कभी आकर देखो
मेरे कमरे का सन्नाटा
खामोश दरवाजे उदास खिड़कियां
सिमटी, सकुचाती आरजू मेरी
चुप रहने का इशारा करती ये दीवारें
तब तुम समझोगे, मैं तुम बिन कुछ भी नहीं हूं
बहुत रोशनी है कमरे में
फिर भी अंधेरा है, हवा भी आ रही है
फिर भी घूटन है,ये रातें
रात भर जगाती है मुझे
मेरे कर्तव्य, मेरे दायित्व का
लेखा जोखा मांगती है मुझसे
कितने दिन महीने गुज़रे तुम बिन
वो भी मांगती है मुझसे, देखो
डायरी के पन्ने कैसे फरफरा रहे हैं
मानो कुछ कहना चाह रहे हों, पर
इसकी दर्द भरी बातें अब मैं
नहीं सुन सकती,,
अभी मुझे बहुत कुछ करना है,रोकर नहीं
हंसकर करना है, मुझे मेरी मंजिल तक जाना है
शून्य में तुमसे बातें भी करनी है
इसलिए कहती हूं, कभी फुर्सत के पल
निकालकर आ जाओ
और देखो, सुनो, सब का हिसाब कर दो
हो सके तो कुछ पल हमें भी दे देना
और फिर चले जाना, मेरा इंतजार करना।।