नमक का नया विभाग बनने के बाद नमक के व्यापार पर रोक लग गई। बावजूद इसके लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार कर रहे थे। नमक का व्यापार करने के लिए कई हथकंडे अपनाए गए। व्यापारियों ने कभी घूस देकर, तो कभी अपनी चालाकियों से इस व्यापार को अंजाम दिया। इधर, कुछ अधिकारी नमक विभाग में दारोगा पद के लिए लाइन में खड़े थे। यहां तक कि वकील भी इस विभाग को अपने कब्जे में लेने के लिए उत्सुक थे।
यह बात उस वक्त कि है जब लोग अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई धर्म को एक ही समझते थे। इस दौरान फारसी का भी ज्यादा प्रभाव था। प्रेम कहानियां और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसी लोग ऊंचे पद हासिल कर लेते थे। इधर, मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा से निकलकर सीरी और फरहाद की प्रेम कथा के सहारे काम ढूंढने निकल पड़े थे।
वंशीधर के पिता एक अनुभवी इंसान थे, इसलिए उन्होंने वंशीधर को घर की बिगड़ती आर्थिक दशा के बारे में बताया। उन्होंने कहा, “बेटियां जवान हो रही हैं और मैं अब कितने दिन का मेहमान हूं, कुछ नहीं कहा जा सकता। अब तुम्हें ही इस घर का बोझ संभालना है।” वंशीधर के पिता ने उन्हें समझाते हुए कहा, “नौकरी कैसी भी हो कर लेना, बस यह देखना कि तनख्वाह कितनी मिल रही है। नौकरी ऐसी ढूंढना, जिसमें ऊपरी कमाई हो, क्योंकि महीने की तनख्वाह से घर की जरूरतें पूरी नहीं हो सकती। ऊपरी आय भगवान का आशीर्वाद है, जिससे जिंदगी के हर शौक पूरे किए जा सकते हैं और इसी से बरकत भी होती है।”
वंशीधर के पिता ने उन्हें आगे समझाया, “यह बहुत समझदारी का काम है। पहले लोगों को देखो, उनकी जरूरतों को समझें और फिर मौके की तलाश में जुट जाओ। इसके बाद जो ठीक लगे वो करो। यह याद रखना कि जरूरतमंद व्यक्ति के साथ सख्ती से पेश आने में ही फायदा है।” वंशीधर बहुत होशियार और सज्जन पुरुष थे। वह पिता की सारी बातें सुनकर मंजिल की ओर बढ़ चले। समय का पहिया आगे बढ़ा और देखते ही देखते वंशीधर नमक के दारोगा बन गए। नमक विभाग में दारोगा की नौकरी पाकर वंशीधर बहुत खुश थे। वंशीधर की तरक्की देख पड़ोसियों को उनसे जलन होने लगी।
वंशीधर को नमक विभाग में छह महीने भी नहीं हुए थे कि विभाग के अधिकतर लोग उन पर आंख मूंदकर भरोसा करने लगे थे। उन्होंने अपने काम और अच्छे व्यवहार से आला अफसरों की नजरों में बड़ा सम्मान पा लिया था। विभाग के अफसर भी उन पर बहुत भरोसा करने लगे थे, जबकि कुछ अफसर वंशीधर से जलते भी थे।
सर्दियों का मौसम शुरू हो चुका था। वंशीधर के दफ्तर से कुछ दूरी पर जमुना नदी बहती थी, जिस पर एक छोटा पुल बना हुआ था। रात का समय था, नमक के सिपाही और चौकीदार नशे में मस्त थे। नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर भी दफ्तर में आराम कर रहे थे। उन्हें अचानक कुछ गाड़ियों और मल्लाहों की आवाजें सुनाई दीं। आवाज सुनकर दारोगा जी नींद से जागे। दारोगा जी के मन में सवाल आया कि आखिर इतनी रात में गाड़ियां नदी के पार क्यों जा रही हैं? दारोगा जी ने अपनी वर्दी पहनी और तमंचा जेब में रखकर पुल पर जा पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि कई गाड़ियां एक कतार में पुल पार कर रही हैं। उन्होंने कड़क आवाज में पूछा, “यह किसकी गाड़ियां हैं?”
दारोगा जी की दहाड़ सुनकर वहां थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। उनमें से किसी एक ने दारोगा जी को बताया, “ये पंडित अलोपीदीन की गाड़ियां हैं।” दारोगाजी ने पूछा, “अलोपीदीन कौन है?” वहां मौजूद लोगों ने कहा, “अलोपीदीन दातागंज के हैं।”
यह सुनकर दारोगा जी चौंक गए, क्योंकि पंडित अलोपीदीन इस इलाके के जाने-माने जमीदार थे और वह रोजाना लाखों रुपये का लेन-देन करते थे। इस इलाके में हर छोटे-बड़े शख्स ने उनसे कर्ज लिया हुआ था। पंडित अलोपीदीन का बहुत बड़ा व्यापार था। उन दिनों अंग्रेज अफसर शिकार खेलने उनके इलाके में आते और अलोपीदीन उनकी खातिरदारी करते थे।
दारोगाजी ने सामान ढो रहे मजदूरों से पूछा, “ये गाड़ियां कहां जाएंगी?” एक मजदूर ने जवाब, “कानपूर।” जब मुंशी ने पूछा कि इसमें क्या है, तो वहां एक बार फिर सन्नाटा पसर गया। यह देख मुंशी जी का शक बढ़ने लगा। फिर दारोगा जी ने जोर देकर पूछा, “क्या तुम सब गूंगे हो गए हो, मैंने पूछा इसमें क्या है?” जब इस बार भी किसी ने कोई जवाब नहीं दिया, तो मुंशी जी गाड़ी में लदे सामान को देखने चले गए। उन्होंने देखा कि गाड़ियां नमक से भरी हुईं है।
इस घटना की सूचना जैसे ही पंडित अलोपीदीन को मिली, वो लिहाफ ओढे दारोगा के पास खड़े हो गए और बोले, “दारोगा साहब ऐसा क्या अपराध हो गया हमसे कि गाड़ियों को आगे जाने नहीं दिया जा रहा है।” दारोगा वंशीधर ने कहा, “यह सरकारी आदेश है।” इस पर पंडित अलोपीदीन बोले, “आप ही हमारी सरकार हैं और हम किसी सरकार को नहीं जानते। यह तो आपका और हमारे घर का मामला है। हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं क्या? आपने बेवजह तकलीफ उठाई।”
अलोपीदीन ने आगे कहा, “ऐसा हो नहीं सकता कि इधर घाट से जाएं और आपकी सेवा न करें। मैं तो खुद आपकी सेवा करने के लिए आ रहा था।” लेकिन, वंशीधर पर पंडित अलोपीदीन की बातों का कोई असर नहीं हुआ। वंशीधर एक ईमानदार दारोगा थे, इसलिए अलोपीदीन की घूस देने की बात पर बोले, “मैं उन अफसरों जैसा नहीं हूं, जो पैसों के लिए अपना ईमान बेच देते हैं। मैं आपको हिरासत में लेने आया हूं और आपको मेरे साथ चलना होगा। मेरे पास बात करने का समय नहीं है।” इतना कहकर दारोगा जी ने जमादार बदलूसिंह से अलोपीदीन को हिरासत में लेने को कहा।
वंशीधर के कड़क रवैये से पंडित अलोपीदीन हैरान रह गए। वहां मौजूद सभी लोगों में हलचल मच गई। बदलूसिंह आदेश पाकर अलोपीदीन को हिरासत में लेने गया, लेकिन उसकी हिम्मत ना हुई कि वह उनका हाथ पकड़ ले। अलोपीदीन मन ही मन सोच रहे थे कि पहली बार कोई ऐसा अधिकारी देखा है, जो पैसों के आगे झुका नहीं। साथ ही वह यह भी सोच रहे थे कि दारोगा जी अभी नौजवान हैं और माया के मोहजाल से दूर हैं।
पंडित अलोपीदीन ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा, “बाबू साहब ऐसा ना कीजिए, हम मिट जाएंगे, हमारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपको क्या हासिल होगा। हम आपसे अलग नहीं हैं।” अलोपीदीन की अर्जी पर वंशीधर गुस्से में बोले, “मैं आपकी कोई भी बात सुनना नहीं चाहता।”
इधर, अलोपीदीन का यह भ्रम अभी तक नहीं टूटा था कि पैसों से किसी को भी खरीदा जा सकता है। उन्होंने वंशीधर को एक हजार रुपये देने की बात कही, लेकिन वंशीधर गुस्से में बोले, “एक लाख रुपये देने से भी मेरा ईमान नहीं डगमगाएगा।” अलोपीदीन के लाख कोशिशें करने के बाद भी वंशीधर अपने ईमान पर डटे रहे। बात चालीस हजार देने तक पहुंच गई, लेकिन दारोगा वंशीधर ने रुपयों के प्रति कोई लोभ न दिखाया।
दारोगा वंशीधर ने बदलूसिंह को फिर से आदेश दिया, “इसे हिरासत में ले लिया जाए।” जैसे ही बदलूसिंह पंडित की ओर बढ़ा, वो बेहोश होकर गिर गए। पंडित जी की गिरफ्तारी की खबर आग की तरह आसपास के इलाकों में फैल गई। इस घटना पर सभी अपना-अपना मत रख रहे थे।
अगले दिन पंडित को अदालत ले जाया जा रहा था, जो भी पंडित को इस हाल में देखता, वह चौंक जाता। यह पहली बार था, जब पंडित अलोपीदीन को ये सब सहना पड़ रहा था। लेकिन, अभी अदालत पहुंचने में देर थी। पंडित जी इस शहर के सेठ थे। अधिकारी लोग उनके भक्त, वकील उनके आज्ञापालक और चपरासी-चौकीदार उनके गुलाम थे।
पंडित जी को बचाने के लिए वकीलों की सेना तैयार की जा रही थी। पैसों की कोई चिंता न थी। सच को झूठ साबित करने के लिए पूरा इंतजाम किया गया। इधर, वंशीधर के पास सच के सिवा कोई सबूत नहीं था। उन्हें विश्वास था कि पंडित अलोपीदीन को सजा जरूर मिलेगी। लेकिन, सब कुछ उल्टा पड़ गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने पंडित अलोपीदीन को बरी करते हुए कहा कि इन पर लगाए गए सभी आरोप बेबुनियाद हैं।
पंडित अलोपीदीन हंसते हुए दारोगा वंशीधर के पास से गुजर गए। दारोगा को सभी के सामने अपमान झेलना पड़ा। यहां तक कि उन्हें नौकरी से हटा भी दिया गया। यह खबर लिए जब मुंशी वंशीधर अपने घर पहुंचे, तो पिता ने उन्हें खूब सुनाया। उन्होंने कहा, “मेरे लाख कहने पर भी तुमने मेरी बात न मानी। मेरा मन कर रहा है कि अपना और तुम्हारा सिर फोड़ दूं।” मुंशी वंशीधर चुपचाप यह सब सुनते रहे।
इसी तरह एक सप्ताह बीत गया। शाम का समय था। मुंशी के घर एक सजा-धजा रथ आकर थमा। वो पंडित अलोपीदीन थे। उन्हें देखते हुए मुंशी के पिता दौड़े-दौड़े उनका स्वागत करने के लिए आगे बढ़े और उन्हें झुककर सलाम किया। उन्होंने पंडित जी से माफी मांगते हुए कहा, “नालायक लड़का है, इससे अच्छा होता कि हमें भगवान निसंतान रखता।”
इस बात पर पंडित जी ने कहा, “ऐसा मत कहो, धर्म पर चलने वाले लोग बहुत कम होते हैं।” वंशीधर की ओर बढ़ते हुए पंडित जी ने कहा, “दारोगा साहब इसे खुशामद न समझें, क्योंकि खुशामद करने के लिए मैं इतनी दूर न आता। उस रात आपने मुझे हिरासत में लिया था, लेकिन आज मैं खुद अपनी इच्छा से आपकी हिरासत में आया हूं। मैंने हजारों अमीर देखे, हजारो ऊंचे अधिकारियों से काम करवाया, लेकिन आपसे हार गया। मैंने सभी को अपना और अपनी दौलत का गुलाम बनाकर छोड़ दिया, लेकिन आज आप मुझे आज्ञा दें कि मैं आपसे कुछ विनती करूं।”
वंशीधर को लगा था कि पंडित उन्हें बेइज्जत करने आया है, लेकिन उनकी इन बातों को सुनकर उनका भ्रम दूर हुआ। मुंशी वंशीधर ने स्वाभिमान के साथ उनका सम्मान किया। वंशीधर ने पंडित जी की ओर देखा और धीमी आवाज में कहा, “यह आपकी उदारता है। मैं धर्म में जकड़ा हुआ था, नहीं तो मैं आपका दास हूं।”
अलोपीदीन ने वंशीधर से विनम्रता से कहा, “वहां जमुना के पुल पर आपने मेरी एक बात न सुनी, पर अब आपको मेरी एक बात माननी पड़ेगी।” वंशीधर ने कहा, “मैं भला आपके क्या काम आ सकता हूं, लेकिन आप जो करने कहेंगे, उसमें कोई गलती न होगी।”
अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा पत्र निकाला और उसे वंशीधर को देकर बोले, “इस पद को स्वीकार कर लो और अपने हस्ताक्षर कर दो।” जब वंशीधर ने उस स्टाम्प लगे पत्र को पढ़ा, तो उनकी आंखों में आंसू भर आए, क्योंकि पंडित जी ने वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर बनाने का फैसला लिया था। नौकरी पत्र के मुताबिक, वंशीधर को सालाना 6 हजार रुपए, अतिरिक्त भत्ता, सवारी के लिए घोड़ा, रहने को बंगला और नौकर-चाकर मुफ्त पेश किए गए थे। वंशीधर कांपते हुए शब्दों से बोले, “मुझ में अब इतनी हिम्मत नहीं बची है कि आपके सम्मान में कुछ कह सकूं, लेकिन मैं ऐसे ऊंचे पद के लायक नहीं हूं।”
अलोपीदीन हंसते हुए बोले, “मुझे इस समय तुम्हारे जैसे एक अयोग्य शख्स की ही जरूरत है।” वंशीधर ने गंभीर होते हुए कहा, वैसे तो मैं आपका दास हूं, आप जैसे महान और सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है, लेकिन मुझमें ना तो समझ है और न ही शिक्षा, जो इन कमियों को पूरा सकें। ऐसे बड़े पद के लिए आपको किसी अनुभवी की जरूरत होनी चाहिए।”
वंशीधर की बात सुनकर अलोपीदीन ने वंशीधर को कलम थमाते हुए कहा, “मुझे ना तो समझदार इंसान की चाह है और ना किसी अनुभवी शख्स की। ईश्वर की कृपा से मुझे एक मोती मिला है, जिसके आगे अनुभवी इंसान भी फीके पड़ जाएं।” अलोपीदीन ने वंशीधर से आगे कहा, “ज्यादा सोचिए मत और हस्ताक्षर कर दीजिए। ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं कि वह आपको नदी तट वाला रौबदार, ईमानदार, कठोर और धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।”
इतना सुनकर वंशीधर की आंखें एक बार फिर भर आईं। उन्होंने पंडित जी की ओर श्रद्धाभाव से देखा और नौकरी पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। यह देख अलोपीदीन ने मुंशी वंशीधर को अपने लगे से लगा लिया।
कहानी से सीख :
इस कहानी से यह सीख मिलती है कि ईमानदारी और कर्तव्य ही इंसान को बड़ा बनाते हैं। ये वो दौलत है, जिसे हर कोई पा नहीं सकता।