अस कछु समुझि परत रघुराया ! बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥ जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै । चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥ जब लगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं । तुलसिदास तब लगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ॥ ५ ॥ …
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