राजाभोज एक बार फिर सिंहासन की ओर बढ़े और तभी 22वीं पुतली अनुरोधवती वहां पर आ गई। उसने राजाभोज से कहा कि मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाऊंगी उसके बाद यह फैसला करना कि आप सिंहासन पर बैठने लायक हो या नहीं। इसके बाद 22वीं पुतली ने कहानी सुनाना शुरू किया।
राजा विक्रमादित्य कला प्रेमी थी और अच्छे कलाकारों को सम्मानित करते थे। वह अपने दरबार में मौजूद योग्य लोगों का भी बहुत सम्मान करते थे। उन्हें चापलूसी बिल्कुल भी पसंद नहीं थी। राजा विक्रमादित्य के इस स्वाभाव के बारे में जानकर एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके दरबार पहुंचा। उस युवक को कई शास्त्रों का ज्ञान था और हमेशा खरी बात ही बोलता था। उसका यह स्वाभाव अक्सर राजाओं को पसंद नहीं आता था, जिस कारण उसे हर राजा अपने यहां नौकरी से निकाल देता था। बार-बार नौकरी से निकाले जाने के बाद भी उसने अपनी प्रकृति और व्यवहार को बदला नहीं था। जब वह राजा विक्रमादित्य के दरबार पहुंचा, तो उस समय वहां संगीत का रंगारंग कार्यक्रम चल रहा था। वह राजा के आदेश का इंतजार करने लगा।
वह दरबार के दरवाजे पर खड़ा होकर संगीत सुन रहा था, जिस सुनकर वह धीमी आवाज में बोला, “दरबार में बैठे हुए लोग नासमझ हैं। इन्हें संगीत की बिल्कुल भी समझ नहीं है। साजिंदा गलत धुन बजा रहा है, फिर भी कोई उसे रोक नहीं रहा है।” उसे बोलते हुए वहां खड़े द्वारपाल ने सुन लिया, जिससे उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने युवक से कहा, “महाराज विक्रमादित्य सच्ची कला के प्रेमी हैं और वह खुद दरबार में मौजूद हैं।” द्वारपाल की बात सुनकर युवक हंसा और बोला, “वह कला प्रेमी हो सकते हैं, लेकिन कला पारखी नहीं, क्योंकि साजिंदे की गलती को वह पकड़ नहीं पा रहे हैं।”
युवक की बात सुनकर द्वारपाल ने कहा कि कि अगर उसकी बात गलत साबित हुई, तो उसे दंड मिलेगा। इस पर युवक ने कहा कि अगर उसकी बात गलत साबित हुई, तो वह हर प्रकार की सजा के लिए तैयार है। इसके बाद द्वारपाल ने युवक के बारे में विस्तार से राजा को बताया। राजा विक्रमादित्य ने तुरंत उस युवक को दरबार में लाने का आदेश दिया। राजा विक्रमादित्य के सामने भी युवक ने कहा कि किसी एक साजिंदे की उंगली पर चोट लगी हुई है, जिस कारण संगीत में कम है। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने सभी साजिंदों की उंगलियां देखने का आदेश दिया। जांच के दौरान सच में एक वादक के अंगूठे का ऊपरी भाग कटा हुआ मिला। उसने अंगूठे पर पतली खाल चढ़ा रखी थी।
यह देखकर राजा ने उस युवक की बहुत प्रशंसा की। इसके बाद उन्होंने उस युवक से उसका परिचय पूछा और उसे अपने दरबार में नौकर रख लिया। युवक ने भी समय-समय पर अपनी योग्यता का परिचय, जिससे राजा विक्रमादित्य बहुत प्रभावित हुए।
कुछ दिनों के बाद दरबार में एक खूबसूरत नृतिकी आई। दरबार में उसके नृत्य का आयोजन किया गया। वह युवक भी दरबार में बैठा हुआ था और नृत्य को गौर से देख रहा था। वह नृतिकी बहुत ही अच्छा नृत्य कर रही थी और सभी दरबारी मोहित होकर उसके नृत्य को देख रहे थे। तभी न जाने कहां से एक भंवरा आकर उसकी छाती पर बैठ गया। नृतिकी न तो नृत्य रोक सकती थी और न ही हाथों से भंवरे को हटा सकती थी, क्योंकि ऐसा करने से भंगिमाएं बिगड़ जातीं। ऐसे में उस नृतिकी ने चतुराई से सांस अंदर की ओर खींची तथा पूरे जोर से भंवरे पर छोड़ दी। ऐसा करने में भंवरा उड़ गया। हालांकि, यह घटना कोई नहीं देख सका, लेकिन उस युवक ने सब कुछ देख लिया।
वह नृतिकी की तारीफ करते हुए उठा और अपने गले की मोतियों की माला उस नृतिकी के गले में डाल दी। यह देखकर सभी दरबारी हैरान हो गए। दरबार में मौजूद लोग कहने लगे कि राजा के होते हुए दरबार में किसी और का इस तरह से इनाम देना राजा का सबसे बड़ा अपमान है। युवक का यह व्यवहार राजा विक्रमादित्य को भी यह पसंद नहीं आया और उन्होंने युवक से ऐसा करने के पीछे का कारण बताने को कहा। इस पर युवक ने भंवरे वाली सारी घटना राजा को विस्तार से बता दी। उसने कहा कि नृतिकी ने जिस तरह से सुर, लय, ताल और भाव-भंगिमा के बीच सामंजस्य रखते हुए, जिस सफाई से भंवरे को उड़ाया वह इनाम के काबिल है।
जब विक्रमादित्य ने नृतिकी से पूछा, तो उसने युवक की बातों का समर्थन किया। यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने नृतिकी और उस युवक बहुत तारीफ की। अब उनकी नजर में उस युवक का महत्व और बढ़ गया। अब तो जब भी किसी भी समस्या का हल ढूंढना होता, तो राजा विक्रमादित्य उसकी बातों पर जरूर गौर करते।
ऐसे ही एक दिन दरबार में चर्चा शुरू हुई कि बुद्धि और संस्कार के बीच क्या संबंध है। दरबारियों का कहना था कि बुद्धि से ही संस्कार आते हैं, लेकिन वह युवक उनकी बातों से सहमत नहीं था। उसका कहना था कि संस्कार आनुवंशिक होते हैं। जब इस मुद्दे पर एक राय नहीं बनी, तो विक्रमादित्य ने इसका एक हल निकाला।
राजा ने नगर से दूर जंगल में एक महल बनवाया और उसमें गूंगी और बहरी नौकरानियों को रहने का आदेश दिया। साथ ही चार नवजात शिशुओं को उन नौकरानियों की देखरेख में रखा गया। इनमें से एक शिशु राजा विक्रमादित्य का था, जबकि एक महामंत्री का, एक कोतवाल का और एक ब्राह्मण का था। जब 12 वर्ष के बाद चारों बच्चे दरबार में पेश किए गए, तो राजा विक्रमादित्य ने बारी-बारी से उनसे पूछा, “क्या तुम ठीक है?” चारों ने अलग-अलग जवाब दिए।
राजा के बेटे ने कहा सब कुशल है, वहीं महामंत्री के बेटे ने कहा कि यह संसार नश्वर है। जब आने वाले को जाना है, तो कुशलता कैसी। कोतवाल के बेटे ने कहा कि चोर चोरी करते हैं और नाम खराब निरपराधी का होता है। ऐसी हालत में कुशलता की सोचना बेकार है। अंत में ब्राह्मण के बेटे ने कहा कि जब आयु दिन-ब-दिन घटती जाती है, तो कुशलता कैसी।
चारों के जवाब सुनकर उस युवक की बातों की सच्चाई सामने आ गई। राजा का बेटा निश्चित भाव से सबकुछ कुशल मानता था और मंत्री के बेटे ने तर्कपूर्ण उत्तर दिया। इसी तरह कोतवाल के बेटे ने न्याय व्यवस्था की चर्चा की, जबकि ब्राह्मण के बेटे ने दार्शनिक उत्तर दिया। ये सबकुछ आनुवंशिक संस्कारों के कारण हुआ, जबकि सभी का पालन-पोषण एकसाथ और एक तरह से हुआ। फिर भी चारों के विचारों में अपने संस्कारों की तरह अंतर था। इस प्रकार सभी दरबारियों ने मान लिया कि युवक बिल्कुल सही है।
इतना कहकर 22वीं पुतली वहां से उड़ गई और राजा भोज एक बार फिर इस सोच में पड़ गए कि क्या राजा विक्रमादित्य की तरह वह भी सच्चे और अच्छे लोगों की परख करने के काबिल हैं या नहीं।
कहानी से सीख:
बच्चों, इस कहानी से सीख मिलती है कि जो व्यक्ति हमेशा सच बोलता है और गलत का साथ नहीं देता है, उसका हमेशा समर्थन करना चाहिए। ऐसे लोग कभी भी गलत सलाह नहीं देते हैं और हमेशा सही राह दिखाते हैं।