपने गांव, सहेलियों की याद आने लगी। कुछ क्षण बाद हिम्मत करके बोली- अब क्या करें बहन?

स्त्री बोली- अब यह तो वहां पहुंचने के बाद ही मालूम चलेगा। यह कहते-कहते वह जोर-जोर से रोने लगी और अपना दुख बताने लगी।

गौरा ने हिम्मत दी तो स्त्री ने बताया कि शादी के तीसरे साल में उसके पति की मौत हो गई। पति के ख्यालों के साथ वह किसी तरह जी ही रही थी कि एक रोज पापी बूढ़ा वेश बदलकर भिक्षा मांगने आया। उसने सन्यासी का रूप धारण किया हुआ था। मैं उसके जाल में फंस गई और आज मेरी यह दुर्दशा है। इसने मुझे पति से मिलवाने का लालच दिया। मैं बेवकूफ पति से मिलने की चाह में इस बहरूपिया की बात में फंस गई और इसके साथ चल दी। आगे कि कहानी मुझे नहीं मालूम। अगले दिन जब मुझे होश आया तो मैं घर भी नहीं लौट सकती थी। अब बूढ़ा मुझे यहां ले आया और जहाज पर छोड़ गया है।

स्त्री की बातें सुनकर गौरा को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या प्रतिक्रिया दे। वह बिल्कुल मौन हो गई थी। मंगरू से मिलन का सपना एक झटके में टूट गया था। गौरा को इस हाल में देख स्त्री बोली- भगवान पर भरोसा और साहस रखो बहन। हिम्मत पाकर गौरा बोली- मुझे अब तुम्हारा ही सहारा है, मैं और तुम दोनों अब साथ ही रहेंगे।

स्त्री कुछ न बोली। दोनों एक टक नीले आकाश की ओर निहारने लगी। कई घंटों बाद जहाज किनारे पर पहुंचा। सभी यात्री उतरने लगे। तट पर मौजूद एक आदमी सभी यात्रियों के नाम लिख रहा था। अब गौरा के उतरने की बारी आई। जैसे ही उसने पांव नीचे रखा, वह चौंक गई। उसके शरीर में करंट दौड़ गया। वह जड़ बन गई। न कुछ बोल पा रही थी और न ही पीछे से आवाज दे रहे यात्रियों की बात सुन रही थी। ऐसा लगा मानों दुनिया रुक गई हो।

गौरा के सामने वह दृश्य था, जिसकी उसने उम्मीद छोड़ दी थी। तट पर खड़ा व्यक्ति जो यात्रियों के नाम लिख रहा था वह कोई और नहीं बल्कि मंगरू था। गौरा इस क्षण सातवें आसमान पर थी। उसकी खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी। मंगरू ने अपना हाथ आगे बढ़ाया। गौरा ने प्रतिक्रिया न दी। इतने में यात्रा के दौरान मिली स्त्री ने गौरा को कोहनी मारी। गौरा लड़खड़ा गई। मंगरू ने उसे थाम लिया।

स्त्री- क्या हुआ? इस आदमी को पहचानती हो?

गौरा बोली- बहुत अच्छी तरह से। ये ही तो वे हैं जिनसे मिलने के लिए मैं घर से निकली।

स्त्री बोली- अच्छा तो ये तुम्हारे पति हैं। अब तो तुम मेरे साथ न आओगी? मुझे भूल जाओगी?

गौरा बोली- क्या ऐसा भी हो सकता है भला। तुमने मुझे सहारा दिया है।

मंगरू इन दोनों से दूर अपने काम पर लगा हुआ था। वह यात्रियों से जानकारियां जुटाने में व्यस्त था। गौरा कोने में खड़ी मंगरू को निहार रही थी। कुछ देर बाद उसका काम खत्म हुआ और वह गौरा के पास आया।

मंगरू- तुम कौन हो? क्या नाम है तुम्हारा और कहां से आई हो?

गौरा मंद-मंद मुस्काई और बोली- गौरा नाम है हमारा। मदनपुर, बनारस से आए हैं।

मंगरू ने उसका हाथ थाम लिया और आंखों में आंसू लिए बोला- भला तुम यहां आई कैसे?

गौरा ने उसके आंसू पोछे और चौंक कर बोली- तुमने ही तो बुलावा भेजा था, सो मैं आ गई।

मंगरू को समझ नहीं आया कि गौरा क्या कह रही है। उसने बोला- मैंने कब बुलावा भेजा? भला मैं तो पिछले 7 सालों से यहां कैद हूं। चाह कर भी घर नहीं जा सका।

गौरा घबरा कर बोली- तुमने बूढ़े को नहीं भेजा था मुझे लाने के लिए?

मंगरू बोला- बिल्कुल नहीं। गौरा का मन छोटा हो गया। उसने इस जवाब की आशा न की थी।

गौरा गुस्से में बोली- मैं कल ही यहां से चली जाऊंगी। मुझे तुम पर बोझ नहीं बनना।

मंगरू बोला- अब तुम यहां से अगले पांच सालों तक नहीं जा सकती गौरा। यही यहां का नियम है।

गौरा बोली- ठीक है फिर, मैं अलग रह कर अपना पेट पाल लूंगी, लेकिन तुम पर भार न बनूंगी।

मंगरू बोला- तुम मेरे लिए कभी बोझ नहीं हो सकती गौरा। तुम सती हो, देवी हो। जिस बूढ़े आदमी ने तुम बहकाया उसी ने मुझे भी यहां भेजा है। आओ मेरे साथ, मेरे ठिकाने पर चलो। वहां आराम करने फिर आगे बातें होगी। यह स्त्री कौन है तुम्हारे साथ?

गौरा बोली- यह मेरी सहेली है। यात्रा के दौरान जहाज पर मिली। इसका यहां कोई न है अत: यह मेरे साथ ही रहेगी।

मंगरू मान गया। तीनों लोग पैदल चल दिए। तभी सामने से दो लंबे-चौड़े शरीर के आदमी आते दिखाई दिए। मंगरू के पास आकर दोनों आदमियों ने बोला- आज से ये दोनों औरतें हमारी। मंगरू के क्रोध का ठिकाना न था।

मंगरू चिल्लाकर बोला- ये दोनों मेरे घर की स्त्रियां हैं, इन पर आंख तक न डालना।

दोनों आदमी ठहाके लगाकर हंस पड़े। मंगरू का गुस्सा और बढ़ गया। तभी एक आदमी गौरा की ओर बढ़ा और उसका हाथ पकड़ने की कोशिश करने लगा।

मंगरू चिल्लाया- छूना मत वरना अच्छा नहीं होगा।

दोनों आदमी सहम गए और बाद में देख लेने की धमकी देकर आगे निकल गए।

मंगरू, गौरा और उसकी सखी आगे बढ़ गए। मंगरू बोला- इसलिए मैं कह रहा था कि ये जगह तुम जैसी औरतों के लिए नहीं है।

अचानक सामने से एक अंग्रेज आ पहुंचा। उसने मंगरू से कहा- जमादार! ये दोनों औरतें आज से मेरे कोठे में रहेंगी।

मंगरू ने हाथ जोड़ लिए। बोला- साहब! यह मेरे घर की औरतें हैं। इन्हें जाने दीजिए।

अंग्रेज बोला- झूठ मत बोलो तुम। गौरा की ओर इशारा कर उसने कहा- इसको हमारी कोठी में भेज दो।

मंगरू कांप गया और ना में सिर हिलाने लगा, लेकिन तब तक अंग्रेज आगे बढ़ चुका था। साहब की बात पर अमल करना जमादार का काम था। मंगरू समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करे।

आखिरकार रास्ता खत्म हुआ। सामने मजदूरों के रहने के लिए मिट्टी के घर बने थे। बाहर दर्जनों की संख्या में स्त्री और पुरुष बैठे थे। सभी गौरा और सखी को गंदी नजरों से घूर रहे थे।

किसी तरह नजर बचाकर मंगरू दोनों औरतों को घर ले गया और खुद दरवाजे पर बैठा रहा। दोनों स्त्रियां कमरे के भीतर अपने भाग्य को कोसती तो मंगरू दरवाजे पर बैठा रखवाली करता रहा। किसी तरह रात बीती। अगले रोज दिन किसी तरह कट गया। रात के तकरीबन दस बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। मंगरू निकला तो देखा सामने सिपाही खड़ा है। सिपाही बोला- चलो तुम्हें साहब ने बुलाया है।

मंगरू बोला- भाई तुम हमारे देश के आदमी हो। मुझ पर मुसीबत आन पड़ी है। मदद करो, जाओ साहब को कह दो कि मंगरू घर पर नहीं है।

सिपाही बोला- न बाबा। वह बहुत गुस्से में है। मैं ऐसा कुछ नहीं कह सकता। तुम साथ चलो।

मंगरू के पास कोई चारा न था, वह सिपाही के साथ निकल गया। मंगरू को सामने देख साहब जोर से चिल्लाया- वह औरत कहां है? कल तुम उसे मेरे कोठे पर क्यों नहीं लाए?

मंगरू ने हाथ जोड़ लिए और बोला- वह मेरी पत्नी है, साहब।

साहब बोला- वह दूसरी कौन थी फिर?

मंगरू- मालिक वह मेरी बहन है।

साहब गुस्से में बोला- हम कुछ नहीं जानते हैं, तुम उन दोनों में से किसी एक को लेकर आओ, जल्दी।

मंगरू साहब के पैरों में गिर गया और रोने लगा, लेकिन साहब का दिल नहीं पसीजा। उसने आदेश दिया- जल्दी एक स्त्री को लेकर आओ वरना तुम्हें कोड़े पड़ेंगे।

मंगरू कोड़े खाने को तैयार हो गया। साहब नशे में था। उसने न आव सोचा न ताव। हंटर निकाला और कोड़े बरसाने शुरू किए। मंगरू की चीख निकल आई। साहब उसे लगातार कोड़े मारते रहे लेकिन वह अपने घर की औरतों की इज्जत देने को तैयार न हुआ। उसने अपने प्राण त्यागना बेहतर समझा।

इधर गौरा और सखी कमरे में बैठे मंगरू की बाट देख रही थी। उन्हें क्या पता कि मंगरू पर क्या बीत रही थी। अचानक किसी के चीखने-रोने की आवाज सुनाई पड़ी। कान लगाकर सुना तो कलेजा मुंह को आ गया। यह मंगरू की आवाज थी। गौरा दौड़ कर दरवाजे पर पहुंची। मंगरू की आवाज सुनकर उससे रहा न गया तो आवाज के पीछे दौड़ गई।

फाटक खुला था। गौरा कोई है, कोई है आवाज देने लगी, लेकिन जवाब न मिला। वह अंदर जा पहुंची। सामने मंगरू खुले बदन लहूलुहान हुए खड़ा था और अंग्रेज उस पर चाबुक बरसा रहा था। गौरा से यह सहन नहीं हुआ। वह दौड़कर मंगरू से लिपट गई और बोली- इनके बदले जितना चाहो मुझे मार लो लेकिन इन पर दया करो।

अंग्रेज खुश होकर गौरा से बोला- तुम यहां मेरे पास रहोगी तो मैं इसे छोड़ दूंगा। गौरा बहुत असहाय महसूस कर रही थी। कुछ न बोली। वहीं मंगरू दर्द से कहरा रहा था। जिस साथ के लिए वह यह सब कर रहा था उसकी आंखों के सामने वह उससे छूट रहा था।

गौरा ने दिल पर पत्थर रख कर कहा- मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है। लेकिन अपने पति के स्वस्थ होने के बाद मैं तुम्हारे पास आऊंगी। अंग्रेज बात मान गया। उसने मंगरू पर अत्याचार बंद किया और सिपाही को उसे अस्पताल में भर्ती कराने का आदेश दिया। मंगरू को अस्पताल ले जाया गया। गौरा भी उसके साथ थी। इलाज के दौरान गौरा एक क्षण के लिए भी मंगरू के सामने से नहीं हटी। चार दिनों के इलाज के बाद मंगरू ने आंखें खोली।

तय शर्त के मुताबिक अब गौरा को मंगरू का साथ छोड़ अंग्रेज के पास जाना था। यह उसे मंजूर नहीं था। ऐसे में उसने मरना बेहतर समझा। अस्पताल के बाहर नदी की धार बह रही थी। गौरा जाकर उसमें कूद पड़ी। आनन-फानन में एक अस्पताल कर्मचारी दौड़ा मंगरू के पास आया और गौरा के नदी में कूदने की सूचना दी। मंगरू की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे कुछ समझ नहीं आया। दौड़ कर नदी के सामने पहुंचा और छलांग मार दी। जीते जी जो कभी साथ नहीं रह पाए अब वे दोनों परलोक की यात्रा में साथ जा रहे थे।

कहानी से सीख :

शूद्र कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि व्यक्ति को अपना मन साफ और सच्चा रखना चाहिए। किसी कार्य को करने के पीछे यदि आपकी नियत नेक होती है तो नियति आपके साथ कभी बुरा नहीं करेगी।

Check Also

pakshi-budiyaa

बेजुबान रिश्ता

आँगन को सुखद बनाने वाली सरिता जी ने अपने खराब अमरूद के पेड़ की सेवा करते हुए प्यार से बच्चों को पाला, जिससे उन्हें ना सिर्फ खुशी मिली, बल्कि एक दिन उस पेड़ ने उनकी जान बचाई। इस दिलचस्प कहानी में रिश्तों की महत्वपूर्णता को छूने का संदेश है।